शहडोल। शहडोल जिला आदिवासी बाहुल्य जिला है और यहां पर टैलेंट की किसी तरह की कोई कमी नहीं है. ये वही जिला है जो क्रिकेट का बड़ा गढ़ बन चुका है. यहां पर क्रिकेट में तो इंटरनेशनल लेवल पर खिलाड़ी निकल कर सामने आ रहे हैं, तो वही यह वही जिला है जहां से एक भी एथलेटिक्स का खिलाड़ी इंटरनेशनल लेवल पर अपनी पहचान नहीं बना पा रहा है. आखिर क्या वजह है यहां से क्रिकेट में तो खिलाड़ी दूर तलक तक अपनी पहचान बना रहे हैं, लेकिन एथलेटिक्स में खिलाड़ी कुछ खास नहीं कर पा रहे हैं. आखिर इन खिलाड़ियों के राह में क्या कमी रह जा रही है.
आखिर एथलेटिक्स में क्यों नहीं निकल पा रहे खिलाड़ी ?
शहडोल जिला आदिवासी बाहुल्य जिला है और शहडोल में एथलेटिक्स के क्षेत्र में काम किया जाए तो निश्चित तौर पर इंटरनेशनल स्तर पर कई खिलाड़ी यहां से निकल सकते हैं, लेकिन आखिर वो क्या वजह है जिसके चलते यहां से एथलेटिक्स में खिलाड़ी इंटरनेशनल लेवल तक अपनी छाप नहीं छोड़ पा रहे हैं और बीच रास्ते में ही उनके खेल करियर का पूरा सफर खत्म हो जाता है आखिर ऐसी वह क्या रुकावटें हैं, जो इतने सालों में भी जिले से एथलेटिक्स में कोई भी खिलाड़ी इंटरनेशनल लेवल तक अपनी धमक नहीं दिखा सका.
न प्रॉपर ग्राउंड, न डाइट, न विशेष सुविधा
आखिर वह क्या वजह है जिसके चलते एथलेटिक्स में यहां से बड़े लेवल के खिलाड़ी नहीं निकल पा रहे हैं. इसे जानने के लिए हम सबसे पहले उन खिलाड़ियों के पास ही पहुंचे जो इन दिनों 28 तारीख को होने वाले सीनियर नेशनल की तैयारी के लिए स्टेडियम पहुंचे हुए थे. जब उनसे हम उनकी परेशानियों के बारे में पूछे तो उसे सुनकर आप भी मान जाएंगे कि आखिर यहां से एथलेटिक्स में क्यों कोई खिलाड़ी है. बड़ा कारनामा नहीं कर पा रहा है. सूरज सिंह खुद एक युवा एथलीट हैं और उनका सपना इंटरनेशनल लेवल का एथलीट बनने का है लेकिन शुरुआती लेवल में ही उन्हें जिस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है उनका ये सपना कभी पूरा हो भी पाएगा या नहीं. इस पर उन्हें अब संदेह होने लगा है.
प्रैक्टिस में आती है कई मुश्किलें
युवा एथलीट सूरज सिंह बताते हैं कि वो शहडोल के रहने वाले है और हंड्रेड, 200 मीटर इवेंट की तैयारी कर रहे है. अभी जो 28 तारीख को सीनियर नेशनल होने वाला है. उसके लिए सभी तैयारी कर रहे हैं कर रहे हैं और हमारा लक्ष्य इंटरनेशनल प्लेयर बनने का है. जब हमने उनके सपने की राह में आने वाले दिक्कतों के बारे मे पूछा तो उन्होंने बताया कि यहां तो दिक्कत ही दिक्कत है. पहला प्रैक्टिस के लिए प्रॉपर ग्राउंड नहीं है. उबड़ खाबड़ सरफेस में रनिंग करने से पैर में इंजरी आ जाती है. लेकिन मजबूर हैं क्योंकि इसके अलावा प्रैक्टिस के लिए कोई दूसरा ऑप्शन भी नहीं है.
साधन हो तो अच्छी प्रैक्टिस हो सकती है
दूसरों की जगह जो एथलेटिक्स के बच्चे आते हैं. जब कंपटीशन में आते हैं तो अपने और उनमें बड़ा फर्क देखने को मिलता है, जो दूसरी जगह के बच्चे होते हैं उनको मैट और सिंथेटिक ग्राउंड में उनकी प्रेक्टिस होती है तो वहां के बच्चे एक वेल परफेक्ट अभ्यास करके मैदान में उतरते हैं, वो अच्छे इंप्रूवमेंट ला सकते हैं. हमारी बात करें तो अभ्यास के लिए तो हमें यहां ग्राउंड ही नहीं मिल पाता है, क्योंकि यहां कई सारे गेम्स चलते रहते हैं तो उस बीच में लांग रनिंग के लिए अभ्यास करना आसान नहीं होता है और उसके लिए समय ही नहीं मिल पाता है.
