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कोरोना संकट ने शिक्षा से किया दूर, गरीबी-सामाजिक कुरीति बन रही अभिशाप - Poverty became the reason for distance from education

संकट के इस दौर में झाबुआ के गरीब आदिवासी बच्चे डिजिटल और खर्चीली शिक्षा पाने में खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं, जिस कारण यहां लगातारक शिक्षा का ग्राफ गिरता जा रहा है.

Distance from education
शिक्षा से बनी दूरी
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Published : Aug 22, 2020, 3:07 PM IST

Updated : Aug 22, 2020, 4:54 PM IST

झाबुआ। संकट के इस दौर में जहां एक ओर लोगों के पास रोजगार नहीं है, वहीं दूसरी ओर बच्चों की पढ़ाई की चिंता सताने लगी है. कोरोना के कारण जहां व्यवसाय ठप हैं, वहीं स्कूलों के ताले खुलने का नाम नहीं ले रहे हैं. झाबुआ में आर्थिक रूप से कमजोर ग्रामीण पहले ही मजदूरी के लिये गुजरात पर निर्भर थे, ऐसे में वे अपने बच्चों को डिजिटल और खर्चीली शिक्षा देने में खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं, लिहाजा उनके बच्चे शिक्षा से दूर होते जा रहे हैं.

शिक्षा से बनी दूरी

गरीबी बनी शिक्षा से दूरी का कारण

8वीं से 9वीं में गई पूजा बताती है कि वो गरीब वर्ग से है, उसके पास न तो कंप्यूटर है न ही लैपटॉप और न ही डिजिटल एजुकेशन प्राप्त करने का कोई साधन. उसके पिता के पास एक मोबाइल है, वह भी काम के दौरान अपने साथ ले जाते हैं, लिहाजा वो ऑनलाइन पढ़ाई नहीं कर सकती. वही हाल 12वीं पास कर कॉलेज में एडमिशन लेने वाली छात्राओं का भी है. उन्होंने कहा कि हमने एडमिशन तो ले लिया, मगर कक्षाएं संचालित नहीं होने से पढ़ाई छोड़ने का मानसिक दबाव बढ़ता जा रहा है.

बच्चों की पढ़ाई के बारे में सोचा ही नहीं
जिले के पारा क्षेत्र के अनसिंह बामनिया जिले में काम नहीं मिलने के कारण अपने बच्चों सहित 21 लोगों का जत्था लेकर गुजरात के राजकोट चले गए. जहां उन्हें 250 रुपए रोजाना दिहाड़ी मिलती है. इन 21 लोगों में 5 बच्चे भी शामिल हैं, मगर 250 रुपये कमाने वाले अनसिंह पर परिवार की जिम्मेदारी है, लिहाजा बच्चों की पढ़ाई के बारे में उन्होंने सोचा तक नहीं.

सरकारी योजनाएं ठंडे बस्ते में
85 फीसदी आदिवासी आबादी जिला पहले से शिक्षा में काफी पिछड़ा है. यहां की साक्षरता दर मात्र 44 फीसदी है, जिसमें लड़कियां महज 33 फीसदी हैं. पहले से बालिका शिक्षा में पिछड़े जिले में कोरोना संकट का डर ऐसा छाया कि इस दौर में जिला बच्चियों की शिक्षा में और फिसलने लगा है. सरकार ने शाला त्यागी बच्चों को स्कूल लाने के लिए जो योजना बनाई थी, वो भी कोरोना काल के चलते ठंडे बस्ते में चली गई है.

पिछले सत्र में 25 हजार बच्चों ने छोड़ा स्कूल
देश के अति पिछड़े जिले में शामिल झाबुआ में बच्चों को आज भी स्कूल भेजने की बजाय खेतों में काम कराने, मवेशी चराने और मजदूरी करने भेजा जाता है. सरकारी आंकड़ों की बात करें तो पिछले शैक्षणिक सत्र में यहां 25 हजार बच्चों ने स्कूल ड्रॉप किया है, जिसमें लड़कियों की संख्या 12 हजार के करीब है. इस सत्र में स्कूलों के खुलने को लेकर कोई जानकारी नहीं है, जिसस इस संख्या में बढ़ोतरी होने की आशंका है.

परिजनों के साथ ही पलायित होते बच्चे
सरकार ने देश में शिक्षा का अधिकार कानून जरूर लागू किया है, जिसके तहत 6 से 14 साल की उम्र के हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार प्राप्त है. किंतु यहां के लोग मजदूरी के लिए अन्य राज्यों और जिलों में पलायन कर जाते हैं, ऐसे में उन बच्चों को कैसे उनका अधिकार दिलाया जाये, जो अपने परिजनों के साथ भटकते रहते हैं. ग्रामीण भी अपने बच्चों को डिजिटल और खर्चीली तकनीक के सहारे पढ़ाई कराने को लेकर उत्साहित नहीं हैं, ऐसे में हजारों बच्चे शिक्षा से दूर होते जा रहे हैं.

आदिवासी समुदाय में फैली कुरीतियां जैसे दहेज, दापा और बाल मजदूरी, बालिका शिक्षा की रफ्तार को आगे बढ़ने से रोकना है. जिले में ऐसे हजारों बच्चे हैं, जिनके नाम सरकारी स्कूलों में दर्ज हैं, लेकिन परिवार की मदद के लिए वो कभी खेतो में काम करते तो कभी मवेशी चराते नजर आते हैं. अगर कुछ बच्चे स्कूल जाते भी थे तो वो भी इस कोरोना काल में पढ़ाई छोड़ कर बैठे हैं.

