जबलपुर। भारत में कई मान्यताएं, परंपराएं यहां तक कि प्रथाएं टूट गई, लेकिन रूढ़िवादी प्रथाएं नहीं टूटी. अंतिम संस्कार के कर्मकांड हिंदू समाज की रूढ़िवादी प्रथा है. और यह अब तक नहीं टूटी थी, लेकिन कोरोना वायरस के संकट काल में यह भी टूट गई. इस प्रथा के अनुसार माना जाता था कि अंतिम संस्कार केवल पुरुष करवा सकते हैं, महिलाओं को श्मशान घाट में जाने तक की इजाजत नहीं थी, यदि कोई महिला श्मशान घाट चली जाती थी तो वह चर्चा का विषय बन जाती थी. लेकिन जब जबलपुर में कोरोना वायरस के लिए आरक्षित शमशान घाट चौहानी घाट में एक साथ लगातार कई दिनों तक 70 के करीब शव अंतिम संस्कार के लिए पहुंचे, तो श्मशान घाट में अंतिम संस्कार करवाने वाले बिरहा परिवार की एकमात्र महिला सदस्य सोनू बिरहा अंतिम संस्कार करवाने में जुट गई.
- पूरे जिवन में नहीं किया अंतिम संस्कार
अंतिम संस्कार करने वाली सोनू बिरहा बताती हैं कि, उन्होंने जीवन में पहली बार अपने हाथ से लोगों का अंतिम संस्कार किया. यूं तो यह परिवार इसी श्मशान घाट पर रहता है और उनके परिवार के लोग वर्षों से अंतिम संस्कार का काम काम करते आ रहे हैं. लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि परिवार के किसी महिला सदस्य को ऐसा काम करना पड़ा. सोनू बिरहा का कहना है कि इस दौरान उन्होंने जो देखा उसे देखकर और सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. घर के चारों ओर चिताएं जल रही थी और परिवार के पूरे सदस्य इनके अंतिम संस्कार में लगे रहते थे.
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- रिश्तों को तार-तार होते देखा
सोनू बिरहा का कहना है कि उन्होंने इस दौरान कई रिश्तों को तार-तार होते हुए भी देखा. सोनू एक परिवार के बारे में बताती है कि परिवार बहुत अमीर था, परिवार का एक सदस्य डॉक्टर भी था, लेकिन जब इनकी माताजी का निधन हुआ तो परिवार के किसी सदस्य ने भी शव को हाथ लगाने से मना कर दिया. तब इनके ड्राइवर ने पूरा अंतिम संस्कार किया और उसी ने ही अस्थियां एकत्रित कर नर्मदा नदी में विसर्जित की. कई परिवार ऐसे थे जिनमें एक के बाद एक पूरे परिवार का ही निधन हो गया.
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- कठीन समय में सोनू ने की मदद
सोनू के पति कई सालों से यही काम करते चले आ रहे हैं. उनका कहना है कि यदि उनकी पत्नी उनकी मदद नहीं करती तो, उस कठिन दौर में लोगों की सेवा कर पाना बड़ा मुश्किल हो जाता. परिवार में 4 सदस्य हैं, जिसमें दो युवा बच्चे ने और पति-पत्नी है. लेकिन जब आपदा बड़ी हुई तो और भी लोगों की मदद लेनी पड़ी.