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सरकारी दावों के दम पर लगा दाग, तमाम सरकारी योजनाएं भी नहीं बदल पायीं इनका भाग्य!

सरकारी योजनाओं, शिक्षा से अंजान घुमंतू, बंजारा, घुमक्कड़ की उपाधि लेकर रोजी-रोटी के लिए भटकते ये आदिवासी सुख-सुविधाओं का तो कभी ख्वाब भी नहीं देख पाता, तिरपाल के नीचे सिर छिपाये डेरे में बुजुर्गों की पथराई आंखे भी हैं और चंचल बचपन के साथ ही परिवार का बोझ ढोते झुके हुए कंधे के साथ वह निराशा भी कि सरकार चाहे जिसकी भी हो, इनके नसीब में सुविधा और योजना शब्द का न कभी वास्ता था न कभी होगा.

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Published : Jun 13, 2019, 10:56 AM IST

मंडला। आदिवासियों के लिए सरकारी योजनाएं बनाने का दावा तो सभी सरकारें करती रही हैं और तमाम योजनाएं लागू भी की गयीं, लेकिन उसका लाभ उन्हें नहीं मिल पाता क्योंकि जिनके लिए योजनाएं बनायी जाती हैं, उन्हें बताने-समझाने में सरकारें नाकाम रही हैं. कोई भी सरकारी अमला इन आदिवासियों को लाभ दिलाने की नीयत से वहां पहुंचता ही नहीं. आदिवासी पढ़ाई-लिखाई के अलावा सिर पर छत के सपने बुनता ही रह जाता है.


ये कहानी है मण्डला नगर के चूनाभट्टी क्षेत्र के अमराई में दो महीने से डेरा डाले उन परिवारों की, जो यहां झोपड़ी या तंबू बना कर तब तक के लिए रहने आए हैं, जब तक उन्हें रोजी-रोटी न मिल जाये. इन परिवारों में बच्चे तो हैं, लेकिन हर बच्चे को शिक्षा नहीं मिल पाती, बिजली-पानी और मकान जैसी सुविधाओं के बारे में तो ये सोच भी नहीं सकते.

सरकारी दावों के दम पर लगा दाग


पूंजी या खेती की जमीन के अभाव में रोजी-रोटी की तलाश में घूमते हैं ये लोग. बर्तन बेच कर, लोगों से बर्तन के बदले बाल लेकर, झाड़ू बनाकर, आरी, अनाज छानने की छन्नी, लोहे के औजार बनाकर बेच कर गुजर बसर करते हैं. ऐसे में बस यहां से वहां भटकते हुए ये लोग बंजारा, घुमन्तु, डेरे वाले या फिर घुमक्कड़ की उपाधि लेकर भटक रहे हैं. इन डेरे में बुजुर्गों की पथराई आंखे भी हैं और चंचल बचपन के साथ ही परिवार का बोझ ढोते झुके हुए कंधे के साथ वह निराशा भी कि सरकार चाहे जिसकी भी हो इनके नसीब में सुविधा और योजना शब्द का न कभी वास्ता था न कभी होगा.

मंडला। आदिवासियों के लिए सरकारी योजनाएं बनाने का दावा तो सभी सरकारें करती रही हैं और तमाम योजनाएं लागू भी की गयीं, लेकिन उसका लाभ उन्हें नहीं मिल पाता क्योंकि जिनके लिए योजनाएं बनायी जाती हैं, उन्हें बताने-समझाने में सरकारें नाकाम रही हैं. कोई भी सरकारी अमला इन आदिवासियों को लाभ दिलाने की नीयत से वहां पहुंचता ही नहीं. आदिवासी पढ़ाई-लिखाई के अलावा सिर पर छत के सपने बुनता ही रह जाता है.


ये कहानी है मण्डला नगर के चूनाभट्टी क्षेत्र के अमराई में दो महीने से डेरा डाले उन परिवारों की, जो यहां झोपड़ी या तंबू बना कर तब तक के लिए रहने आए हैं, जब तक उन्हें रोजी-रोटी न मिल जाये. इन परिवारों में बच्चे तो हैं, लेकिन हर बच्चे को शिक्षा नहीं मिल पाती, बिजली-पानी और मकान जैसी सुविधाओं के बारे में तो ये सोच भी नहीं सकते.

