शहडोल। शहडोल जिला मुख्यालय से ही लगा हुआ है आदिवासी बाहुल्य गांव विचारपुर. (Shahdol Football Village) एक ऐसा गांव जिसका नाम आते ही सबसे पहले फुटबॉल का नाम लिया जाता है, क्योंकि इस गांव के हर व्यक्ति के रग-रग में फुटबॉल बसता है. तभी तो यह एक ऐसा गांव है जहां हर दूसरे घर में फुटबॉल के नेशनल खिलाड़ी (National football player) आपको मिल जाएंगे. झमाझम बरसात में भी छोटे-छोटे बच्चों का इस तरह से फुटबॉल खेलना उनके जुनून को दिखाता है, और यही वजह भी है कि इस गांव को फुटबॉल के नाम से जाना जाता है. फुटबॉल के इन खिलाड़ियों के जुनून को देखकर आप भी हैरान रह जाएंगे, सुबह हो या शाम हर समय प्रैक्टिस के लिए नर्सरी के बच्चों से लेकर बड़े-बड़े युवा तक अभ्यास करने यहां पहुंचते हैं और फुटबॉल में अपना दम दिखाते हैं. ये बात आपको हैरान जरूर कर देगी, लेकिन नेशनल खेलने के बाद भी यहां के युवा हताश हैं. (vicharpur mp tribal village) (tribal village highest number football player)
हर दूसरे घर में नेशनल खिलाड़ी: विचारपुर भले ही आदिवासी बाहुल्य गांव है, लेकिन इस गांव में हर दूसरे घर में आपको फुटबॉल का नेशनल खिलाड़ी मिल जाएगा. इतना ही नहीं एक दो नेशनल की बात तो अलग है यहां तो कई खिलाड़ी ऐसे हैं जो आठ से दस बार नेशनल लेवल पर खेल चुके हैं, जो अब गांव की पहचान भी बन चुके हैं. फुटबॉल में यहां लड़के ही नहीं बल्कि लड़कियां भी उतना ही कमाल करती हैं. जिस तरह से यहां के लड़के फुटबॉल में नेशनल खेल चुके हैं, तो वहीं यहां की कई लड़कियां भी फुटबॉल में नेशनल में अपना दम दिखा चुकी हैं.
क्यों हताश हैं खिलाड़ी: इतने नेशनल खेलने के बाद भी इस गांव के युवा खिलाड़ी हताश हैं, जिसकी वजह दो पुराने खिलाड़ी यशोदा सिंह और लक्ष्मी सहीस ने बताई. फिलहाल ये दोनों ही खिलाड़ी इन दिनों विचारपुर के फुटबॉल खेल मैदान में छोटे-छोटे बच्चों को फुटबॉल की कोचिंग देती हैं या यूं कहें कि फुटबॉल के गुर सिखा रही हैं. यशोदा सिंह बताती हैं कि, "मैं स्नातक तक की पढ़ाई कर चुकी हूं और अब तक 5 से 6 नेशनल लेवल पर फुटबॉल खेल चुकी हूं, लेकिन अब तक बेरोजगार हूं. फुटबॉल से मुझे कुछ भी नहीं मिला, सिर्फ सर्टिफिकेट मिला है, जिसे लेकर अब थोड़ी सी हताशा होती है."
वहीं लक्ष्मी सहीस का कहना है कि, "मैं भी यहां छोटे-छोटे बच्चों को फुटबॉल सिखाती हूं, वह फुटबॉल में 11 नेशनल खेल चुकी हूं. मैं पोस्ट ग्रेजुएट भी हूं, लेकिन अब तक बेरोजगार हूं, मुझे भी सर्टिफिकेट के अलावा फुटबॉल से कुछ नहीं मिला." दोनों ही नेशनल खिलाड़ी बतातीं हैं कि उनके गांव (Shahdol unique village vicharpur) में यही बस नहीं हैं, ऐसे कई युवा खिलाड़ी हैं जो कई नेशनल फुटबॉल में खेल चुके हैं और सभी बेरोजगार हैं. अब सभी खिलाड़ी रोजी रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं, कोई मजदूरी कर रहा है तो कोई किसी दुकान में काम, तो कोई दूसरे कार्य करके अपने रोजी-रोटी के जुगाड़ में लगा रहता है. लेकिन फुटबॉल खेल कर उन्हें कुछ भी लाभ नहीं हुआ, जिसे लेकर अब यहां के युवाओं में काफी हताशा भी है.
