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कहानी सागर के सपूत की! हरि सिंह गौर ने जिंदगी भर की पूंजी से बनाई यूनिवर्सिटी, भारत रत्न दिए जाने की उठ रही मांग - लीगल प्रैक्टिशनर वूमेंस एक्ट

Dr. Hari Singh Gaur: सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक और जाने-माने कानूनविद डॉ. हरि सिंह गौर की आज 26 नवंबर को जयंती है. हरि सिंह गौर दिल्ली यूनिवर्सिटी के पहले वाइस चांसलर भी रहे हैं. वह एक ऐसी शख्सियत थे जिन्होंने बुंदेलखंड में शिक्षा की अलख जगाते हुए साल 1946 में बुंदेलखंड के बच्चों की शिक्षा के लिए जीवन भर की पूंजी यूनिवर्सिटी के लिए दान कर दी थी. डॉ. हरि सिंह गौर के योगदान को देखते हुए उन्हें भारत रत्न दिए जाने की मांग सालों से हो रही है. पढ़िए ईटीवी भारत के सागर से संवाददाता कपिल तिवारी की खास रिपोर्ट...

hari singh gour jayanti special
शिक्षाविद के रूप में डॉ हरीसिंह गौर
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By ETV Bharat Madhya Pradesh Team

Published : Nov 26, 2023, 10:23 AM IST

डॉ संदीप रावत, शोधकर्ता

सागर। बुंदेलखंड भले ही अपनी बदहाली के लिए चर्चाओं में रहता है. लेकिन बुंदेलखंड एक ऐसी जगह है, जहां तब यूनिवर्सिटी की स्थापना हो गई थी, जब देश आजाद भी नहीं हुआ था. मध्य प्रदेश तो अस्तित्व में ही नहीं था, ऐसे में बुंदेलखंड के सच्चे सपूत डॉ. सर हरि सिंह गौर ने अपने जीवन भर की जमा पूंजी से सागर में यूनिवर्सिटी की स्थापना की थी, जो मप्र की इकलौती सेंट्रल यूनिवर्सिटी है. बुंदेलखंड के लोग पिछले कई सालों से डॉ. सर हरि सिंह गौर के लिए भारत रत्न की मांग कर रहे हैं.

हरि सिंह गौर के योगदान: सवाल खड़ा होता है कि सागर विश्वविद्यालय की स्थापना के अलावा डॉ. सर हरि सिंह गौर ने ऐसा कौन से काम किया कि उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न की उपाधि दी जाए. डॉ. सर हरि सिंह गौर को करीब से नहीं जानने वाले लोग इस मांग पर सवाल उठा सकते हैं. लेकिन हरि सिंह गौर के योगदान की बात की जाए तो भारत के संविधान निर्माण, न्याय व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था में उनके महत्वपूर्ण योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है.

महान विधिवेत्ता के रूप में पहचान: डॉ. सर हरि सिंह गौर अद्भुत वाकशक्ति और तार्किक योग्यता के अधिवक्ता के रूप में जाने जाते थे. उन्होंने रायपुर, नागपुर, कोलकाता, लाहौर, रंगून और दुनिया के कई शहरों में वकालत की. द्वितीय विश्व युद्ध के समय उन्होंने चार साल इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल के लिए वकालत की. युवावस्था में उनकी तर्कशक्ति और पैरवी की अद्भुत प्रतिभा की चर्चा पूरे देश में होने लगी. उन्होंने 1900 में "हिस्ट्री एंड लॉ आफ इंटरेस्ट" नामक पुस्तक लिखी. लॉ ऑफ ट्रांसफर आफ प्रॉपर्टी एक्ट पुस्तक से कानून के विद्वान के रूप में मशहूर हुए. 1909 में भारतीय दंड संहिता की तुलनात्मक विवेचना पुस्तक प्रकाशित हुई. उनकी पैनल ला नामक पुस्तक का प्रथम संस्करण 1914 और 1936 दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ. 1909 में हरि सिंह गौर ने हिंदू ला पुस्तक का प्रकाशन कराया. 1942 में डॉक्टर गौर की "रिनेसां ऑफ इंडिया" और 1947 में "इंडिया एंड न्यू कांस्टीट्यूशन" पुस्तक प्रकाशित हुई. कानून के क्षेत्र में इन किताबों के जरिए हरि सिंह गौर पूरी दुनिया में मशहूर हुए.

