मंडला। 2019 का साल बीत रहा है, लेकिन इस साल की बात करें तो किसानों के लिए यह साल कुछ खास अच्छा नहीं रहा. पहले मानसून में देरी फिर बोआई के बाद सावन में सूखा और फिर अतिवृष्टि के बाद खड़ी फसलों का नुकसान. इसके बाद केंद्र और राज्य सरकार के बीच दलों की नूरा कुश्ती, सोसायटी पर खाद बीज की लाइन, धान खरीदी में देरी, समय पर भुगतान का न होना. इन सभी समस्याओं ने किसानों पर खूब सितम ढ़ाया है.
पहले विधानसभा और फिर साल के शुरुआत में लोकसभा के चुनाव किसानों से लोकलुभावन वादे, किसी ने कहा कि कर्जा माफ होगा तो किसी ने किसानों के द्वारा खरीदी केन्द्रों में बेची जाने वाली उपज के मूल्य बढ़ाने से लेकर बोनस तक की बात कही, किसी ने बिजली मुफ्त में देने का वादा किया तो कोई दल किसानों को मिलने वाले फसल नुकसान की राहत राशि प्रति हैक्टेयर बढ़ाने की बात कर सत्ता में काबिज हो गए, लेकिन किसानों को मिला आश्वासन. नेताओं द्वारा किए वादों ने उन्हे सत्ता पर तो बैठा दिया, लेकिन किसानों की हालत बद से बदतर हो गई. चाहे वह केंद्र पर बैठी बीजेपी हो या फिर प्रदेश की कमलनाथ सरकार.
प्रकृति के कहर से तो किसान फिर भी उभर गया लेकिन शासन और प्रशासन ने जो किसानों पर जो कहर बरसाया है वह जख्म भरने का नाम नहीं ले रहा है. 2019 ने किसानों को वो रंग भी दिखाए की जिनकी भूमि सिंचित है उसे असिंचित घोषित कर किसानों से प्रति एकड़ 5 क्विंटल कम धान खरीदी जा रही और धान के परिवहन में भी देरी ने बेची हुई फसल के भुगतान के इंतजार को और बढ़ा दिया, लेकिन केंद्र सरकार हो या फिर राज्य सरकार दोनों ही अपनी जिम्मेदारी निभाते रहे. लगातार एक दूसरे के खिलाफ धरने प्रदर्शन और आंदोलन कर यह जताते रहे और अपने आप किसानों के बड़े हिमायती बताने का प्रयास करते रहे. पार्टियों और नेताओं की नूराकुश्ती और बयान बाजी से किसानों को कितना लाभ मिला यह तो नहीं पता, लेकिन अन्नदाताओं के माथे पे खीचीं हुई चिंता की लकीर साफ देखी जा सकती है.
प्रदेश की सरकार का कहना है कि केन्द्र की सरकार भेदभाव कर रही है और प्रदेश को पैसे ही नहीं दे रही. वहीं केंद्र सरकार की दलील है कि पहले आप हिसाब तो दो की आखिर पैसा चाहिए किस लिए. ऐसे में परेशान है तो बस किसान जिसे है इस बात का इंतजार है की शायद नया साल उनके लिए खुशहाली का सबेरा लेकर आए.