शहडोल। ये आदिवासी बाहुल्य जिला है और यहां बैगा समाज (Baiga Tribals Cheend Jhadhu) के लोग भी काफी संख्या में रहते हैं. जिले के कुछ गांव में बैगा समाज के कई ऐसे परिवार हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी जंगलों से छींद काट कर लाते हैं और फिर उससे झाड़ू बनाते है. यही उनकी रोजी रोटी का साधन है. लेकिन झाड़ू के दाम इन लोगों को काफी कम मिलते हैं. आइए जानते हैं कैसे छींद की झाड़ू बैगा आदिवासियों की किस्मत बदल सकती है.
झाड़ू बदल सकती है आदिवासियों की किस्मत
झाड़ू एक ऐसी चीज है जो हर घर में इस्तेमाल होती है. हर दिन हर घंटे लोगों को झाड़ू की जरूरत होती है. घर, दुकान या दफ्तार कोई भी जगह हो, झाड़ू की सभी जगह जरूरत होती है. बैगा आदिवासियों के जीवनयापन का जरिया है झाड़ू. अगर व्यस्थित रूप में सही तरीके से इसकी (Baiga Tribals Cheend Jhadhu) मार्केटिंग की जाए तो ये झाड़ू इनका जीवन बदल सकता है.
पीढ़ियों से बना रहे झाड़ू
जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में छींद की झाड़ू का चलन काफी ज्यादा है. ईटीवी भारत शहडोल जिला मुख्यालय से लगभग 15 से 20 किलोमीटर दूर दूधी गांव में पहुंचा. सड़कों पर छींद सूख रहे थे. जब उस गांव से गुजरेंगे तो पूरी सड़कों पर हर घर के सामने कटी हुई छींद सूखती हुई मिलेगी. (Baiga Tribals Cheend Jhadhu) लोगों ने बातचीत में बताया कि वो छींद से झाड़ू बनाने का काम करते हैं. इसी से उनके घर का चूल्हा जलता है.
छींद की झाड़ू से चलता है घर
दूधी गांव की रहने वाली गुड्डी बैगा और गोमती बैगा छींद काटकर उसे सड़कों पर सुखाने का काम कर रही हैं. उन्होंने बताया कि छीन्द की झाड़ू बनाने के लिए सबसे पहले वो छीन्द काटकर लाते हैं. फिर उसे लाकर सुखाते हैं. सूखने के बाद उसकी झाड़ू तैयार करते हैं. झाड़ू (Baiga Tribals Cheend Jhadhu) तैयार हो जाने के बाद फिर उसे घर-घर जाकर बेचते हैं . इसी से उनका घर चलता है. गुड्डी बैगा और गोमती बैगा ने बताया कि पूरा परिवार यही काम करता है. परिवार के सभी सदस्य मिलकर जब झाड़ू बनाते हैं तो 1 दिन में लगभग डेढ़ सौ झाड़ू तैयार कर लेते हैं. झाड़ू बनाने के लिए 2 से 3 दिन का वक्त लग जाता है. क्योंकि छीन्द काट कर लाना पड़ता है, उसे सुखाना पड़ता है और फिर झाड़ू तैयार किया जाता है.जब झाड़ू बन जाता है तो उसे बेचना सबसे बड़ी चुनौती होती है.
छतीसगढ़ तक जाते हैं झाड़ू बेचने
गुड्डी बैगा और गोमती बैगा बताती हैं कि झाड़ू बेचने के लिए वह शहडोल के ग्रामीण (Baiga Tribals Cheend Jhadhu) अंचलों में घूमती हैं. इसके अलावा धनपुरी अमलाई अनूपपुर में भी जाती हैं. इतना ही नहीं झाड़ू बेचने के लिए वो छत्तीसगढ़ के पेंड्रा और गौरेला तक भी जाती हैं. वह लोकल ट्रेन से जगह-जगह जाती हैं और झाड़ू बेचने का काम करती हैं.
