सागर। शहर से नजदीक झांसी मार्ग पर स्थित गढ़पहरा का किला बुंदेलखंड क्षेत्र में आजादी की पहली लड़ाई के इतिहास के रुप में गवाह रहा है. तो दूसरी तरफ कई ऐसी किंवदंतियां है, जो इस किले को महत्वपूर्ण बनाती है. कहा जाता है कि आजादी की पहली लड़ाई यानी 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में गढ़पहरा के राजा ने अंग्रेजों की प्रशिक्षित और संसाधनों से सुसज्जित फौज से एक साल तक लोहा लिया था. हालांकि बाद में गढ़पहरा के राजा को अंग्रेजों के सामने समर्पण करना पड़ा था. दूसरी किवदंती यह है कि गढ़पहरा के राजा को किले के सामने रहने वाली एक नट नर्तकी से प्रेम हो गया था और राजा उपहार स्वरूप उसे शीश महल भेंट करना चाहते थे लेकिन लोकलाज के चलते उन्होंने कच्ची रस्सी पर चलने की शर्त रखी और रानी के छल से नर्तकी रस्सी से गिर गई. उसी के श्राप के चलते ये किला वीरान हो गया. किला परिसर में भगवान हनुमान जी का प्राचीन मंदिर भी है जो लोगों की आस्था और आकर्षण का केंद्र है.
राजा- नट नर्तकी की प्रेम और किला
गढपहरा किले के बारे में किवदंती है कि यह एक नट नर्तकी के श्राप के कारण अभिशप्त हुआ है और वीरान हो गया. किले परिसर में रहने वाले महंत गोकलदास बताते हैं कि गढ़पहरा के किले के बारे में कहा जाता है कि इससे 360 मौजे लगी हुई थी. किले के सामने बने पहाड़ पर एक नट नर्तकी रहती थी. राजा को नर्तकी से प्रेम हो गया और राजा ने उसके लिए शीश महल का निर्माण कराया, लेकिन राजा लोक लाज और रानी के कारण नर्तकी को सीधे तौर पर महल भेंट नहीं कर सकता था. इसलिए राजा ने नर्तकी से कच्ची रस्सी पर नृत्य करते हुए शीश महल तक पहुंचने की शर्त रखी. नर्तकी ने चुनौती स्वीकार करते हुए आधा रास्ता तो पार कर लिया लेकिन राजा ने छल करते हुए अपने सेवक से रस्सी कटवा दी और नर्तकी की गिरने के कारण मौत हो गई. जिसके बाद नर्तकी ने राजा के वंश समाप्त होने और किला खंडहर होने का श्राप दे डाला, तभी से गढ़पहरा का किला खंडहरों हो गया है.
'मैन पॉवर' की कमी से जूझता पशुपालन विभाग
गढ़पहरा के किले का इतिहास 400 साल पुरानाइतिहासकार बताते हैं कि सागर झांसी मार्ग पर पहाड़ पर स्थित गढ़पहरा किला का इतिहास करीब 400 साल पुराना है. गोंड राजा संग्राम शाह से गढ़पहरा के किले के इतिहास की शुरुआत होती है. इसके बाद डांगी राजपूत राजाओं ने भी गढ़पहरा के किले पर राज किया. इन्हीं राजाओं ने शीश महल का निर्माण भी कराया था. पहाड़ पर एक किले के अवशेष आज भी मौजूद हैं, जिन्हें आसानी से देखा जा सकता है. किले से लगा हुआ भगवान हनुमान जी का प्राचीन मंदिर भी है, जहां आषाढ़ माह में मेला लगता है. गढ़पहरा का अपना ऐतिहासिक महत्व है, क्योंकि जब 1857 की क्रांति में वहां के शासक ने क्रांति में बढ़-चढ़कर योगदान हुआ था और लंबे समय तक विद्रोह की अलख को जगाए रखा था. गढ़पहरा के इतिहास को लेकर यह भी तथ्य है कि जंतर मंतर और कई ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण करने वाले राजा जय सिंह कछवाहा ने इस किले पर करीब 200 साल तक राज किया था.
1857 और अंग्रेजों से विद्रोह
इतिहासकार डॉ. भरत शुक्ला बताते हैं कि 1857 की क्रांति के समय पर गढ़पहरा के तत्कालीन शासक राजा मर्दन सिंह थे. राजा मर्दन सिंह ने 1857 के विद्रोह में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था. लगभग एक साल तक उन्होंने अंग्रेजों की प्रशिक्षित और साधनों से सुसज्जित फौज को कड़ी टक्कर दी थी. शाहगढ़ के तत्कालीन राजा बख्तबलि और राजा मर्दन सिंह ने संयुक्त रूप से अंग्रेजों का मुकाबला करते हुए सीमित संसाधनों के बावजूद कड़ी टक्कर दी थी. लेकिन ब्रिटिश सेना प्रशिक्षित थी और मजबूत संसाधन होने के कारण मदन सिंह और बख्तबली की संयुक्त फौज की हार गई. हार के बाद उन्होंने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे से मदद मांगी, लेकिन इन लोगों की संयुक्त सेना भी अंग्रेजों से हार गई थी और करीब एक साल के प्रचंड विरोध के बाद राजा मर्दन सिंह और बख्तबली की सेना ने समर्पण कर दिया.