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Navratri Special 2023: सागर की कंधे वाली जय माई, 119 साल से सहेजे हैं परंपरा, हर साल एक जैसी मूर्ति, जानें और क्या है खास - कंधे वाली जय माई की न्यूज

सागर के पुरव्याऊ टोरी में 119 साल से चली आ रही परंपरा को आज भी माता के भक्तों ने सहेजे रखा है. खास बात ये है कि यहां पर एक ही तरह की माता की प्रतिमा को हर साल स्थापित किया जाता है. माता की मूर्ति का जैविक तरीके से निर्माण किया जाता है. इसके अलावा माता का श्रृंगार सोने और चांदी के असली आभूषण से किया जाता है. इसमें किसी भी तरह की आर्टिफिशियल ज्वेलरी का उपयोग नहीं होता. साथ ही हर साल नए आभूषण खरीदे जाते हैं. माता की शोभायात्रा भी कंथो पर निकाली जाती है. इसके बाद विसर्जन किया जाता है.

Navratri Special 2023
सागर की कंधे वाली जय माई
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By ETV Bharat Madhya Pradesh Team

Published : Oct 22, 2023, 3:26 PM IST

सागर में दुर्गा उत्सव की धूम

सागर। नवरात्रि में दुर्गोत्सव की बात हो और बुंदेलखंड के सागर की पुरव्याऊ टोरी पर स्थापित होने वाली मां दुर्गा की प्रतिमा की बात ना हो, तो नवरात्रि का त्योहार अधूरा जान पड़ता है. दरअसल, सागर के पुरव्याऊ टोरी में पिछले 119 साल से मां दुर्गा की स्थापना की जा रही है. खास बात ये है कि दुर्गोत्सव में 119 साल पुरानी परंपराओं को अभी तक सहेज कर रखा है. 119 साल पहले जैविक तरीके से माता की मूर्ति का निर्माण किया जाता था, वैसे आज भी किया जाता है। हर साल माता की मूर्ति एक जैसी होती है.

माता का श्रृंगार सोने और चांदी के असली आभूषण से किया जाता है. किसी भी तरह की आर्टिफिशियल ज्वेलरी से नहीं किया जाता है और हर साल नए आभूषण खरीदे जाते हैं. एक सदी पहले जैसे मां की शोभायात्रा कंधों पर निकालकर विसर्जन किया जाता था. आज भी माता को कंधों पर बिठाकर मशाल की रोशनी में विसर्जन के लिए ले जाते हैं. मशाल के पीछे कंधों पर मां की पालकी लिए भक्त चल माई के उद्घोष के साथ निकलते हैं. सारा शहर मां के दर्शन के लिए कतार में खड़ा हो जाता है.

1905 में शुरू हुई मां दुर्गा की स्थापना: दुर्गोत्सव समिति के प्रमुख राजेंद्र सिंह ठाकुर दिल्ली में एक फैक्ट्री संचालित करते हैं. हर साल नवरात्रि के पहले ही तैयारियों के लिए आ जाते हैं. राजेंद्र सिंह मूर्ति कला में निपुण हैं और खुद मूर्ति तैयार करते हैं. राजेंद्र सिंह बताते हैं कि मां दुर्गा की स्थापना की परंपरा और उनके पूर्वज हीरा सिंह ठाकुर ने की थी जो स्वयं मूर्तिकार थे और ऐसे किसी धार्मिक आयोजन की रूपरेखा बना रहे थे, जिसके जरिए लोगों को संगठित किया जा सके. उनके मन में नवरात्रि पर मां दुर्गा की स्थापना का विचार आया और मूर्ति निर्माण के लिए कई दिनों कोलकाता में रहे, फिर खुद मूर्ति बनाकर 1905 से पुरव्याऊ टौरी पर मां दुर्गा की स्थापना की शुरुआत की.

आज भी 100 साल पुराने तरीक़े से बनती है मूर्ति: राजेंद्र सिंह बताते है कि मूर्ति पूरी तरह से जैविक तरीके से तैयार की जाती है. जिस तरह की मूर्ति बनाकर हीरा सिंह जी ने उत्सव की शुरुआत की थी. आज भी वैसे ही तैयार की जाती है। मिट्टी से मूर्ति बनाई जाती है. किसी भी तरह के केमीकल का उपयोग नहीं किया जाता है. मूर्ति के लिए पानी वाले रंग का उपयोग किया जाता है. महिषासुर मर्दनी के रूप में पालकी पर मां दुर्गा की मूर्ति बनाई जाती है. ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि मां की शोभायात्रा किसी वाहन पर नहीं बल्कि भक्तों के कंधों पर निकलती है. जैसी परम्परा 1905 में शुरू हुई थी.

