मंडला। आदिवासियों के लिए सरकारी योजनाएं बनाने का दावा तो सभी सरकारें करती रही हैं और तमाम योजनाएं लागू भी की गयीं, लेकिन उसका लाभ उन्हें नहीं मिल पाता क्योंकि जिनके लिए योजनाएं बनायी जाती हैं, उन्हें बताने-समझाने में सरकारें नाकाम रही हैं. कोई भी सरकारी अमला इन आदिवासियों को लाभ दिलाने की नीयत से वहां पहुंचता ही नहीं. आदिवासी पढ़ाई-लिखाई के अलावा सिर पर छत के सपने बुनता ही रह जाता है.
ये कहानी है मण्डला नगर के चूनाभट्टी क्षेत्र के अमराई में दो महीने से डेरा डाले उन परिवारों की, जो यहां झोपड़ी या तंबू बना कर तब तक के लिए रहने आए हैं, जब तक उन्हें रोजी-रोटी न मिल जाये. इन परिवारों में बच्चे तो हैं, लेकिन हर बच्चे को शिक्षा नहीं मिल पाती, बिजली-पानी और मकान जैसी सुविधाओं के बारे में तो ये सोच भी नहीं सकते.
पूंजी या खेती की जमीन के अभाव में रोजी-रोटी की तलाश में घूमते हैं ये लोग. बर्तन बेच कर, लोगों से बर्तन के बदले बाल लेकर, झाड़ू बनाकर, आरी, अनाज छानने की छन्नी, लोहे के औजार बनाकर बेच कर गुजर बसर करते हैं. ऐसे में बस यहां से वहां भटकते हुए ये लोग बंजारा, घुमन्तु, डेरे वाले या फिर घुमक्कड़ की उपाधि लेकर भटक रहे हैं. इन डेरे में बुजुर्गों की पथराई आंखे भी हैं और चंचल बचपन के साथ ही परिवार का बोझ ढोते झुके हुए कंधे के साथ वह निराशा भी कि सरकार चाहे जिसकी भी हो इनके नसीब में सुविधा और योजना शब्द का न कभी वास्ता था न कभी होगा.