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आओ मिट्टी के दीये जलाएं, कुम्हारों की दिवाली खुशहाल बनाएं

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Published : Oct 23, 2019, 10:19 PM IST

दीपावली पर दूसरों का घर-आंगन रोशन करने वाला कुम्हार खुद को बदहाली के अंधेरे से नहीं निकाल पा रहा है, ऊपर से बढ़ती मंहगाई इनकी कमर तोड़ रही है, बची-खुची कसर इलेक्ट्रिक दिये और झालर पूरी कर दे रहे हैं, जिसके चलते इनके पेशे पर संकट के बादल छाने लगे हैं. आइए हम सब मिलकर इनकी दिवाली भी रोशन करें और मिट्टी के दीये से अपना घर भी रोशन करें.

कुम्हार नहीं चाहते कि आने वाली पीढ़ी गुथे माटी

मंडला। अपने हुनर से मिट्टी को आकार देने वाला कुम्हार मिट्टी की पूरी दुनिया तैयार करने का माद्दा रखता है. एक वक्त था जब कुम्हारों के गढ़े मिट्टी के दीयों की मांग दीपोत्सव के दौरान बढ़ जाती थी, लेकिन आधुनिकता की चमक में इन दीयों की रोशनी फीकी पड़ती जा रही है. अब न मिट्टी के दीयों की उतनी मांग है और न ही लागत के मुताबिक दाम मिल पाता है. जिसके चलते बदहाल होता कुम्हार अब इस पेशे को छोड़ता जा रहा है.

बदहाली के अंधेरे में गुम होता कुम्हार

बढ़ती मंहगाई के बीच सस्ती आधुनिक लाइटें मिट्टी के दीयों को दरकिनार करती जा रही हैं. मिट्टी को गूंथकर आकार देने वाला कुम्हार आज खुद मंहगाई की मिट्टी में गुथ रहा है. आलम ये है कि कुम्हार के घूमते पहिये पर आकार लेते मिट्टी के बर्तन, फिर भट्ठे में तपकर निकले बर्तन को बाजार तक पहुंचाने में कुम्हारों को कितने ही पापड़ बेलने पड़ते हैं.

बाजार में ग्राहकों की निगाहें कुछ नया ही तलाशती हैं. ऐसे में दुकानदार कुम्हारों से पारंपरिक दीये औने-पौने दाम पर ही मांगे जाते हैं. मजबूरन उन्हें कम दाम में बेचना पड़ जाता है. इनके पास पुस्तैनी काम करने की मजबूरी है क्योंकि ये दूसरा काम कर नहीं सकते. हां, ये अलग बात है कि अगली पीढ़ियां धीरे-धीरे इस पेशे से दूरी बनाने लगी हैं. आखिर दूसरों का घर रोशन करने वालों के जीवन का अंधेरा छंटेगा तो फिर कैसे?

मंडला। अपने हुनर से मिट्टी को आकार देने वाला कुम्हार मिट्टी की पूरी दुनिया तैयार करने का माद्दा रखता है. एक वक्त था जब कुम्हारों के गढ़े मिट्टी के दीयों की मांग दीपोत्सव के दौरान बढ़ जाती थी, लेकिन आधुनिकता की चमक में इन दीयों की रोशनी फीकी पड़ती जा रही है. अब न मिट्टी के दीयों की उतनी मांग है और न ही लागत के मुताबिक दाम मिल पाता है. जिसके चलते बदहाल होता कुम्हार अब इस पेशे को छोड़ता जा रहा है.

बदहाली के अंधेरे में गुम होता कुम्हार

बढ़ती मंहगाई के बीच सस्ती आधुनिक लाइटें मिट्टी के दीयों को दरकिनार करती जा रही हैं. मिट्टी को गूंथकर आकार देने वाला कुम्हार आज खुद मंहगाई की मिट्टी में गुथ रहा है. आलम ये है कि कुम्हार के घूमते पहिये पर आकार लेते मिट्टी के बर्तन, फिर भट्ठे में तपकर निकले बर्तन को बाजार तक पहुंचाने में कुम्हारों को कितने ही पापड़ बेलने पड़ते हैं.