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गणेश जी ने पहनी मराठी पगड़ी, मां के लिए मैसूर से आई साड़ियां: इस साल 119 वें दुर्गोत्सव में हर बार की तरह 75 फीट ऊंचा पंडाल बनाया गया है. जिसमें मां दुर्गा विराजी है. पंडाल और आसपास का इलाका रंग बिरंगी रोशनी से जगमगा रहा है. मां दुर्गा के लिए मैसूर से साड़ियां लाई गई है. गणेश जी ने पिछली साल बीकानेर की पगड़ी पहनी थी, इस बार मराठी पगड़ी पहनी है. मां दुर्गा के आभूषण मुंबई से मंगाए गए हैं. हर साल मां के लिए नए आभूषण खरीदे जाते है. किसी भी तरह के आर्टिफिशियल ज्वैलरी का उपयोग नहीं किया जाता है.

देशभर से नवरात्रि में इकट्ठा होते है समिति के सदस्य: समिति के ज्यादातर सदस्य देश के अलग-अलग शहरों में व्यावसाय और नौकरी के सिलसिले में रहते हैं. लेकिन नवरात्रि के 10 दिन पहले सागर में इकट्ठा हो जाते हैं. समिति के प्रमुख राजेंद्र सिंह दिल्ली में फैक्ट्री संचालित करते हैं. रामेश्वर सार्वजनिक उपक्रम बीपीसीएल में नौकरी करते हैं. इसके अलावा दूसरे सदस्य भी अलग-अलग शहरों में रहते हैं. सभी हमेशा सागर के साथियों से संपर्क में रहते हैं और साल भर दुर्गोत्सव की योजना पर काम चलता है.

आगे मशाल और भक्तों के कंधों पर माई: जितना मनमोहक मां दुर्गा का पंडाल बनाया जाता है. उतनी ही भव्य मां की सवारी दशहरा के दिन निकलती है. जब 1905 में दुर्गोत्सव की शुरुआत हुई थी तो लाइट के इंतजाम नहीं थे. तब आगे मां की सवारी और पीछे मशाल चलती थी. अब आगे मशाल और पीछे भक्त के कंधों पर मां की पालकी होती है. चल माई चल माई के उद्घोष के साथ पूरा इलाका गूंज उठता है. सड़क के दोनों तरफ मां के दर्शन के लिए श्रृद्धालुओं का सैलाब नजर आता है.

सागर में दुर्गा उत्सव की धूम

सागर। नवरात्रि में दुर्गोत्सव की बात हो और बुंदेलखंड के सागर की पुरव्याऊ टोरी पर स्थापित होने वाली मां दुर्गा की प्रतिमा की बात ना हो, तो नवरात्रि का त्योहार अधूरा जान पड़ता है. दरअसल, सागर के पुरव्याऊ टोरी में पिछले 119 साल से मां दुर्गा की स्थापना की जा रही है. खास बात ये है कि दुर्गोत्सव में 119 साल पुरानी परंपराओं को अभी तक सहेज कर रखा है. 119 साल पहले जैविक तरीके से माता की मूर्ति का निर्माण किया जाता था, वैसे आज भी किया जाता है। हर साल माता की मूर्ति एक जैसी होती है.

माता का श्रृंगार सोने और चांदी के असली आभूषण से किया जाता है. किसी भी तरह की आर्टिफिशियल ज्वेलरी से नहीं किया जाता है और हर साल नए आभूषण खरीदे जाते हैं. एक सदी पहले जैसे मां की शोभायात्रा कंधों पर निकालकर विसर्जन किया जाता था. आज भी माता को कंधों पर बिठाकर मशाल की रोशनी में विसर्जन के लिए ले जाते हैं. मशाल के पीछे कंधों पर मां की पालकी लिए भक्त चल माई के उद्घोष के साथ निकलते हैं. सारा शहर मां के दर्शन के लिए कतार में खड़ा हो जाता है.

