उज्जैन। महाकाल की नगरी में आज भी अनोखी परंपरा चली आ रही है और यहां परंपरा दीपावली के दूसरे दिन यानि गोवर्धन पूजा के दिन बनाई जाती है. दरअसल उज्जैन से बड़नगर तहसील के ग्राम भिडावद के सैकड़ों लोग इस प्रथा को निभाते हैं, जिसमें पहले एक गली में बड़ी संख्या में गायों को रोक कर रखा जाता है. उसके बाद लोग जमीन पर लेट जाते हैं और एक साथ से भी गायों को छोड़ दिया जाता है. गाय लेटे हुए लोगों के ऊपर से निकलती है, ऐसी मान्यता है कि "गौ माता किसी को नुकसान नहीं पहुंचाती है, यह परंपरा कई सालों से चली आ रही है."
गायों के पैर से खुद को कुचलवाते हैं लोग: सोमवार को उज्जैन से 75 किलोमीटर दूर बड़नगर तहसील के ग्राम भिडावद मे गोवर्धन पूजा पर सैकड़ों दौड़ती हुई गाय गांव के लोगों को रौंदती हुई उनके ऊपर से निकलीं, इस अनूठी परंपरा का निर्वहन ग्रामीण कई वर्षों से कर रहे हैं. मन्नत पूरी होने पर ग्रामीण प्रत्येक वर्ष इस परंपरा में भाग लेते हैं, इस परंपरा में उपवास रखने वाले ग्रामीण 5 दिन मंदिर में रहकर भजन-कीर्तन करते हैं और आखरी दिन जमीन पर लेट जाते हैं. इसके बाद ग्रामीणों के ऊपर से एक साथ सैकड़ों दौड़ती गायों को निकाला जाता है.
मौत के खेल की परंपरा में आज तक नहीं हुई जनहानि: उज्जैन बडनगर तहसील के ग्राम भिडावद मे सोमवार को अनूठी और रोंगटे खड़ी कर देने वाली आस्था देखने को मिली. गांव में सुबह गौरी का पूजन किया गया, पूजन के बाद ग्रामीण जमीन पर लेटे और उनके ऊपर से दौड़ती गाय को देख कई लोगों की सांसे थम गई. मान्यता है कि ऐसा करने से गांव में खुशहाली आती है और जिन लोगों की मन्नत पूरी हो जाती है वे इस मौत के खेल का हिस्सा बनते हैं. ग्रामीण बताते हैं कि "गाय में 33 कोटि के देवी देवताओं का वास रहता है और गाय के पैरों के नीचे आने से भगवान का आशीर्वाद मिलता है. इस परंपरा में आज तक कोई भी जनहानि नहीं हुई है."(ujjain maut ka khel)
कब से शुरु हुई परंपरा किसी को अंदाजा नहीं: ग्रामीण बताते "दीपावली के पांच दिन पहले सभी परंपरा निभाने वाले लोगों ने एकादशी के दिन अपना घर छोड़ दिया था और वे गांव के माता भवानी के मंदिर में आकर रहने लगे थे. आज दिवाली के अगले दिन मन्नतधारियों को गायों के सामने जमीन पर लेटाया गया और ढोल बजाकर एक साथ गायों को उनके ऊपर से निकाला गया. गांव में ये परंपरा कब शुरू हुई किसी को याद नहीं, लेकिन यहां के बुजुर्ग हों या जवान सभी इसे देखते हुए बड़े हुए हैं. प्रति वर्ष दिल को दहला देने वाले इस नजारे को देखने के लिए आस पास के गांवो से हजारों लोग जुटते है. गांव की महिलाएं भी इस परंपरा को सुख शांति और समृद्धि का प्रतीक मानती हैं."