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मण्डलाः अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बाजार पर निर्भर नहीं आदिवासी किसान, पढ़ें ये ख़बर

मण्डला जिले में रहने वाले आदिवासी किसान अपनी जरूरतों का विकल्प खोज लिया है, ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले इन आदिवासियों के लिए मिट्टी और जंगल का बड़ा महत्व होता है.

आदिवासी किसान
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Published : Jun 3, 2019, 10:19 PM IST

मण्डला। जिले में रहने वाले आदिवासी किसान अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बाजार पर निर्भर नहीं रहते, बल्कि वे जरूरतों का विकल्प भी खोज लेते हैं. ये लोग अपने आसपास की चीजों से ही अपनी जरूरतें पूरी कर लेते हैं.घर की दीवारों की पुताई के लिए यहां के आदिवासी चूने के बदले जंगल के भीतर छोटी बड़ी खदानों से निकली सफेद चूने के जैसी मिट्टी का इस्तेमाल करते हैं.

आदिवासी किसानों का जीवन

ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों के लिए मिट्टी और जंगल का बड़ा महत्व है. रोजी रोटी से लेकर इनकी हर जरूरत यहीं से पूरी होती है, कृषि के उपकरण बनाना या फिर रहने के लिए घरों का निर्माण और उस घर की देख- रेख सभी मिट्टी और जंगल से ही पूरी होती है.

पुताई के लिए इस्तेमाल होने वाली मिट्टी को बरसात के पहले गर्मी के मौसम में खोद कर लाते हैं और साल भर के लिए इसे सुखा कर रख लेते हैं. इसे स्थानीय भाषा मे छूही कहा जाता है, छुई की पुताई से दीवारें ठंडी रहती हैं.

वहीं यह मिट्टी मुफ्त में उपलब्घ है जिससे आर्थिक बोझ भी नहीं पड़ता. इस मिट्टी का महत्व इस बात से भी जाना जा सकता है कि बच्चे के जन्म के समय चौक बारसे में इस मिट्टी को रखा जाता है और शादी में भी इसके बिना पूजा संभव नहीं है.

मण्डला। जिले में रहने वाले आदिवासी किसान अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बाजार पर निर्भर नहीं रहते, बल्कि वे जरूरतों का विकल्प भी खोज लेते हैं. ये लोग अपने आसपास की चीजों से ही अपनी जरूरतें पूरी कर लेते हैं.घर की दीवारों की पुताई के लिए यहां के आदिवासी चूने के बदले जंगल के भीतर छोटी बड़ी खदानों से निकली सफेद चूने के जैसी मिट्टी का इस्तेमाल करते हैं.

आदिवासी किसानों का जीवन

ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों के लिए मिट्टी और जंगल का बड़ा महत्व है. रोजी रोटी से लेकर इनकी हर जरूरत यहीं से पूरी होती है, कृषि के उपकरण बनाना या फिर रहने के लिए घरों का निर्माण और उस घर की देख- रेख सभी मिट्टी और जंगल से ही पूरी होती है.

पुताई के लिए इस्तेमाल होने वाली मिट्टी को बरसात के पहले गर्मी के मौसम में खोद कर लाते हैं और साल भर के लिए इसे सुखा कर रख लेते हैं. इसे स्थानीय भाषा मे छूही कहा जाता है, छुई की पुताई से दीवारें ठंडी रहती हैं.

वहीं यह मिट्टी मुफ्त में उपलब्घ है जिससे आर्थिक बोझ भी नहीं पड़ता. इस मिट्टी का महत्व इस बात से भी जाना जा सकता है कि बच्चे के जन्म के समय चौक बारसे में इस मिट्टी को रखा जाता है और शादी में भी इसके बिना पूजा संभव नहीं है.

Intro:ग्रामीण किसानों की जरूरत जितनी कम होती है इतनी ही आसानी ये इन जरूरतों का विकल्प भी खोज लेते है,जरूरी नहीं कि हर आवश्यकता की पूर्ति के लिए बाजार पर ही निर्भर रहा जाए, प्राचीन काल से ही मनुष्य अपने आसपास की चीजों से अपनी जरूरतें पूरी करते आ रहा है ऐसे ही मण्डला जिले के दूर ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले आदिवाशियों के लिए मिट्टी का कितना महत्व है ये इनके पास जाकर ही समझा जा सकता है


Body:माटी पुत्र कहे जाने वाले मण्डला जिले के आदिवासी जन्म से लेकर आखिरी साँस तक मिट्टी और जंगल से जुड़े होते हैं,रोजी रोटी से लेकर हर एक जरूरतें यहीं से पूरी होती है चाहे फिर कृषि के उपकरण बनाना हो या फिर रहने के लिए घरों का निर्माण,या फिर उस घर की देख रेख।आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि घर की दीवारों की पुताई के लिए भी इन आदिवाशियों के पास चूने के बदले जो विकल्प है वह भी जंगल के भीतर छोटी बड़ी खदानों से निकली सफेद चूने के जैसी मिट्टी से होती है जो ये स्वयं बरसात के पहले गर्मी में खोद कर लाते हैं और साल भर के लिए इसे सुखा कर रख लेते है फिर रोज कच्चे फर्श पर लीपना हो या फिर त्योहार के समय दीवारों पर सफेदी चढ़ाना इसी मिट्टी का ही उपयोग किया जाता है जिसे लगभग आधे घण्टे पानी मे भिगो दिया जाता है फिर पानी डालकर कपड़े के सहारे पुताई की जाती है,इस मिट्टी को स्थानीय भाषा मे छूही कहा जाता है,इस मिट्टी से पुताई के पीछे मान्यता ये है कि चूने की पुताई से दीवारें गर्म होती है जबकि छुई की पुताई से दीवारें ठंडी रहती हैं वहीं यह मुफ्त में उपलब्घ है जिस से आर्थिक बोझ भी नहीं पड़ता,इस मिट्टी का महत्व इस बात से भी जाना जा सकता है कि बच्चे के जन्म के समय चौक बारसे में इस मिट्टी को रखा जाता है शादी ब्याह में भी इसके बिना पूजा संभब नहीं वहीं म्रत्यु के समय भी कुछ आदिवाशियों द्वारा इसे शरीर के साथ रखा जाता है और यह दर्शाता है कि मिट्टी की काया को मिट्टी में मिल जाना है



Conclusion:घने जंगलों की गोद मे जन्म लेने और पले बढ़े आदिवाशियों के लिए छोटी छोटी जरुरतों के लिए बाज़ार पर निर्भर रहना सम्भव नहीं ऐसे में आवश्यकता ही अविष्कार की जननी के तर्ज पर इनके पास हर जरूरत और मौके के हिसाब से उपलब्ध विकल्प यह बताने को काफी है कि इन्शान की जरूरतें उपलब्ध साधनों के हिसाब से बदलती जाती हैं वहीं मिट्टी के मोल को समझ पाना आसान नहीं।
बाईट--ग्रामीण महिला
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