रायसेन। वैश्विक महामारी के कारण पूरे देश में लॉकडाउन है. कोरोना के कारण इस बार रायसेन में 200 साल से चली आ रही एक परंपरा इस बार नहीं दोहराई जाएगी. रायसेन के किले से तोप चलाकर रमजान के माह में सहरी और रोजा इफ्तार की परंपरा रही है. इस तोप की गूंज से जिले और उसके आस-पास के 50 गांव सहरी और रोजा इफ्तार किया कतरे हैं.
तोप चलाने के लिए अस्थाई लायसेंस का आवेदन मुस्लिम त्यौहार कमेटी को दिया जाता है, लेकिन इस बार पुलिस और प्रशासन के साथ- साथ समाज के लोगों ने भी तोप को नहीं चलाने का फैसला किया है. दरअसल रायसेन में कोरोना पॉजिटिव की संख्या लगातार बढ़ रही है और आंकड़ा 26 तक पहुंच गया है. शहर रेड जोन में है और टोटल लॉकडाउन है, इसी कारण इस बार तोप नहीं चलाने का फैसला सर्वसम्मति से लिया गया है.
मुस्लिम त्योहार कमेटी के अध्यक्ष यामीन मोहम्मद बाबू भाई ने बताया कि, रमजान माह में चली आ रही वर्षों पुरानी परंपरा के मुताबिक तोप की आवाज सुनकर करीब 50 गांव के लोग प्रतिवर्ष रमजान माह में सहरी और इफ्तार करते आ रहे हैं. यह अपनी तरह की अनूठी परंपरा है, इस परंपरा को जिला प्रशासन ने भी बरकरार रखा. इसलिए जिला कलेक्टर हर साल चलाने और बारुद खरीदने की अनुमति मुस्लिम त्योहार कमेटी को रमजान माह की सीमित समयावधि के लिए देते हैं.
क्या है इतिहास
नबावी शासन काल से ही यहां रमजान माह में तोप सहरी का संकेत देती आ रही है. जानकारी के मुताबिक इस तोप का पहला लाइसेंस वर्ष 1956 में तत्कालीन कलेक्टर बदरे आलम ने जारी किया था. रमजान माह के बाद इस तोप को विधिवत कलेक्ट्रेट के मालखाने में जमा कर दी जाती है. महत्वपूर्ण बात ये भी है कि, ईद का चांद दिखने तोप को लगभग दस बार चलाकर चांद दिखने का संकेत दिया जाता रहा है.
कोरोना महामारी के चलते मुस्लिम त्योहार कमेटी ने मुस्लिम धर्मगुरुओं से राय-सलाह कर इस बार तोप नहीं चलाने का निर्णय लिया है. इसके साथ ही मस्जिदों की जगह घर में नमाज पढ़ने की भी अपील की गई है.