भारत में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना का पहला प्रस्ताव: 1919 में भारत में "गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट" लागू हुआ और उपनिवेशीय केंद्रीय विधान सभा का गठन हुआ. डॉ हरिसिंह गौर नागपुर सेंट्रल से चुनाव जीतकर लगातार 16 साल तक सदस्य रहे और पहली बार जब उपनिवेशीय केंद्रीय विधानसभा पहुंचे, तो 26 मार्च 1921 को भारत में सुप्रीम कोर्ट के गठन का प्रस्ताव पेश किया. तब भारत के लोगों को अपील के लिए प्रीवी काउंसिल जाना होता था, जो भारत से 7 हजार मील दूर था. उनके इस प्रस्ताव की बहुत ज्यादा तारीफ हुई और प्रस्ताव को लेकर महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय अखबार में लेख लिखा, जिसकी प्रतियां उपनिवेशीय केंद्रीय विधानसभा के अंदर लहराई गई थी.

महिलाओं को दिलाया वकालत का अधिकार: डॉ. हरिसिंह गौर उपनिवेशीय केंद्रीय विधानसभा के सदस्य थे. उनके पास पटना के मशहूर वकील मधुसूदन दास पहुंचे. उन्होंने पटना हाई कोर्ट में ला डिग्री धारी महिला सुधांशु बाला हाजरा को प्रैक्टिस की अनुमति के लिए 28 नवंबर 1921 को आवेदन किया था. जिसे पटना हाईकोर्ट की फुल बेंच ने खारिज कर दिया और उनकी सुनवाई कहीं नहीं हुई. तब मधुसूदन दास डॉ गौर के पास पहुंचे और डॉ. गौर ने 1 फरवरी 1922 को नागपुर असेंबली में संशोधन प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि महिलाओं के साथ गैर बराबरी हो रही है. महिलाओं ने अतीत में कई गौरवपूर्ण कार्य किए हैं. इसलिए उनको वकालत का भी अधिकार मिलना चाहिए. लंबी बहस के बाद 28 फरवरी को यह संशोधन विधेयक नए विधेयक के रूप में पारित हुआ और 1923 में "लीगल प्रैक्टिशनर वूमेंस एक्ट" के तहत सामने आया. Legal Practitioner Women's Act

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शिक्षाविद के रूप में डॉ. हरीसिंह गौर: जब 1922 में केंद्रीय सरकार ने दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना की, तो डॉ हरि सिंह गौर को दिल्ली यूनिवर्सिटी का संस्थापक कुलपति नियुक्त किया गया. यूनिवर्सिटी संचालन में उनकी कुशल प्रशासनिक क्षमता देखकर 1925 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सर की उपाधि दी. इसके बाद डॉ गौर 1928 में नागपुर विश्वविद्यालय के उप कुलपति निर्वाचित हुए. ब्रिटिश राज में 27 विश्वविद्यालय के कुलपतियों का 25 दिवसीय सम्मेलन डॉ. गौर की अध्यक्षता में हुआ. द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर डॉ. गौर भारत लौटे और सागर में अपने मित्रों के सामने विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रारूप रखा. डॉ हरि सिंह गौड़ पर ये यूनिवर्सिटी जबलपुर में स्थापित करने का दबाव बनाया गया. लेकिन डॉ, गौर ने बिना किसी सरकारी मदद के अपने जीवन भर की कमाई से 18 जुलाई 1946 को सागर विश्वविद्यालय की विधिवत स्थापना अपनी जन्मभूमि में की.

डॉ संदीप रावत, शोधकर्ता

सागर। बुंदेलखंड भले ही अपनी बदहाली के लिए चर्चाओं में रहता है. लेकिन बुंदेलखंड एक ऐसी जगह है, जहां तब यूनिवर्सिटी की स्थापना हो गई थी, जब देश आजाद भी नहीं हुआ था. मध्य प्रदेश तो अस्तित्व में ही नहीं था, ऐसे में बुंदेलखंड के सच्चे सपूत डॉ. सर हरि सिंह गौर ने अपने जीवन भर की जमा पूंजी से सागर में यूनिवर्सिटी की स्थापना की थी, जो मप्र की इकलौती सेंट्रल यूनिवर्सिटी है. बुंदेलखंड के लोग पिछले कई सालों से डॉ. सर हरि सिंह गौर के लिए भारत रत्न की मांग कर रहे हैं.

हरि सिंह गौर के योगदान: सवाल खड़ा होता है कि सागर विश्वविद्यालय की स्थापना के अलावा डॉ. सर हरि सिंह गौर ने ऐसा कौन से काम किया कि उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न की उपाधि दी जाए. डॉ. सर हरि सिंह गौर को करीब से नहीं जानने वाले लोग इस मांग पर सवाल उठा सकते हैं. लेकिन हरि सिंह गौर के योगदान की बात की जाए तो भारत के संविधान निर्माण, न्याय व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था में उनके महत्वपूर्ण योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है.

