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छिंदवाड़ा के रावनवाड़ा में होती है रावण की पूजा, दिवाली और दशहरा में लगता है मेला - ravana is worshiped in ravanwara of chhindwara

छिंदवाड़ा जिले में ऐसा ही एक आदिवासी गांव है, जहां पर रावण का मंदिर है और पुराने शिलालेख भी मौजूद है और रावण की याद में इस गांव का नाम भी रावनवाड़ा रखा गया है.

Ravana is worshiped in Ravanwara
रावनवाड़ा में होती है रावण की पूजा
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Published : Oct 25, 2020, 12:55 AM IST

छिंदवाड़ा। पूरे देश में दशहरा के दिन बुराई के प्रतीक रावण के पुतले का दहन किया जाता है लेकिन कई जगह ऐसी है जहां आज भी रावण को आराध्य के रुप में पूजा जाता है. छिंदवाड़ा जिले में ऐसा ही एक आदिवासी गांव है, जहां रावण का एक ऊंचे टीले पर मंदिर है. मंदिर के आसपास पड़े पुराने शिलालेख बताते है कि रावण की याद में इस गांव का नाम रावनवाड़ा पड़ा है. वहीं छिंदवाड़ा जिले के कोल माइंस इलाके में स्थित रावनवाड़ा गांव का नाम, रावण के नाम से पड़ने के पीछे पुख्ता प्रमाण तो नहीं है. लेकिन स्थानीय निवासी और रावण की पूजा करने वालों भक्तों का कहना है कि इसी गांव के जंगलों में रावण ने आकर कठोर तप किया था तब से ही गांव का नाम रावणवाड़ा के नाम से है.

रावनवाड़ा में होती है रावण की पूजा

त्रेता युग में रावण ने की थी घोर भगवान शिव की घोर तपस्या

रावनवाड़ा थाना क्षेत्र के गांव रावनवाड़ा में धार्मिक मान्यताओं के अनुसार त्रेता युग में रावण ने इसी गांव में भगवान शिव की आराधना की थी. उसी के बाद से इस गांव का नाम रावनवाड़ा भी पड़ा. कहा जाता है कि पहले इलाके में घनघोर जंगल हुआ करता था. इसी जंगल में के बीचोंबीच रावण में भगवान शिव की आराधना की और भगवान शिव ने दर्शन देकर यहीं पर उसे आशीर्वाद दिया था.

रावनवाड़ा के पास है महादेवपुरी और विष्णुपुरी

लोगों का विश्वास पुख्ता इसलिए भी होता है कि रावनवाड़ा के अगल-बगल से ही विष्णुपुरी और महादेवपुरी नाम के 2 गांव में स्थित है, जहां पर वेस्टर्न कोलफील्ड्स की कोयला खदानें संचालित होती थी. गांव के आदिवासी रावण को आराध्य देव के रूप में पूजते हैं. रावनवाड़ा के रहने वाले राजेश धुर्वे बताते हैं कि उनके ही खेत में रावण देव का मंदिर विराजित है और उनकी कई पीढ़ियों से लगातार वे रावण की पूजा करते आ रहे हैं.

दशहरा और दिवाली के दौरान लगता है मेला, बलि प्रथा का भी है रिवाज

स्थानीय लोगों का कहना है कि आदिवासी रावण को आराध्य मानते हैं, जिसके चलते दशहरा और दिवाली के बाद यहां पर मेला लगता है. इस दौरान दूर-दूर से लोग पूजा करने आते हैं और मंदिर में मुर्गे-मुर्गियां बकरे की बलि का भी रिवाज है.

बुराई के प्रतीक रावण का दशहरा के मौके पर पुतला तो हर जगह दहन किया जाता है. लेकिन बदलते समय के साथ अब आदिवासी समाज हर तरफ से इसका विरोध करने लगा है. आदिवासियों का मानना है कि रावण उनके पूर्वज है, इसलिए प्रतीकात्मक रूप से पुतले दहन पर रोक लगना चाहिए लेकिन छिंदवाड़ा का रावनवाड़ा आज भी रावण की पूजा के लिए जाना जाता है.

छिंदवाड़ा। पूरे देश में दशहरा के दिन बुराई के प्रतीक रावण के पुतले का दहन किया जाता है लेकिन कई जगह ऐसी है जहां आज भी रावण को आराध्य के रुप में पूजा जाता है. छिंदवाड़ा जिले में ऐसा ही एक आदिवासी गांव है, जहां रावण का एक ऊंचे टीले पर मंदिर है. मंदिर के आसपास पड़े पुराने शिलालेख बताते है कि रावण की याद में इस गांव का नाम रावनवाड़ा पड़ा है. वहीं छिंदवाड़ा जिले के कोल माइंस इलाके में स्थित रावनवाड़ा गांव का नाम, रावण के नाम से पड़ने के पीछे पुख्ता प्रमाण तो नहीं है. लेकिन स्थानीय निवासी और रावण की पूजा करने वालों भक्तों का कहना है कि इसी गांव के जंगलों में रावण ने आकर कठोर तप किया था तब से ही गांव का नाम रावणवाड़ा के नाम से है.

रावनवाड़ा में होती है रावण की पूजा

त्रेता युग में रावण ने की थी घोर भगवान शिव की घोर तपस्या

रावनवाड़ा थाना क्षेत्र के गांव रावनवाड़ा में धार्मिक मान्यताओं के अनुसार त्रेता युग में रावण ने इसी गांव में भगवान शिव की आराधना की थी. उसी के बाद से इस गांव का नाम रावनवाड़ा भी पड़ा. कहा जाता है कि पहले इलाके में घनघोर जंगल हुआ करता था. इसी जंगल में के बीचोंबीच रावण में भगवान शिव की आराधना की और भगवान शिव ने दर्शन देकर यहीं पर उसे आशीर्वाद दिया था.

रावनवाड़ा के पास है महादेवपुरी और विष्णुपुरी

लोगों का विश्वास पुख्ता इसलिए भी होता है कि रावनवाड़ा के अगल-बगल से ही विष्णुपुरी और महादेवपुरी नाम के 2 गांव में स्थित है, जहां पर वेस्टर्न कोलफील्ड्स की कोयला खदानें संचालित होती थी. गांव के आदिवासी रावण को आराध्य देव के रूप में पूजते हैं. रावनवाड़ा के रहने वाले राजेश धुर्वे बताते हैं कि उनके ही खेत में रावण देव का मंदिर विराजित है और उनकी कई पीढ़ियों से लगातार वे रावण की पूजा करते आ रहे हैं.

दशहरा और दिवाली के दौरान लगता है मेला, बलि प्रथा का भी है रिवाज

स्थानीय लोगों का कहना है कि आदिवासी रावण को आराध्य मानते हैं, जिसके चलते दशहरा और दिवाली के बाद यहां पर मेला लगता है. इस दौरान दूर-दूर से लोग पूजा करने आते हैं और मंदिर में मुर्गे-मुर्गियां बकरे की बलि का भी रिवाज है.

बुराई के प्रतीक रावण का दशहरा के मौके पर पुतला तो हर जगह दहन किया जाता है. लेकिन बदलते समय के साथ अब आदिवासी समाज हर तरफ से इसका विरोध करने लगा है. आदिवासियों का मानना है कि रावण उनके पूर्वज है, इसलिए प्रतीकात्मक रूप से पुतले दहन पर रोक लगना चाहिए लेकिन छिंदवाड़ा का रावनवाड़ा आज भी रावण की पूजा के लिए जाना जाता है.

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