12 महीने झाड़ू बनाने का काम चलता है
गुड्डी बैग और गोमती बैगा बताती हैं कि वो 12 महीने झाड़ू बनाने का काम करती हैं. वे बताती हैं कि अगर व्यापार अच्छा रहा तो 1 दिन में 300 से ₹400 तक वह कमा लेते हैं. एक झाड़ू ₹10 में बिकता है. कभी-कभी तो थोक भाव में ₹5 में भी झाड़ू देना (Baiga Tribals Cheend Jhadhu) पड़ जाता है. लेकिन ₹10 से ज्यादा कभी कोई नहीं देता. सालों से यही रेट चल रहा है. वो पूछती हैं कि हर किसी का रेट बढ़ता है, लेकिन छीन्द की झाड़ू का दाम वहीं का वहीं है.
सरकार कर दे थोड़ी मदद, तो बन जाए बात
गुड्डी बैग और गोमती बैगा बताती हैं कि कभी-कभी तो उनकी एक भी झाड़ू नहीं बिकती है. पीढ़ी दर पीढ़ी उनका परिवार यही काम कर रहा है. उनके माता-पिता घर वाले पहले यह काम किया करते थे. अब वह लोग इसे आगे बढ़ा रहे हैं. लेकिन कुछ बदला नहीं है. गोमती बैगा और गुड्डी बैगा कहती हैं कि सरकार अगर थोड़ा इधर भी ध्यान दे दे. उनके इस व्यापार के लिए भी कुछ (Baiga Tribals Cheend Jhadhu) रास्ता सुझा दे तो उनकी बहुत मदद हो सकती है. सरकार किसानों के अनाज को तो खरीदती है, लेकिन पीढ़ियों से वो लोग झाड़ू बनाने का काम कर रहे हैं. अगर उनके झाड़ू को बेचने के लिए एक अच्छा बाजार उपलब्ध करा दिया जाए तो उनकी अच्छी कमाई हो सकती है.
ग्रामीण अंचलों में हिट है छींद की झाड़ू
गृहणी इंद्रवती गुप्ता बताती हैं कि उन्होंने कभी भी बाजार से झाड़ू नहीं खरीदी. बल्कि हमेशा बैगा आदिवासियों की छीन्द से बनी झाड़ू ही खरीदती हैं. क्योंकि छीन्द से बनी झाड़ू मजबूत होती है, अच्छी होती है . साथ ही सस्ती भी मिल(Baiga Tribals Cheend Jhadhu) जाती है. वही झाड़ू अगर बाजार से खरीदें तो महंगी भी होती है. इंद्रवती गुप्ता को छीन्द की झाड़ू ही पसंद है जो गांव के बैगा आदिवासी समाज के लोग बनाते हैं.
10 रुपए की झाड़ू शहर में 30 रुपए में बिकती है
शहडोल जिला मुख्यालय की दुकानों में आखिर किस कीमत पर झाड़ू मिलती है. ये जानने के लिए हमने बात की जिले के व्यापारी राकेश गुप्ता से. राकेश ने बताया कि उनकी दुकान में 25 से ₹30 तक की झाड़ू है. लोग इसे हाथों-हाथ खरीदते हैं. जब हमने उनसे पूछा कि ग्रामीण बैगा आदिवासी जो झाड़ू बनाते हैं आखिर वह शहरी क्षेत्रों में क्यों नहीं बिकती. इसके बारे में वह बताते हैं कि वो झाड़ू (Baiga Tribals Cheend Jhadhu) थोड़ी छोटी होती है. अगर वह झाड़ू थोड़ी बड़ी बनाई जाए तो उसे भी लोग हाथों हाथ खरीदेंगे .व्यापारी राकेश गुप्ता बताते हैं कि अगर थोड़ी सी बैगा आदिवासी महिलाओं को ट्रेनिंग दी दे दी जाए और उन्हें सही रास्ता दिखाया जाए तो उनकी झाड़ू भी बाजार में जमकर बिकेगी.
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ऐसे बदल सकती है किस्मत
बैगा आदिवासियों की किस्मत छीन्द की झाड़ू बदल (Baiga Tribals Cheend Jhadhu) सकती है. कारण ये है कि पीढ़ियों से ही वे छीन्द की झाड़ू बनाने का काम कर रहे हैं. अगर इन्हें बाजार के हिसाब से थोड़ी ट्रेनिंग दे दी जाए.तो इन्हें भी बड़ा बाजार मिल सकती है. साफ है कि छींद की झाड़ू से इन बैगा आदिवासियों की किस्मत बदल सकती है.