रीवा। जेल की सलाखों के पीछे से 17 साल की उम्र में सियासी पारी शुरू करने वाले जनार्दन मिश्रा अब राजनीति के मझे हुए खिलाड़ी बन गये हैं. पिछले आम चुनाव में मोदी लहर पर सवार होकर दिल्ली पहुंचे थे और पांच साल तक देश की सबसे बड़ी पंचायत में रीवा का प्रतिनिधित्व भी किये. अब फिर से दिल्ली पहुंचने का सबसे मुफीद रास्ता तलाश रहे हैं, लेकिन ये डगर बदलते वक्त के साथ और मुश्किल हो चली है.
रीवा जिले के हिनौता गांव में एक मई 1956 को एक किसान परिवार में जन्मे जनार्दन मिश्रा ने गांव में ही शुरूआती शिक्षा हासिल की. इसके बाद ठाकुर रणमत सिंह महाविद्यालय से बीए-एलएलबी कर कई सालों तक दीवानी में वकालत की, लेकिन बीजेपी के सक्रिय कार्यकर्ता होने की वजह से अधिक समय तक वकालत नहीं कर सके और वकालत छोड़ पार्टी के प्रचार-प्रसार में जुट गये.
मीसाबंदी के दौरान 17 वर्ष की उम्र में जनार्दन मिश्रा जेल गए, 18 महीने तक जेल में रहने के दौरान ही अनशन किये. उस दौरान विंध्य क्षेत्र के कई बड़े समाजवादी नेताओं के संपर्क में रहे और वहीं से इन्होंने स्वर्गीय यमुना प्रसाद शास्त्री के सानिध्य में राजनीति का ककहरा सीखना शुरू किया. 1995 में बीजेपी की सदस्यता ग्रहण कर ली. इसके बाद बीजेपी में जिला अध्यक्ष सहित कई पदों पर रहे.
हालांकि, जिस समय उन्होंने बीजेपी ज्वाइन की थी, उस दौर में पार्टी का जनाधार बेहद कमजोर था. रीवा में कांग्रेस और बसपा का बोलबाला था. पार्टी के जिला महामंत्री, संभागीय मीडिया प्रभारी और वर्ष 2009 से 2014 तक जिला अध्यक्ष रहे. इस बीच कार्यकर्ताओं में पार्टी के प्रति समर्पण का अलख जगाया.
जनार्दन मिश्रा 62 वर्ष की उम्र में बीजेपी के टिकट पर पहली बार लोकसभा चुनाव लड़े और जीते. वकालत के बाद एक किसान का बेटा संसद में रीवा की आवाज बना, लेकिन जनार्दन के सामने इस बार इस आवाज को बरकरार रखने की चुनौती है.