खरगोन। हमारा देश अपने बीर सपूतों की शौर्य गाथाओं से भरा पड़ा है, यहां लगभग हर जिले में एक वीर सपूत का घर मिल जाएगा जिसने देश के लिए शहादत दी हो. ऐसे ही एक वीर सपूत हैं शहीद लॉस नायक राजेन्द्र यादव जिन्होंने कारगिल युद्द में पाकिस्तान के दांत खट्टे कर दिए थे. शहीद राजेंद्र यादव ने कारगिल युद्ध के दौरान दुर्गम पहाड़ियों पर देश के लिए जान की बाजी लगा दी थी. अंतिम सांस तक लड़ाई लड़ी लेकिन जब जीत हासिल होने की बारी आई तो वह भारत माता के आंचल में सदा के लिए सो गए, हालांकि उनके परिवार को उनकी शहादत पर गर्व है.
शहीद लांस नायक शहीद राजेन्द्र यादव की पत्नी प्रतिभा यादव ने ईटीवी से चर्चा करते हुए कहा कि हमारी आखिरी मुलाकात खरगोन में ही हुई थी, उन्होंने बताया की 16 फरवरी 1997 को उनकी शादी हुई और मई 1999 को राजेंद्र यादव शहीद हो गए. वे यहां से 13 जुलाई 1999 को गंगा नगर के लिए रवाना हुए थे. उसके बाद वहां से कारगिल रवाना हो गए थे, जहां से फिर लौटकर उनकी शहादत की खबर ही आई. प्रतिभा ने बताया की उनके पति के शहीद होने के बाद प्रशासन ने सारी सुविधाएं दीं और परिवार को पूरा सम्मान मिला.
पिता के काम से खुश है बिटिया
लांस नायक शहीद राजेन्द्र यादव की बेटी मेघा यादव उस समय मां के गर्व में थीं, उसने पिता को नहीं देखा पर उनकी कहानियां परिवार और समाज से सुनी हैं, जिससे उन्हें अपनी पिता पर गर्व है. मेघा ने बताया की कुछ समय पहले वह पिता के हेड क्वाटर्स गई थीं, जहां उन्हें पता चला की उनके पिता बहुत ही मिलनसार थे और जल्द हर किसी के साथ घुल मिल जाते थे. इसीलिए वे लोगों के दिलों में आज भी जीवित हैं.
पिता के सम्मान के लिए बेटी ने लड़ी लड़ाई
शहीद राजेन्द्र यादव की बेटी मेघा यादव ने बताया की पापा के शहीद होने के 3 साल बाद ही स्कूल का नाम शहीद राजेन्द्र यादव रखने के लिए आदेश हो गए थे, लेकिन जब लंबे समय तक इस पर अमल नहीं हुआ तो उन्होंने पिता को सम्मान दिलाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी, जिसके बाद घुघरियाखेड़ी की स्कूल का नाम शहीद राजेन्द्र यादव किया गया.
राजेंद्र का आखिरी बार घर आना आज भी परिवार की यादों में ताज़ा है. वो बीए की परीक्षा देने खरगोन आए थे. उनकी पत्नी प्रतिभा तब 3 महीने की गर्भवती थीं. उसी दौरान अचानक सूचना आयी और वो करगिल युद्ध के बारे में परिवार को बताए बिना ड्यूटी के लिए रवाना हो गए. वो 13 मई 1999 को खरगोन से रवाना हुए और 14 मई को भोपाल में अपने बहन से कुछ मिनट की मुलाकात करते हुए अपने अंतिम सफर के लिए रवाना हो गए. 30 मई 1999 को राजेंद्र 15 हज़ार फीट की ऊंचाई पर तोलोलिंग पोस्ट पर कब्जे के दौरान युद्ध लड़ते हुए शहीद हो गए.