झाबुआ। कहते हैं जब एक बेटी पढ़ती है तो वह दो घरों को संवार देती है, शादी से पहले अपने पिता के घर और शादी के बाद अपने ससुराल को. लेकिन झाबुआ में हालात कुछ इससे अलग नजर आ रहे हैं, यहां लोग सामाजिक, आर्थिक हालात के कारण लड़कियों को पढ़ाने में कम रुचि ले रहे हैं, जिस कारण यहां लगातार लड़कियों की शिक्षा दर में गिरावट आ रही है, ऐसे में कैसे पढ़ेगी बेटी और कैसे बढ़ेंगी बेटियां.
ऑनलाइन क्लास में मात्र 20 प्रतिशत लड़कियां
कोरोना संकट के इस दौर में जहां एक ओर लोगों के पास रोजगार नहीं है, वहीं दूसरी ओर अब बच्चों के पढ़ाई की चिंता भी उन्हें सताने लगी है. कोरोना के कारण जहां व्यवसाय ठप हो गए हैं वहीं स्कूलों के ताले खुलने का नाम नहीं ले रहे हैं. ऐसे में झाबुआ के गरीब आदिवासी परिजन अपने बच्चों को डिजिटल और महंगी शिक्षा देने में खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं, लिहाजा उनके बच्चे शिक्षा से दूर होते जा रहे हैं और जिले भर मे संचालित हो रहीं ऑनलाइन क्लासेस में भी मात्र 20 प्रतिशत ही लड़कियों की उपस्थिति हो पाती है, जिस कारण कोरोना संकट के इस दौर में पहले से शिक्षा में पिछड़ी जिले की लड़कियां और भी पिछड़ती जा रही हैं.
गरीबी बनी शिक्षा से दूरी का कारण
8वीं से 9वीं में गई पूजा बताती हैं कि वो गरीब वर्ग से हैं, उसके पास न तो कंप्यूटर है न ही लैपटॉप और न ही डिजिटल एजुकेशन प्राप्त करने का कोई साधन. उसके पिता के पास एक मोबाइल है, वह भी काम के दौरान अपने साथ ले जाते हैं, लिहाजा वो ऑनलाइन पढ़ाई नहीं कर सकती. वही हाल 12वीं पास कर कॉलेज में एडमिशन लेने वाली छात्राओं का भी है. उन्होंने कहा कि हमने एडमिशन तो ले लिया, मगर कक्षाएं संचालित नहीं होने से पढ़ाई छोड़ने का मानसिक दबाव बढ़ता जा रहा है.
12 हजार लड़कियों ने छोड़ा स्कूल
पहले से बालिका शिक्षा में पिछड़े जिले में कोरोना संकट का डर ऐसा छाया है कि इस दौर में जिला बच्चियों की शिक्षा में और फिसलने लगा है. सरकार ने शाला त्यागी बच्चों को स्कूल लाने के लिए जो योजना बनाई थी, वो भी कोरोना काल के चलते ठंडे बस्ते में चली गई है. सरकारी आंकड़ों की बात करें तो पिछले शैक्षणिक सत्र में यहां 25 हजार बच्चों ने स्कूल ड्रॉप किया है, जिसमें लड़कियों की संख्या 12 हजार के करीब है. वहीं इस शैक्षणिक सत्र में स्कूलों के खुलने को लेकर कोई जानकारी नहीं है, जिससे इस संख्या में बढ़ोतरी होने की आशंका है.
गर्ल्स डेडिकेटेड स्कूलों की कमी
85 फीसदी आदिवासी आबादी वाला जिला पहले से शिक्षा में काफी पिछड़ा है. यहां की साक्षरता दर मात्र 44 फीसदी है, जिसमें महिला साक्षरता दर महज 33 फीसदी है. जिले में स्कूलों की बात करें तो कुल 2530 स्कूल हैं, जिनमें से मात्र 10 हाई स्कूल लडकियों के लिए हैं, जबकि 3 लाख 20 हजार स्कूली छात्र संख्या वाले जिले में लड़कियों के लिए मात्र एक कॉलेज है, फिर कैसे हम यहां की लड़कियों के लिए बेहतर शिक्षा की बात कर सकते हैं.
सामाजिक कुरीती भी एक कारण
देश के अति पिछड़े जिले में शामिल झाबुआ में ज्यादातर लड़कियों को स्कूल भेजने की बजाय खेतों में काम कराने, मवेशी चराने और मजदूरी करने की ओर धकेला जाता है. वहीं आदिवासी समुदाय में फैली कुरीतियां जैसे दहेज, दापा और बाल मजदूरी भी बालिका शिक्षा की रफ्तार को आगे बढ़ने से रोकती हैं, जिले में ऐसी हजारों लड़कियां हैं, जिनके नाम सरकारी स्कूलों में दर्ज हैं, लेकिन परिवार की मदद के लिए वो कभी खेतों में काम करती हैं तो कभी मवेशी चराते नजर आती हैं. अगर कुछ लड़कियां स्कूल जाती भी थीं तो वो भी इस कोरोना काल में पढ़ाई छोड़कर बैठ गई हैं.
हर मोर्चे पर पहल जरूरी
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, पढ़ेगी बेटी तो ही बढ़ेगी बेटी जैसे कितने भी अभियान सरकारें चला लें, देश में भले शिक्षा का अधिकार कानून लागू हो, लेकिन जब तक सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी मंचों पर लड़कियों के लिए आवाज बुलंद नहीं होगी हालात ऐसे ही बने रहेंगे, हमे जरूरत है कि बालिका शिक्षा के लिए समाज से लड़ कर जरूरी कदम उठाएं, जिससे झाबुआ जैसे हालातों ने निपटा जा सके.