जबलपुर। नर्मदा नदी के किनारे पहाड़ पर स्थित चौंसठ योगिनी का मंदिर 9वीं शताब्दी में शक्ति की उपासना का प्रतीक है. मंदिर को तांत्रिकों की यूनिवर्सिटी भी कहा जाता है. ज्ञात इतिहास के मुताबिक 9वीं शताब्दी में भेड़ाघाट का इलाका ‘त्रिपुरी’ के नाम से जाना जाता था. यहां कलचुरियों के काल का शक्ति सम्प्रदाय का चौसठ योगिनी मंदिर स्थित है जो करीब 13 सौ साल पुराना है. यह मंदिर इस समय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की देखरेख में है. ऐसा माना जाता है कि जबलपुर के पास ही कलचुरी राजाओं की राजधानी तेवर थी.
भेड़ाघाट का चौसठ योगिनी मंदिर उस दौरान त्रिपुर क्षेत्र में शक्ति धर्म के योगिनी सम्प्रदाय के प्रभाव को दिखाता है. 64 योगिनियां मां दुर्गा का प्रतिरूप समझी जाती हैं.
मुख्य योगिनी माताओं की संख्या सात थी जो बाद में चौसठ तक पहुंच गई इसी कारण इस मंदिर ‘चौसठ योगिनी’ के नाम से जाना जाता है, हालांकि वर्तमान में यहां 61 प्रतिमाएं देखाई देती हैं 3 प्रतिमाएं पूरी तरह खंडित हो चुकी हैं.
ये मूर्तियां हजारों वर्ष पुरानी हैं तथा हरियाली लिए पीले बलुआ पत्थरों और लाल पत्थरों की बनी हैं तथा अनेक सभ्यताओं एवं संस्कृतियों की कहानी कहती हैं.
इस मंदिर में प्रवेश के दो रास्ते हैं एक रास्ता नर्मदा के तट से शुरू होता है. (MP Tourism) इस रास्ते में सीढ़ियों द्वारा दक्षिण पूर्व के प्रवेश की ओर से द्वार से मंदिर के अंदर जा सकते हैं. उत्तर-पूर्व की ओर से प्रवेश करने वाला सीढ़ी द्वार रास्ता उस सड़क तक जाता है जो पंचवटी घाट को धुआंधार से जोड़ता है.
मंदिर के प्रांगण से नर्मदा को देखकर ऐसा लगता है, मानो वह संगमरमर की चट्टानों की गोद में चुपचाप सोई हुई कोई मधुर सपना देख रही हो.
इस मंदिर का इतिहास कल्चुरीकाल से जोड़ा जाता है. जो उस समय की पूजित प्रतिमा है. प्रतिमा के तीन रूप महाकाली, महालक्ष्मी, और महासरस्वती के माने जाते हैं.
ऐसा कहा जाता है कि राजा कर्ण देव के सपने में आदिशक्ति का रूप त्रिपुरी दिखाई दी थीं. तब राजा कर्ण ने इस प्रतिमा की स्थापना कराई थी. यह प्रतिमा शिला के सहारे अधलेटी अवस्था में पश्चिम दिशा की ओर मुहं करके हैं. मंदिर में माता महाकाली, माता महालक्ष्मी और माता सरस्वती की विशाल मूर्तियां स्थापित हैं.
यहां त्रिपुर का अर्थ है तीन शहरों का समूह और सुंदरी का अर्थ होता है मनमोहक महिला. इसलिए इस स्थान को तीन शहरों की अति सुंदर देवियों का वास कहा जाता है.
माना जाता है कि राजा कर्ण हथियागढ़ के राजा थे, वे देवी के सामने खौलते हुए तेल के कड़ाहे में स्वयं को समर्पित कर देते थे और देवी प्रसन्न होकर राजा को उनके वजन के बराबर सोना आशीर्वाद के रूप में देती थीं.