महान विधिवेत्ता के रूप में पहचान: डॉ. सर हरि सिंह गौर अद्भुत वाकशक्ति और तार्किक योग्यता के अधिवक्ता के रूप में जाने जाते थे. उन्होंने रायपुर, नागपुर, कोलकाता, लाहौर, रंगून और दुनिया के कई शहरों में वकालत की. द्वितीय विश्व युद्ध के समय उन्होंने चार साल इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल के लिए वकालत की. युवावस्था में उनकी तर्कशक्ति और पैरवी की अद्भुत प्रतिभा की चर्चा पूरे देश में होने लगी. उन्होंने 1900 में "हिस्ट्री एंड लॉ आफ इंटरेस्ट" नामक पुस्तक लिखी. लॉ ऑफ ट्रांसफर आफ प्रॉपर्टी एक्ट पुस्तक से कानून के विद्वान के रूप में मशहूर हुए. 1909 में भारतीय दंड संहिता की तुलनात्मक विवेचना पुस्तक प्रकाशित हुई. उनकी पैनल ला नामक पुस्तक का प्रथम संस्करण 1914 और 1936 दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ. 1909 में हरि सिंह गौर ने हिंदू ला पुस्तक का प्रकाशन कराया. 1942 में डॉक्टर गौर की "रिनेसां ऑफ इंडिया" और 1947 में "इंडिया एंड न्यू कांस्टीट्यूशन" पुस्तक प्रकाशित हुई. कानून के क्षेत्र में इन किताबों के जरिए हरि सिंह गौर पूरी दुनिया में मशहूर हुए.

भारत में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना का पहला प्रस्ताव: 1919 में भारत में "गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट" लागू हुआ और उपनिवेशीय केंद्रीय विधान सभा का गठन हुआ. डॉ हरिसिंह गौर नागपुर सेंट्रल से चुनाव जीतकर लगातार 16 साल तक सदस्य रहे और पहली बार जब उपनिवेशीय केंद्रीय विधानसभा पहुंचे, तो 26 मार्च 1921 को भारत में सुप्रीम कोर्ट के गठन का प्रस्ताव पेश किया. तब भारत के लोगों को अपील के लिए प्रीवी काउंसिल जाना होता था, जो भारत से 7 हजार मील दूर था. उनके इस प्रस्ताव की बहुत ज्यादा तारीफ हुई और प्रस्ताव को लेकर महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय अखबार में लेख लिखा, जिसकी प्रतियां उपनिवेशीय केंद्रीय विधानसभा के अंदर लहराई गई थी.

महिलाओं को दिलाया वकालत का अधिकार: डॉ. हरिसिंह गौर उपनिवेशीय केंद्रीय विधानसभा के सदस्य थे. उनके पास पटना के मशहूर वकील मधुसूदन दास पहुंचे. उन्होंने पटना हाई कोर्ट में ला डिग्री धारी महिला सुधांशु बाला हाजरा को प्रैक्टिस की अनुमति के लिए 28 नवंबर 1921 को आवेदन किया था. जिसे पटना हाईकोर्ट की फुल बेंच ने खारिज कर दिया और उनकी सुनवाई कहीं नहीं हुई. तब मधुसूदन दास डॉ गौर के पास पहुंचे और डॉ. गौर ने 1 फरवरी 1922 को नागपुर असेंबली में संशोधन प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि महिलाओं के साथ गैर बराबरी हो रही है. महिलाओं ने अतीत में कई गौरवपूर्ण कार्य किए हैं. इसलिए उनको वकालत का भी अधिकार मिलना चाहिए. लंबी बहस के बाद 28 फरवरी को यह संशोधन विधेयक नए विधेयक के रूप में पारित हुआ और 1923 में "लीगल प्रैक्टिशनर वूमेंस एक्ट" के तहत सामने आया. Legal Practitioner Women's Act

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शिक्षाविद के रूप में डॉ. हरीसिंह गौर: जब 1922 में केंद्रीय सरकार ने दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना की, तो डॉ हरि सिंह गौर को दिल्ली यूनिवर्सिटी का संस्थापक कुलपति नियुक्त किया गया. यूनिवर्सिटी संचालन में उनकी कुशल प्रशासनिक क्षमता देखकर 1925 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सर की उपाधि दी. इसके बाद डॉ गौर 1928 में नागपुर विश्वविद्यालय के उप कुलपति निर्वाचित हुए. ब्रिटिश राज में 27 विश्वविद्यालय के कुलपतियों का 25 दिवसीय सम्मेलन डॉ. गौर की अध्यक्षता में हुआ. द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर डॉ. गौर भारत लौटे और सागर में अपने मित्रों के सामने विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रारूप रखा. डॉ हरि सिंह गौड़ पर ये यूनिवर्सिटी जबलपुर में स्थापित करने का दबाव बनाया गया. लेकिन डॉ, गौर ने बिना किसी सरकारी मदद के अपने जीवन भर की कमाई से 18 जुलाई 1946 को सागर विश्वविद्यालय की विधिवत स्थापना अपनी जन्मभूमि में की.

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