संसाधनों की बड़ी कमी
युवा एथलीट शालिनी तिवारी बताती हैं कि वह शहडोल की रहने वाली है और वह भी 200 मीटर की तैयारी कर रही है. अभी 28 तारीख को सीनियर नेशनल होने वाला हैं जिस की तैयारी करनी है और उसी पर उनका ज्यादा फोकस है, लेकिन शालिनी तिवारी भी वही समस्या बताती है कि डाइट की समस्या तो आती ही है, साथी एक बेहतर ग्राउंड की समस्या संसाधनों की समस्या तमाम समस्याओं से जूझना पड़ता है और फिर डाइट की भी समस्या होती ही है.
'अभावों में कैसे तैयार हों बेहतर एथलीट'
एथलेटिक्स के एनआईएस कोच धीरेंद्र सिंह से इस समस्या के बारे में जब हमने पूछा,- आखिर वह क्या वजह है जिससे एथलेटिक्स के बेहतर खिलाड़ी यहां से नहीं निकल पा रहे, जो इंटरनेशनल लेवल पर अपनी धमक दिखा सकें. समस्याओं को गिनाते हुए कोच धीरेंद्र सिंह बताते हैं कि वैसे देखा जाए तो यहां तो एथलीट बहुत अच्छे हैं लांग डिस्टेंस रनर, मिडल डिस्टेंस रनर, स्क्रीन टच, स्प्रिंटर सारे एथिलीट है और अभ्यास भी करते हैं, लेकिन जो सुविधाएं इनको मिलनी चाहिए ग्राउंड का यह ग्राउंड जैसे इसी स्टेडियम को ही देखे, तो 400 मीटर के नाम से नॉमिनेट जरूर था लेकिन मुझे लगता है अतिक्रमण हो गया करीब 10 गेम 400 टाइप के निरंतर चालू रहते हैं. जिसकी वजह से एथलेटिक्स की जो ट्रेनिंग है यहां पर प्रभावित होती हैं और दूसरीं वजह डाइट की है जो यहां के बच्चे हैं निश्चत रूप से जो एथलीट होता है खिलाड़ी होता है उसे तैयार करने में बहुत ज्यादा खर्च आता है.
ऐसे बच्चों की मदद के लिए आगे आए लोग
उसको अगर शूज ही खरीदना है तो वह मिनिमम 3000 का है. ट्रैक सूट अगर लेना है तो कम से कम 5000 का ट्रैक सूट खरीदना होगा. यह खर्चीली ट्रेनिंग है, यह भी एक विशेष वजह है बच्चे इसे एफोर्ट नहीं कर पाते और उनके पेरेंट्स भी इस चीज को नहीं समझते तो उतना वह भी कोऑपरेट नहीं करते. ट्रेनिंग को लेकर कोच कहते हैं कि हम तो प्रयास करते हैं बच्चे अच्छा रिजल्ट दे. अपना नाम रोशन करें अपने माता-पिता का नाम रोशन करें देश का नाम रोशन करें जिले का नाम रोशन करें, लेकिन ये तभी संभव है जब इन्हें प्रोत्साहन मिले, चाहिए धनाढ्य वर्ग को समाजसेवियों को समझाना होगा कि एथेलेटिक्स में क्या-क्या समस्या आती हैं. प्लेयर जब इतनी कठोर मेहनत करता है तो उसको उसके डाइट के लिए उसके प्रबंधन के लिए पैसों की आवश्यकता पड़ती है. इसलिए थोड़ा सा हमारा समाज जागरुक हो जाए इसे लेकर हमारे उद्योगपति अधिकारी समाजसेवी अगर समझने लग जाएं, जागरूक हो जाएं तो निश्चित रूप से शहड़ोल के भी प्लेयर अच्छा रिजल्ट देंगे और इंटरनेशनल लेवल पर इनकी धमक देखने को मिल सकती है.