बाजार में ग्राहकों की निगाहें कुछ नया ही तलाशती हैं. ऐसे में दुकानदार कुम्हारों से पारंपरिक दीये औने-पौने दाम पर ही मांगे जाते हैं. मजबूरन उन्हें कम दाम में बेचना पड़ जाता है. इनके पास पुस्तैनी काम करने की मजबूरी है क्योंकि ये दूसरा काम कर नहीं सकते. हां, ये अलग बात है कि अगली पीढ़ियां धीरे-धीरे इस पेशे से दूरी बनाने लगी हैं. आखिर दूसरों का घर रोशन करने वालों के जीवन का अंधेरा छंटेगा तो फिर कैसे?

Intro:इस बाजार में आने से पहले ये दिए गुजरते हैं उस आस से जिसे जीता है कुम्हार का वो परिवार जिसके सहारे इनकी रोजी रोटी सदियों से चलती आई है लेकिन ये पुस्तैनी धंधा अब इन्हें रास नहीं आ रहा क्योंकि ग्राहकों को मिट्टी के दिये में हर तरह की कलाकारी तो चाहिए लेकिन दाम चाहिए वही बीस साल पहले के जबकि दिए बनाने की मिट्टी मेहनत और संसाधन काफी महंगे हो चुके हैं।

Body:कहते हैं राम की घर वापसी पर दिए जलाये गए थे आज उन दियों की जगह सस्ती झालरों ने ले ली है। बाजार से दिए सिर्फ औपचारिकता के लिए खरीदे जाते हैं।और इन दियों को मुकाबला करना होता है चाइना मेड आइटम और सस्ती झालरों से जिसने दीपावली की उस रौनक को ही खत्म कर दिया है जिसके नाम से इस त्यौहार की शुरुआत हुई थी।आज आलम यह है कि कुम्हार के घूमते चक्के और भट्टे से उठते हुए धुंए के साथ इनके परिवारों की चिंता बढ़ती जाती है कि इन दीपक का इतना मोल भी मिल पाएगा या नहीं जितनी लागत और मेहनत इन्हें बनाने में लग चुकी है,बाज़ार पहुँचते ही ग्राहकों की निगाहें कुछ नया खोजती है ऐसे में दुकान लगाने वाले इन कुम्हारों से पारम्परिक दिए ओने पौने दाम पर ही माँगे जाते हैं वहीं कलाकरों की मजबूरी ये की बने हुए दीये बेचने ही होंगे।मिट्टी को सान चक्के के सहारे एक एक दिया गढ़ने वाले इन कुम्हारों का कहना है कि उनके लिए अब यह पुस्तैनी धंधा मजबूरी का धंधा बन कर रह गया हैं मिट्टी की ढुलाई से लेकर दिए बनाने के बाद भट्टे पर पकाने के लिए लगने वाली लकड़ी,पैरा,भूसा और गोबर के कंडे के दाम आसमान छू रहे हैं वहीं बाजार पहुँचने तक का भाड़ा निकाल पाना बहुत मुश्किल है और अब ये बिल्कुल नहीं चाहते कि इनकी आने वाली पीढ़ी इस काम को अपनाए।

Conclusion:ईटीवी भारत की अपील है कि इस बार बाज़ार में आप मिट्टी के दियों की खरीदारी करने और मोलभाव करने से पहले कुम्हार की उस मेहनत के साथ मजबूरी पर जरूर गौर करें जिसके चलते ये आज खुद तो दिए बेचने को मजबूर हैं लेकिन नहीं चाहते कि अब उनका परिवार इस धंधे को अपनाए।अगर ऐसा हुआ तो कैसे बच पाएगा दियों के साथ ही दीपोत्सव का वो अस्तित्व जिसके नाम से दीपावली का त्यौहार मनाया जाता है।

बाईट--बबिता चक्रवर्ती,दिया बनाने वाली कलाकार
बाईट--धनेश्वर चक्रवर्ती, कुम्हार
पीटूसी--मयंक तिवारी ईटीवी भारत मण्डला
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