झाबुआ। संकट के इस दौर में जहां एक ओर लोगों के पास रोजगार नहीं है, वहीं दूसरी ओर बच्चों की पढ़ाई की चिंता सताने लगी है. कोरोना के कारण जहां व्यवसाय ठप हैं, वहीं स्कूलों के ताले खुलने का नाम नहीं ले रहे हैं. झाबुआ में आर्थिक रूप से कमजोर ग्रामीण पहले ही मजदूरी के लिये गुजरात पर निर्भर थे, ऐसे में वे अपने बच्चों को डिजिटल और खर्चीली शिक्षा देने में खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं, लिहाजा उनके बच्चे शिक्षा से दूर होते जा रहे हैं.

शिक्षा से बनी दूरी

गरीबी बनी शिक्षा से दूरी का कारण

8वीं से 9वीं में गई पूजा बताती है कि वो गरीब वर्ग से है, उसके पास न तो कंप्यूटर है न ही लैपटॉप और न ही डिजिटल एजुकेशन प्राप्त करने का कोई साधन. उसके पिता के पास एक मोबाइल है, वह भी काम के दौरान अपने साथ ले जाते हैं, लिहाजा वो ऑनलाइन पढ़ाई नहीं कर सकती. वही हाल 12वीं पास कर कॉलेज में एडमिशन लेने वाली छात्राओं का भी है. उन्होंने कहा कि हमने एडमिशन तो ले लिया, मगर कक्षाएं संचालित नहीं होने से पढ़ाई छोड़ने का मानसिक दबाव बढ़ता जा रहा है.

बच्चों की पढ़ाई के बारे में सोचा ही नहीं
जिले के पारा क्षेत्र के अनसिंह बामनिया जिले में काम नहीं मिलने के कारण अपने बच्चों सहित 21 लोगों का जत्था लेकर गुजरात के राजकोट चले गए. जहां उन्हें 250 रुपए रोजाना दिहाड़ी मिलती है. इन 21 लोगों में 5 बच्चे भी शामिल हैं, मगर 250 रुपये कमाने वाले अनसिंह पर परिवार की जिम्मेदारी है, लिहाजा बच्चों की पढ़ाई के बारे में उन्होंने सोचा तक नहीं.

सरकारी योजनाएं ठंडे बस्ते में
85 फीसदी आदिवासी आबादी जिला पहले से शिक्षा में काफी पिछड़ा है. यहां की साक्षरता दर मात्र 44 फीसदी है, जिसमें लड़कियां महज 33 फीसदी हैं. पहले से बालिका शिक्षा में पिछड़े जिले में कोरोना संकट का डर ऐसा छाया कि इस दौर में जिला बच्चियों की शिक्षा में और फिसलने लगा है. सरकार ने शाला त्यागी बच्चों को स्कूल लाने के लिए जो योजना बनाई थी, वो भी कोरोना काल के चलते ठंडे बस्ते में चली गई है.

पिछले सत्र में 25 हजार बच्चों ने छोड़ा स्कूल
देश के अति पिछड़े जिले में शामिल झाबुआ में बच्चों को आज भी स्कूल भेजने की बजाय खेतों में काम कराने, मवेशी चराने और मजदूरी करने भेजा जाता है. सरकारी आंकड़ों की बात करें तो पिछले शैक्षणिक सत्र में यहां 25 हजार बच्चों ने स्कूल ड्रॉप किया है, जिसमें लड़कियों की संख्या 12 हजार के करीब है. इस सत्र में स्कूलों के खुलने को लेकर कोई जानकारी नहीं है, जिसस इस संख्या में बढ़ोतरी होने की आशंका है.

परिजनों के साथ ही पलायित होते बच्चे
सरकार ने देश में शिक्षा का अधिकार कानून जरूर लागू किया है, जिसके तहत 6 से 14 साल की उम्र के हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार प्राप्त है. किंतु यहां के लोग मजदूरी के लिए अन्य राज्यों और जिलों में पलायन कर जाते हैं, ऐसे में उन बच्चों को कैसे उनका अधिकार दिलाया जाये, जो अपने परिजनों के साथ भटकते रहते हैं. ग्रामीण भी अपने बच्चों को डिजिटल और खर्चीली तकनीक के सहारे पढ़ाई कराने को लेकर उत्साहित नहीं हैं, ऐसे में हजारों बच्चे शिक्षा से दूर होते जा रहे हैं.

आदिवासी समुदाय में फैली कुरीतियां जैसे दहेज, दापा और बाल मजदूरी, बालिका शिक्षा की रफ्तार को आगे बढ़ने से रोकना है. जिले में ऐसे हजारों बच्चे हैं, जिनके नाम सरकारी स्कूलों में दर्ज हैं, लेकिन परिवार की मदद के लिए वो कभी खेतो में काम करते तो कभी मवेशी चराते नजर आते हैं. अगर कुछ बच्चे स्कूल जाते भी थे तो वो भी इस कोरोना काल में पढ़ाई छोड़ कर बैठे हैं.

Last Updated : Aug 22, 2020, 4:54 PM IST
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