झाबुआ। भारतीय संस्कृति में पर्वों का एक अलग ही स्थान है. क्योकिं पर्व एक ऐसा आयोजन है. जिसमें लोग एक साथ मिलकर अपनी खुशियां कई तरह से मिलकर बांटते हैं. अलग अलग समुदाय और समाज के अपने तरीके से मनाने वाले पर्व होते हैं. ऐसा ही एक झाबुआ जिले के आदिवासी समुदाय का अपना पर्व है. जिसे गल देवता का पर्व कहा जाता है. इस पर्व को धुलेंडी के बाद अलग-अलग गांव में मनाया जाता है. आदिवासी समुदाय में इसे आस्था और विश्वास का पर्व माना जाता है.
इस पर्व को मनाने की परंपरा दशकों से चली आ रही है. जिसे लेकर स्थानीय लोगों में उत्साह भी रहता है. इस पर्व के तहत मेले का आयोजन किया जाता है. जिसमें लोग एक साथ मिलकर खुशियां अपने तरीके से बांटते है. इस पर्व पर लगने वाले मेले में ग्रामीण अपनी मन्नत पूरी होने पर 20 से 50 फीट ऊंचे मचान पर उल्टे लटक कर घूमते हैं.
आदिवासी समुदाय के लोग अपनी कई तरह की मन्नतें लेकर आते हैं. जैसे की बच्चा ना होना, आर्थिक तंगी, बीमारी से छुटकारा के साथ ही कई तरह की समस्याओं के लिए गल देवता से मन्नत मांगते हैं. और अगर उनकी मन्नत पूरी हो जाती है तो होली के पूर्व 7 भगोरिया हाट बाजारों में मन्नत धारी अपने शरीर पर हल्दी और कुमकुम लगाकर लाल और सफेद कपड़े पहन कर घूमते हैं. मन्नत धारियों को पांच से सात परिक्रमा कर घुमाया जाता है. इस दौरान आदिवासी समुदाय में पशु बलि देने की प्रथा भी प्रचलित है.
गल देवता की मन्नत पूरी होने पर ये मन्नत धारी उपवास भी रखते हैं. जिसके बाद 7 दिनों तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं. गल देवता की पूजा के दौरान बड़ी संख्या में समुदाय के लोग एक स्थान पर इक्टटा होते हैं. यह प्रथा आदिवासी समुदाय में दशकों से चली आ रही है. हालांकि यह खतरनाक है लेकिन समुदाय के लोगों में अटूट आस्था और अपने देवता के प्रति श्रद्धा होने के चलते यह बदस्तूर जारी है.