फुटबॉल से हुआ था मोह भंग, अब मैदान पर लौट रहे खिलाड़ी: विचारपुर गांव में एक दौर ऐसा भी आया था, जब फुटबॉल के प्रति इतने जुनूनी खिलाड़ियों का इस गेम से मोहभंग हो गया था. जिस गांव के लोगों के रग-रग में फुटबॉल बसता है उस गांव से फुटबॉल भी विलुप्ति की कगार पर था, लेकिन यहां के पूर्व सरपंच, गांव वालों के प्रयास और कमिश्नर की पहल की वजह से एक बार फिर से इस गांव में फुटबॉल का खेल गुलजार होने लग गया है. छोटे-छोटे बच्चे खेल के मैदान पर नजर आने लग गए हैं. विचारपुर गांव के पूर्व सरपंच शीतल सिंह टेकाम बताते हैं कि, "विचारपुर गांव जो फुटबॉल के नाम से बहुत पहले से जाना जा रहा है, और यहां के करीब 25 बच्चे ऐसे हैं जो नेशनल स्तर तक खेल चुके हैं. एक बार नहीं बल्कि एक-एक खिलाड़ी कई-कई बार नेशनल खेल चुके हैं, लेकिन लगता है इस गांव में रहने की वजह उन्हें कोई मंच नहीं मिला, इन खिलाड़ियों को प्रोत्साहन नहीं मिलने के कारण धीरे-धीरे यहां से फुटबॉल विलुप्त होते जा रहा था. उसके बाद जब मैं यहां का सरपंच बना तो सरपंच होने के बाद एक बार फिर से फुटबॉल को जिंदा करने के लिए मैंने पहले प्रयास करके शासन स्तर से गांव में ही ग्राउंड दिया. गांव में ही इस खेल को बढ़ावा देने एसडीएस ग्रुप के नाम से एक समिति बनाई और उस समिति के माध्यम से हम लोग लगातार प्रयास करके बच्चों को घर से निकालने का काम किया. एक नर्सरी के बच्चों के रूप में हमने पहल किया और नर्सरी के बच्चों माध्यम से फिर से शुरुआत की और अब यहां फिर से बच्चे आने लगे हैं. कमिश्नर राजीव शर्मा के आने से भी यहां बहुत कुछ मदद मिल रही है."
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पुराने खिलाड़ियों को सता रहा ये डर: विचारपुर के कई ऐसे नेशनल खिलाड़ी आज भी मैदान में युवा बच्चों को फुटबॉल सिखाने के लिए पहुंचते रहते हैं, लेकिन उन्हें भी अभी भी इस बात का डर सता रहा है कि इन युवा खिलाड़ियों का भी हाल उनके जैसा ही ना हो. अगर यही हाल रहा तो किसी तरह यहां का फुटबॉल फिर से जिंदा हो रहा है, अब वह पूरी तरह से विलुप्त हो जाएगा. यहां के सीनियर खिलाड़ियों ने शासन, प्रशासन और सरकार से अपील की है कि, इस गांव के फुटबॉल खिलाड़ियों की ओर भी ध्यान दिया जाए. इन खिलाड़ियों को सही तरीके से ट्रेनिंग दी जाए, हर सुविधा उपलब्ध कराई जाए और तरीके से ध्यान दिया जाए. खिलाड़ियों का कहना है कि अब तक इस गांव से नेशनल तक ही खिलाड़ी पहुंचे हैं, लेकिन भविष्य में कई ऐसे खिलाड़ी आगे निकलेंगे जो इंटरनेशनल में भी अपनी दम दिखाएंगे.
सिर्फ नेशनल खेलने से नौकरी नहीं मिलती: खेल एवं युवा कल्याण विभाग शहडोल के खेल अधिकारी रविंद्र हार्डिया विचारपुर के फुटबॉल खिलाड़ियों को लेकर कहते हैं कि, "यहां का ग्राउंड खेल एवं युवा कल्याण विभाग को हस्तांतरित करने के लिए प्रोसेस चल रहा है. यहां के जो प्लेयर्स नेशनल खेले हैं, वह उस क्राइटेरिया में नहीं आ पाए हैं जिससे उन्हें नौकरी मिल सके. विक्रम अवार्डी उत्कृष्ट खिलाड़ी होने पर ही मध्यप्रदेश शासन के तहत इनको नौकरी दी जाती है. खेल युवा कल्याण विभाग कोशिश कर रहा है कि यह खिलाड़ी भी उस क्राइटेरिया तक पहुंचे और यहां फुटबॉल को जिंदा करने के लिए ठोस प्रयास किए जा रहे हैं."
इसलिए भी निराश हैं खिलाड़ी: गौरतलब है कि एक ओर जहां पूरे देश में क्रिकेट की दीवानगी गली मोहल्ले में देखते ही बनती है तो वहीं दूसरी ओर शहडोल जिले का विचारपुर गांव एक ऐसा गांव है जहां गली मोहल्ले में क्रिकेट नहीं बल्कि फुटबॉल की दीवानगी देखने को मिलती है. लेकिन बस फर्क इतना है कि आदिवासी बाहुल्य गांव में फुटबॉल के इन युवा खिलाड़ियों को वह बेसिक सुविधाएं गाइडेंस और एक बड़ा मंच नहीं मिल पाता, जिससे यहां के खिलाडी आगे चलकर हताश और निराश हो जाते हैं.