'स्ट्रेंथ की भरमार लेकिन एक्सपोजर की कमी'
फिजिकल एजुकेशसन एंड स्पोर्ट्स के एचओडी डॉक्टर आदर्श तिवारी कहते हैं कि ये जिला हमारा आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है और यहां के बच्चों की स्ट्रेंथ देखें तो दूसरे जगह के बच्चों से बहुत ज्यादा स्ट्रेंथ है. इन्हें दूसरे बच्चों की तुलना में बस यहां एक समस्या ये है कि इन क्षेत्रों में खेलों के प्रति और जिस बीट एथलेटिक्स के संदर्भ में पूछ रहे हैं तो इनमें एक तो जागरूकता की कमी है. खिलाड़ी खेलता तो है लेकिन अपने स्तर पर ही खेलता है जितना उसको ज्ञान है उसके पास एक्सपोजर किसी तरह का है नहीं, वो जान ही नही पाता कि उसके खेल में क्या-क्या स्तर होते हैं और किन-किन स्तरों में वो जा सकता है, कहां-कहां अपना खेल दिखाया जा सकता है. आदिवासी अंचल है तो जैसा कि मैने बताया कि उनके पास खूब स्ट्रेंथ है लेकिन अब उनके पास प्रॉपर ट्रेनिंग नहीं है तो वो क्या करें मतलब एनर्जी तो है लेकिन उस एनर्जी का प्रॉपर उसे इस्तेमाल कैसे करना है, एक जो साइंटिफिक ट्रेनिंग होती है एथलीट की, उसका पूरी तरह से अभाव है.
रीजनल, क्षेत्रीय लेवल पर इन खेलों का कम प्रचलन
अब दूसरे खेलों को देखें तो किसी न किसी पर पर उत्सव माहौल में ऐसे खेल रीजनल लेवल पर क्षेत्रीय लेवल पर खेले जाते हैं लेकिन एथलेटिक्स की प्रॉपर बात करें तो इसके रीजनल लेवल पर खेल ही नहीं होते हैं. क्षेत्रीय लेवल पर बहुत ज्यादा इसका प्रचलन है. पूरे संभाग में देखें तो एक लेडीस का रीजनल लेवल पर कोई ऐसा टूर्नामेंट ही नहीं होता है, जिसमें ऐसे खिलाड़ी खेल सके एजुकेशनल इंस्टिट्यूट को छोड़ दे, तो वहां जरूर कुछ आयोजन होते रहते हैं. लेकिन वहां भी परंपरागत एथलेटिक्स होती है वहां भी बहुत ज्यादा विकास नहीं हुआ है.
ओपन कंपटीशन में सहभागिता कम
फिर बात करें ओपन कंपटीशन की तो हमारे क्षेत्र की सहभागिता बहुत कम है क्योंकि ओपन प्रतियोगिता के लिए भी खिलाड़ियों को आगे आना चाहिए. हमारे क्षेत्र में हमारे शासन स्तर पर काफी सारी प्रतियोगिताएं हो रही है, लेकिन खिलाड़ी को उसका ज्ञान ही नहीं हो पाता है.
सामाजिक स्तर की कमी
हमारा क्षेत्र आदिवासी बाहुल्य जिला है तो यहां सामाजिक स्तर की भी कमी है और जब सामाजिक स्तर में कमी होती है तो फिर इसका असर खिलाड़ियों के मानसिक स्तर पर भी होता है और मुझे ऐसा लगता है कि वैसे भी अपना आदिवासी बाहुल्य जिला है, तो प्रॉपर ट्रेनिंग नहीं हो रही है, तो डाइट की भी कमी है वैसे भी सामाजिक स्तर यहां बहुत कम है आप देखिए तो हमारे यहां जो एथलीट होते हैं. वह गरीब परिवार निम्न मध्यम वर्गीय परिवार मध्यम वर्गीय परिवार या की प्रॉपर गांव से होते हैं. दूसरी बात देखे यहां के खिलाड़ियों का अब कितना भी मेहनत करा लीजिए, ग्राउंड पर दौड़ा लीजिये वो करेंगे और जीतेंगे भी, लेकिन वही बात जब डाइट की बात आती है तो वह यहां पर प्रॉपर नहीं है और ना ही उन्हें ऐसा कोई ट्रेनिंग है जो डाइट के बारे में बताता रहे.
प्रोत्साहन और स्पॉन्सर का अभाव
एथलेटिक्स की बात करें तो इस क्षेत्र में खिलाड़ियों को प्रोत्साहन का भी अभाव है यहां न कोई ऐसी एजेंसी है ना कोई स्पॉन्सर है. जो खिलाड़ियों को प्रोत्साहित कर पाए कुछ खिलाड़ियों को गोद लेने जैसा कि कई जगहों पर यह परंपरा है इसका भी अभाव है साथ ही स्पॉन्सर भी कम है.