शाजापुर। दीपोत्सव के नजदीक आते ही मालवा क्षेत्र में कई प्रथाएं और मान्यताएं देखने को मिलती हैं. ऐसी ही एक प्रथा है 'छेड़ा', जिसे मालवा का जल्लीकट्टू भी कह सकते हैं. ये प्रथा ग्रामीण इलाकों में खूब प्रचलित है. जिसके तहत धनतेरस के दिन गाय-बैलों को नहलाकर उन्हें मेंहदी लगाई जाती है. जिसके बाद अगले दिन इन गाय-बैलों को एक खूंटे से बांधकर लोग घास का डंडे का गुच्छा बनाकर उसे छेड़ते हैं. इसी के चलते इसे छेड़ा कहा जाता है.
ग्रामीण इस प्रथा को खेल का नाम देते हैं. गिरवर गांव के ग्रामीणों ने बताया कि ये परंपरा कई दशकों से चली आ रही है. गांव में ही रहने वाले लाल सिंह बताते हैं कि दीपावली के पहले पूरे मालवा में छेड़ा मनाया जाता है. बस कहीं-कहीं इसका नाम बदल जाता है. कुछ लोग इसे छेड़ा कहते हैं तो कुछ छाबड़ा. इस खेल में बच्चे, बूढ़े, जवान सब शामिल होकर सुबह से लेकर शाम तक इस खेल का आनंद लेते हैं.
हालांकि, ये खेल क्यों आयोजित किया जाता है, इसका जवाब ग्रामीणों के पास नहीं है. उनका कहना है कि ये खेल कई पीढ़ियों से होता आ रहा है. अब इसे परंपरा कहें या लोगों का विश्ववास या मनोरंजन का साधन, लेकिन एक बात तो है कि इस खेल में हादसे की आशंका हमेशा बनी रहती है.