1905 में शुरू हुई मां दुर्गा की स्थापना: दुर्गोत्सव समिति के प्रमुख राजेंद्र सिंह ठाकुर दिल्ली में एक फैक्ट्री संचालित करते हैं. हर साल नवरात्रि के पहले ही तैयारियों के लिए आ जाते हैं. राजेंद्र सिंह मूर्ति कला में निपुण हैं और खुद मूर्ति तैयार करते हैं. राजेंद्र सिंह बताते हैं कि मां दुर्गा की स्थापना की परंपरा और उनके पूर्वज हीरा सिंह ठाकुर ने की थी जो स्वयं मूर्तिकार थे और ऐसे किसी धार्मिक आयोजन की रूपरेखा बना रहे थे, जिसके जरिए लोगों को संगठित किया जा सके. उनके मन में नवरात्रि पर मां दुर्गा की स्थापना का विचार आया और मूर्ति निर्माण के लिए कई दिनों कोलकाता में रहे, फिर खुद मूर्ति बनाकर 1905 से पुरव्याऊ टौरी पर मां दुर्गा की स्थापना की शुरुआत की.

आज भी 100 साल पुराने तरीक़े से बनती है मूर्ति: राजेंद्र सिंह बताते है कि मूर्ति पूरी तरह से जैविक तरीके से तैयार की जाती है. जिस तरह की मूर्ति बनाकर हीरा सिंह जी ने उत्सव की शुरुआत की थी. आज भी वैसे ही तैयार की जाती है। मिट्टी से मूर्ति बनाई जाती है. किसी भी तरह के केमीकल का उपयोग नहीं किया जाता है. मूर्ति के लिए पानी वाले रंग का उपयोग किया जाता है. महिषासुर मर्दनी के रूप में पालकी पर मां दुर्गा की मूर्ति बनाई जाती है. ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि मां की शोभायात्रा किसी वाहन पर नहीं बल्कि भक्तों के कंधों पर निकलती है. जैसी परम्परा 1905 में शुरू हुई थी.

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गणेश जी ने पहनी मराठी पगड़ी, मां के लिए मैसूर से आई साड़ियां: इस साल 119 वें दुर्गोत्सव में हर बार की तरह 75 फीट ऊंचा पंडाल बनाया गया है. जिसमें मां दुर्गा विराजी है. पंडाल और आसपास का इलाका रंग बिरंगी रोशनी से जगमगा रहा है. मां दुर्गा के लिए मैसूर से साड़ियां लाई गई है. गणेश जी ने पिछली साल बीकानेर की पगड़ी पहनी थी, इस बार मराठी पगड़ी पहनी है. मां दुर्गा के आभूषण मुंबई से मंगाए गए हैं. हर साल मां के लिए नए आभूषण खरीदे जाते है. किसी भी तरह के आर्टिफिशियल ज्वैलरी का उपयोग नहीं किया जाता है.

देशभर से नवरात्रि में इकट्ठा होते है समिति के सदस्य: समिति के ज्यादातर सदस्य देश के अलग-अलग शहरों में व्यावसाय और नौकरी के सिलसिले में रहते हैं. लेकिन नवरात्रि के 10 दिन पहले सागर में इकट्ठा हो जाते हैं. समिति के प्रमुख राजेंद्र सिंह दिल्ली में फैक्ट्री संचालित करते हैं. रामेश्वर सार्वजनिक उपक्रम बीपीसीएल में नौकरी करते हैं. इसके अलावा दूसरे सदस्य भी अलग-अलग शहरों में रहते हैं. सभी हमेशा सागर के साथियों से संपर्क में रहते हैं और साल भर दुर्गोत्सव की योजना पर काम चलता है.

आगे मशाल और भक्तों के कंधों पर माई: जितना मनमोहक मां दुर्गा का पंडाल बनाया जाता है. उतनी ही भव्य मां की सवारी दशहरा के दिन निकलती है. जब 1905 में दुर्गोत्सव की शुरुआत हुई थी तो लाइट के इंतजाम नहीं थे. तब आगे मां की सवारी और पीछे मशाल चलती थी. अब आगे मशाल और पीछे भक्त के कंधों पर मां की पालकी होती है. चल माई चल माई के उद्घोष के साथ पूरा इलाका गूंज उठता है. सड़क के दोनों तरफ मां के दर्शन के लिए श्रृद्धालुओं का सैलाब नजर आता है.

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