Jhabua Assembly Seat। चुनावी इतिहास में जिले की झाबुआ विधानसभा सीट पर एक उपचुनाव मिलाकर 15 बार चुनाव हाे चुके हैं. एमपी में नवंबर 2023 में विधानसभा चुनाव होना है, लेकिन भाजपा ने झाबुआ सीट पर बीजेपी ने जिलाध्यक्ष भानु भूरिया को चुनाव मैदान में उतारा तो दूसरी तरफ कांग्रेस की तरफ से विक्रांत भूरिया को प्रत्याशी बनाया है. दोनों के बीच रोचक मुकाबला देखने मिल रहा है, लेकिन यदि पुराना इतिहास देखें तो कांग्रेस का पलड़ा भारी माना जा रहा है.
स्वास्थ्य और शिक्षा सबसे बड़ा मुद्दा: भाजपा के झाबुआ विधानसभा सीट के प्रत्याशी भानु भूरिया 2019 का झाबुआ उपचुनाव लड़ चुके हैं और 27 हजार के बड़े अंतर से उनकी हार हुई थी. अभी वे भाजपा के जिलाध्यक्ष हैं और उनकी पत्नी रानापुर जनपद पंचायत से निर्विरोध अध्यक्ष बनकर आई हैं. हालांकि पहले वे भी कांग्रेस में थे. दूसरी तरफ यहां से कांतिलाल भूरिया से अधिक डॉ. विक्रांत भूरिया सक्रिय हैं. यहां जातीय गणित एक ही है आदिवासी और उसमें भूरिया परिवार. यानी भील बाहुल्य राजनीति है. मुद्दों की बात करें तो यहां स्वास्थ्य और शिक्षा सबसे बड़ा मुद्दा है. रोजगार की भी समस्या है. भील समुदाय के लोग हर साल गुजरात समेत दूसरे राज्यों में रोजगार के लिए पलायन करते हैं.
जयस की एंट्री ने बिगड़ा भाजपा-कांग्रेस का गणित: सीट पर एसटी मतदाताओं का एकतरफा दबदबा है. बस अब यदि कुछ रोचक है तो वो जय आदिवासी शक्ति संगठन (जयस) की इंट्री. जयस के कारण बीजेपी और कांग्रेस दोनों का ही गणित गड़बडा रहा है. ऐसे में इस बार त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिल सकता है. बीजेपी जहां पेसा एक्ट, जनजातीय गौरव यात्रा और आदिवासी महापुरूषों की जंयती को जोरशोर से मनाकर अपनी तरफ वोट बैंक करना चाहती है तो वहीं कांग्रेस और जयस एमपी आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार को मुद्दा बना रही है.
झाबुआ का इतिहास: इस जिले का पुराना नाम झाबुआ की बजाय जवाईबूआ था, जिसे प्राचीन माना जाता था. इसका अर्थ है कि राज्य से बाहर के स्थानीय लोकगाथाओं के अनुसार कई राजा रजवाड़ों का शासन होने के बाद भी यहां के मूलनिवासी आदिवासियों की अपनी अलग शासन प्रणाली हुआ करती थी. यहां भील जाति के राजाओं का शासन रहा है. इस भील जाति में भी सबसे पुरानी डामोर जाति है, उसके बाद दूसरी उपजातियां बनी.
झाबुआ सीट का राजनीतिक इतिहास: वर्ष 1957 में पहली बार झाबुआ सीट बनी और इसे शेड्यूल ट्राइब्स (ST) के लिए रिजर्व कर दिया गया, तब इसका नंबर 53 था. पहली बार तीन प्रत्याशी मैदान में थे. इनमें कांग्रेस के सूर सिंह ने 5430 वोट से चुनाव जीत लिया. दूसरे नंबर पर निर्दलीय प्रत्याशी प्रताप सिंह रहे. 1962 के चुनाव में दोबारा परसीमन हुआ और झाबुआ सीट को 276 नंबर मिला. इस बार कांग्रेस ने गंगा बाई को प्रत्याशी बनाया. लेकिन जीत मिली निर्दलीय प्रत्याशी मान सिंह को. मान सिंह ने यह चुनाव 7372 वोट से जीत लिया. मान सिंह का इस समय चुनाव जीतना समझ से परे था, क्योंकि तब कांग्रेस का एक तरफा बोलबाला था.