सरकारी दावों के दम पर लगा दाग


पूंजी या खेती की जमीन के अभाव में रोजी-रोटी की तलाश में घूमते हैं ये लोग. बर्तन बेच कर, लोगों से बर्तन के बदले बाल लेकर, झाड़ू बनाकर, आरी, अनाज छानने की छन्नी, लोहे के औजार बनाकर बेच कर गुजर बसर करते हैं. ऐसे में बस यहां से वहां भटकते हुए ये लोग बंजारा, घुमन्तु, डेरे वाले या फिर घुमक्कड़ की उपाधि लेकर भटक रहे हैं. इन डेरे में बुजुर्गों की पथराई आंखे भी हैं और चंचल बचपन के साथ ही परिवार का बोझ ढोते झुके हुए कंधे के साथ वह निराशा भी कि सरकार चाहे जिसकी भी हो इनके नसीब में सुविधा और योजना शब्द का न कभी वास्ता था न कभी होगा.

Intro:जहाँ खाली जमीन दिखी वहाँ बना लिया अपना आशियाना और तान दी झोपड़ी कब तक बसेरा होगा यह निर्भर करेगा चलने वाली रोजी रोटी पर,जिस दिन लगा कि अब हाथ तंग होने लगे उठा ली अपनी गृहस्ती की दुनिया और निकल पड़े नई जगह की तलाश में ये कहानी है उन लोगों की जो सभ्य समाज के द्वारा घुमन्तु,विमुक्त,बंजारे या फिर डेरे वाले कहे जाते हैं।


Body:इनके भी सपने हैं कि इनके बच्चे स्कूल जाकर पढ़ें लिखें,ये भी सोचते हैं कि इनके सर पर पक्के मकान की छत हो या ये भी चाहते हैं कि इनके घर पर भी शहनाई बजे लेकिन ये वे सपने हैं जो कभी पूरे होते ही नहीं,कारण न ये यहाँ के हैं न ये वहाँ के हैं,ये तो हैं बस इस दुनिया के जो बहुत बड़ी तो है लेकिन इनकी उतनी ही जरूरतों को पूरा कर पाती जितनी इनकी मेहनत,ये कहानी है मण्डला नगर के चूनाभट्टी क्षेत्र की अमराई में दो महीने से डेरा डाले उन परिवारों की जो यहाँ झोपड़ी या तंबू बना कर तब तक के लिए रहने आए है जब तक कि मण्डला में उन्हें रोजी रोटी मिल जाए,इन परिवारों में बच्चे तो हैं लेकिन हर बच्चे को शिक्षा नहीं मिल पाती,विजली पानी और मकान जैसी सुविधाओं के बारे में तो ये सोच भी नहीं सकते,महाराष्ट्र के छोटे से गाँव के इन आदिवाशियों के पास वहाँ भी जो मकान हैं वे आबादी की जमीन पर हैं और पूँजी या खेती की जमीन के अभाव में इन्हें वहाँ से रोजी रोटी की तलाश में निकल कर बर्तन बेच कर,लोगों से बर्तन के बदले बाल लेकर,झाड़ू बना कर,आरी, अनाज छानने की छन्नी,लोहे के औजार बना बेच कर गुजर बसर करना पड़ता है,इनके लिए सरकारी योजनाएं होने के दावे हर सरकार के द्वारा किये तो जाते हैं लेकिन सरकारी दावों की पोल इन तंबुओं में पहुँच कर तब खुल जाती है जब इन्हें या तो योजनाओं की जानकारी ही नहीं, न ही कभी कोई सरकारी अमला इन्हें लाभ दिलाने की नीयत से यहाँ पहुंचता ही नहीं ऐसे में बस यहाँ से वहाँ भटकते हुए ये लोग बंजारा,घुमन्तु,डेरे वाले या फिर घुमक्कड़ की उपाधि लेकर घूमते रहते हैं,जिनके डेरे में बुजुर्गों की पथराई आँखे भी हैं और चँचल बचपन के साथ ही परिवार का बोझ ढोते झुके हुए कांधे के साथ वह निराशा भी की सरकार चाहे जिसकी भी हो इनके नसीब में सुविधा और योजना शब्द का न कभी वास्ता था न कभी होगा


Conclusion:घुम्मकड़ एवं अर्धघुम्मकड जनजातियों और विमुक्त जनजातियों जिनमे करीब 70 जातियाँ आती है उनके लिए हर जिले के पिछड़ा वर्ग तथा अल्पसंख्यक कल्याण विभाग के तहत योजनाएं चलाई जाती हैं लेकिन इन योजनाओं के अंतर्गत वे लोग आते हैं जिनके पास घुमन्तु कॉर्ड एसडीएम के द्वारा जारी किए हुए हों या फिर उस जिले के निवासी हों ऐसे में इन तक सरकारी योजनाएं कभी पहुँच पाएँगी भी या नहीं इस पर संशय ही है।

बाईट--मारुति दांडेकर,डेरेवाले
भूचन्द विष्वकर्मा,डेरेवाले
बाईट--होमेन्द्र पटले,
सहायक संचालक,
पि.वर्ग तथा अल्पसंख्यक कल्याण मण्डला
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