छिंदवाड़ा। परंपरा, किसी भी समाज और क्षेत्र की नींव होती है, यदि परंपरा खत्म हो जाती है, धीरे-धीरे समाज भी विलुप्त हो जाता है. लेकिन कुछ समाज होते है जो परंपरा को बचाने के लिए घाटे का सौदा भी कर लेते है. जिले में इसी तरह एक समाज घाटा होने पर भी अपनी परंपरा को जीवित रखे हुए है. हर साल नुकसान सहने के बाद भी परंपरा खत्म ना हो इसलिए नदी के बीचो-बीच आज भी सैकड़ों परिवार खरबूजे की खेती करते है. खरबूजे की खेती करने वाले ढीमर समाज को हर साल इस खेती से नुकसान होता है. लेकिन परंपराओं के नाम पर आज भी नदी के बीचो-बीच खरबूजा लगाने का काम जारी है.
- पीढ़ियों से करते हैं खरबूजे की खेती
कृषि क्षेत्र में भी व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा आने के बाद अब खरबूजा और तरबूज की खेती में बड़े-बड़े किसानों ने हाथ आजमाना शुरू कर दिया है. खेती नदियों से निकलकर समतल जमीनों पर होने लगी है, जिसकी वजह से ढीमर समाज के लोगों का पारंपरिक काम प्रभावित हुआ है. समाज के सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा होने लगा है. यह समाज कई पीढ़ियों से खरबूजे की खेती कर अपना भरण पोषण करता है. लेकिन प्रतिस्पर्धा के इस दौर में खरबूजे की खेती में ढीमर समाज के लोगों को नुकसान हो रहा है. नुकसान होने के बाद भी समाज के लोग इस खेती को कर रहे है.
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- कन्हान नदी में 900 परिवार लगाते हैं खरबूजे
सौंसर विधानसभा में सबसे बड़ी नदी कन्हान है. इस नदी में करीब 900 ढीमर समाज के परिवार है, जो परंपरा के नाम पर आज भी खरबूजे की खेती करते हैं. हालांकि हर साल उन्हें अब नुकसान ही होता है. इसलिए अधिकतर समाज के लोगों ने अपना व्यापार बदल दिया है और लोग अब धीरे-धीरे परंपरा को बदल रहे हैं.
- नदी के बीचो-बीच करते हैं खरबूजे की खेती
बहती हुई नदी का पानी जब जनवरी-फरवरी में कम हो जाता है, तो उस दौरान नदी के बीचो-बीच रेत में खरबूजे की खेती की जाती है. ढीमर समाज के लोगों का कहना है कि सदियों से सामाजिक परंपरा चली आ रही है. उस परंपरा को निभाने के लिए नदी में खरबूजे की खेती करते हैं, लेकिन अब समय बदल गया है और उनके सामने रोजी रोटी का संकट भी पैदा होने लगा है. दरअसल लगातार हो रहे नदियों में रेत खनन के बाद अब ढीमर समाज के लोगों को खरबूजे की खेती में नुकसान उठाना पड़ रहा है.
- रेत खनन और लॉकडाउन ने तोड़ दी कमर
अब हर नदियों से रेत का खनन आम बात हो गया है. जिसके चलते नदियों में रेत नहीं बची है. खरबूजे की खेती के लिए नदियों में जगह भी नहीं बची. कुछ जगहों में खेती की भी जा रही है, लेकिन पिछले 2 सालों से कोरोना के चलते दाम सही नहीं मिल रहे हैं. इसलिए अब खेती घाटे का सौदा होने लगी है.