आठ बार लगातार जीती कांग्रेस: वर्ष 1967 में फिर से परसीमन हुआ और इस बार सीट को 283 नंबर मिला. इस बार चुनाव में कांग्रेस ने बी. सिंह को ही अपना प्रत्याशी बनाया और वे जीत गए. बी. सिंह ने एसएसपी के मान सिंह को 8015 वोट से चुनाव हरा दिया. 1972 में कांग्रेस गंगाबाई को उम्मीदवार बनाया और उन्होंने भारतीय जनसंघ के प्रत्याशी प्रेमसिंह को 2271 वोटों से चुनाव हरा दिया. 1977 में कांग्रेस ने बापूसिंह डामर काे उम्मीदवार बनाया और उन्होंने जनता पार्टी के उम्मीदवार प्रेमसिंह सोलंकी को 4046 वोटों से हरा दिया. कांग्रेस की जीत का क्रम 1980 में भी जारी रहा. इस बार दो फाड़ हुई कांग्रेस में से कांग्रेस (i) ने बापू सिंह डामर को फिर से उम्मीदवार बनाया और उन्होंने पहली बार चुनाव लड़ रही भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार पदम सिंह चौहान को 10793 वोटों से हरा दिया.
16 हजार से ज्यादा वोटों से जीते बापूसिंह: 1985 में फिर से कांग्रेस ने बापूसिंह को उम्मीदवार बनाया इस बार भी वे 10136 वोटों से चुनाव जीत गए. दूसरे नंबर पर निर्दलीय प्रत्याशी दरियाव सिंह रहे, जिन्हें कुल 3874 वोटों मिले. 1990 में भी कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बापू सिंह को बनाया, जबकि भारतीय जनता पार्टी नेन छीतू सिंह को उम्मीदवार बनाया. इस बार भी बापूसिंह ने बीजेपी को 16136 वोटों से हरा दिया. 1993 में कांग्रेस ने बापुलसिंह डामर को उम्मीदवार बनाया और भारतीय जनता पार्टी ने फिर से छितुसिंह मेड़ा काे प्रत्याशी बनाया. लेकिन जीत कांग्रेस के प्रत्याशी की हुई. कांग्रेस ने यह चुनाव 25,778 वोटों से जीत लिया. 1998 में कांग्रेस ने स्वरूप बाई भाबर को उम्मीदवार बनाया और भारतीय जनता पार्टी ने गंगा बाई को उम्मीदवार बनाया, यह चुनाव भी कांग्रेस 19634 वोटों से जीत गई.
2003 में रुका कांग्रेस की जीत का सिलसिला: विधानसभा गठन के बाद पहली बार बीजेपी इस सीट से चुनाव 2003 में जीत पाई. इस बार भारतीय जनता पार्टी ने अपना उम्मीदवार पावे सिंह पारगी को बनाया और वे जीतकर विधायक बने, उन्हें कुल 47019 वोट मिले. वहीं कांग्रेस की उम्मीदवार स्वरूप बाई भाबर को कुल 28644 वोट मिले और वे 18375 वोटों से चुनाव हार गईं. लेकिन अगले ही चुनाव यानी 2008 में कांग्रेस ने यह सीट वापस ले ली. इस बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने जेवियर मेडा को उम्मीदवार बनाया और भारतीय जनता पार्टी ने उम्मीदवार पवेसिंह कलसिंह पारगी को उम्मीदरवार बनाया. बीजेपी यह चुनाव 18751 वोटों से हार गई. इसके बाद बीजेपी ने जोरदार तैयारी की और 2013 में वापसी कर ली. इस बार भारतीय जनता पार्टी ने शांतिलाल बिलवाल को उम्मीदवार बनाया और वे जीते व विधायक बने. उन्हें कुल 56587 वोट मिले, जबकि कांग्रेस के उम्मीदवार जेवियार मेडा को कुल 40729 वोट मिले और वे 15858 वोटों से हार गए. बीता चुनाव यानी 2018 में भी बीजेपी ने जीत का सिलसिला कायम रखा. इस बार भारतीय जनता पार्टी ने गुमानसिंह डामोर को टिकट दिया और कांग्रेस ने डॉ. विक्रांत भूरिया को उम्मीदवार बनाया, यह चुनाव गुमान सिंह ने 10437 वोटों से जीत लिया.