छिंदवाड़ा। आजादी के कई ऐसे नायक हुए हैं, जिन्हें देश दुनिया बखूबी जानती है और उनका प्रचार प्रसार भी खूब किया जाता है, लेकिन कुछ ऐसी भी नायक हैं. जिन पर अब राजनीति हो रही है, लेकिन इतिहास से यह कहीं ना कहीं दूर रखे गए. एक बार फिर से सत्ता की चाहत में राजनीतिक दलों को आजादी के ऐसे आदिवासी नायक याद आ रहे हैं. जिनकी देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका रही है. जानिए ऐसे आदिवासी नायकों की वीर गाथाएं और बलिदान की कहानियां.
बादल भोई: परासिया विधानसभा क्षेत्र से करीब 17 किलोमीटर की दूरी में बादल भाई का जन्म डूंगरिया ग्राम पंचायत के तीतर गांव में गोंड परिवार में हुआ था. उनकी माता बिमला पुरानी और पिता कल्याण पुरानी थी. बदल हुई जन्मतिथि सरकारी अभिलेखों के अनुसार 1845 बताई जाती है. छिंदवाड़ा जिला अंग्रेजी हुकूमत के दौर में बेशकीमती लकड़ियों एवं कोयले के लिए प्रसिद्ध था. अंग्रेजों ने इसी प्राकृतिक संपदा के दोहन के लिए स्थानीय लोगों को मजदूर के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया. भोले-भाले आदिवासियों से 24 घंटे काम लेने अंग्रेज अनेक जुल्म ढाते थे, जिसे देख बादलभोई ने अंग्रेजों के खिलाफ मुहिम छेड़ दी. अंग्रेजों ने पहले 1865 में भारतीय वन अधिनियम बनाकर जंगलों पर कब्जा किया, इसके बाद 1878 में नए वन अधिनियम ने जंगलों में रहने वाले स्थानीय लोगों को जंगल के उपयोग को सीमित कर दिया. इस दौर में आदिवासी जल-जंगल व जमीन पर अपने अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे थे, जिनका नेतृत्व बादलभोई ने किया. 6 जनवरी 1921 को जब महात्मा गांधी छिंदवाड़ा आए, उस दौरान बादल भोई ने उनसे मुलाकात की ओर स्वतंत्रता संग्राम में वे कूद पड़े.
वनाधिकार कानून को दिखाया ठेंगा,अंग्रेजों ने जेल में जहर दिया: बादलभोई ने 21 अगस्त 1930 को जिला मुख्यालय से 45 किमी दूर रामाकोना में अंग्रेजों के वनाधिकार कानून का उल्लंघन किया और जबरन जंगल में लोगों को साथ लेकर घुस गए, व वनोपज लेकर निकले. इसी बीच अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. उन्हें अपने साथियों से अलग चांदा सेंट्रल जेल चंद्रपुर महाराष्ट्र भेज दिया गया. उनके जेल में रहने के बाद भी आदिवासियों का आंदोलन बढ़ते ही जा रहा था, जिससे देखते हुए जेल में ही बादल भोई को 1940 में खाने में जहर देकर मार दिया. बताया जाता है कि अंग्रेजों के खिलाफ लगातार आंदोलन करने पर वह अंग्रेजों की आंखों में चुभने लगे थे. उन्हें गिरफ्तार करने अंग्रेजों ने मुहिम छेड़ दी, तो बादल भोई ने परासिया से कुछ दूर गुफा में छिपकर आंदोलन को आगे बढ़ाया था. आज भी बादल भोई के परिजन गांव में निवास करते हैं.
राजा शंकरशाह कुंवर रघुनाथ शाह: 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में राजा शंकर शाह और उनके बेटे कुंवर रघुनाथ शाह ने अपने साहस से लोगों में स्वाधीनता की अलख जगाने का काम किया था. इसके चलते उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी थी. अंग्रेजी हुकूमत ने दोनों को तोपों से बांधकर उनकी निर्मम हत्या कर दी थी.
1857 की क्रांति में अंग्रेजों के छुड़ा दिए थे छक्के: 1857 की क्रांति के समय गोंडवाना में तैनात अंग्रेजों की 52वीं रेजीमेंट का कमांडर क्लार्क बेहद क्रूर था. वह इलाके के छोटे राजाओं, जमींदारों और जनता से मनमाना कर वसूलता था. क्लार्क आम लोगों को परेशान करने का कोई मौका नहीं छोड़ता था. गोंडवाना राज्य के तत्कालीन राजा शंकर शाह और उनके बेटे कुंवर रघुनाथ शाह ने क्लार्क के सामने झुकने से इनकार कर दिया. दोनों ने अंग्रेज कमांडर से लोहा लेने की ठानी. दोनों ने अपने आसपास के राजाओं को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट करना शुरू दिया. उनकी कविताओं ने लोगों के मन में विद्रोह की आग सुलगा दी. क्लार्क को राजा कुंवर शाह की कोशिशों का पता चला तो उसने साधु के भेष में कुछ गुप्तचर उनके महल में भेज दिया. गुप्तचरों ने क्लार्क को बता दिया कि दो दिन बाद छावनी पर हमला होने वाला है. इसकी वजह से हमले से पहले ही 14 सितंबर को राजा शंकर शाह और उनके बेटे को क्लार्क ने बंदी बना लिया. इसके चार दिन बाद 18 सितंबर 1857 को दोनों को अलग-अलग तोप के मुंह पर बांधकर उड़ा दिया गया था. दोनों को अंग्रेजों ने जहां बंदी बनाकर रखा था, वर्तमान में वह जबलपुर डीएफओ कार्यालय है.
टंट्या भील: टंट्या भील को आदिवासियों का रॉबिनहुड भी कहा जाता है, क्योंकि वो अंग्रेजों के भारत की जनता से लूटे गए माल को अपनी जनता में ही बांट देते थे. टंट्या भील को टंट्या मामा के नाम से भी जाना जाता है. इंदौर से लगभग 25 किलोमीटर दूर पातालपानी क्रांतिकारी टंट्या भील की कर्म स्थली है. यही वह जगह है जहां टंट्या भील अंग्रेजों की रेलगाड़ियों को तीर कामठी और गोफन के दम पर अपने साथियों के साथ रोक लिया करते थे. इन रेलगाड़ियों में भरा धन, जेवरात, अनाज, तेल और नमक लूट कर गरीबों में बांट दिया करते थे. टंट्या भील देवी के मंदिर में आराधना कर शक्ति प्राप्त करते थे और अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर आस पास घने जंगलों में रहा करते थे. टंट्या भील 7 फीट 10 इंच के थे और काफी शक्तिशाली थे, उन्होंने अंग्रेजों को थका दिया था. इतिहासकारों की मानें तो साल 1842 खंडवा जिले की पंधाना तहसील के बडदा में भाऊसिंह के घर टंट्या का जन्म हुआ था. पिता ने टंट्या को लाठी-गोफन और तीर-कमान चलाने का प्रशिक्षण दिया. टंट्या ने धर्नुविद्या के साथ-साथ लाठी चलाने और गोफन कला में भी दक्षता हासिल कर ली. युवावस्था में अंग्रेजों के सहयोगी साहूकारों की प्रताड़ना से तंग आकर वह अपने साथियों के साथ जंगल में कूद गया. टंट्या मामा भील ने आखिरी सांस तक अंग्रेजी सत्ता की ईंट से ईंट बजाने की मुहिम जारी रखी थी.
रानी कमलापति: 16वीं सदी में सलकनपुर जिला सीहोर रियासत के राजा कृपाल सिंह सरौतिया थे. उनकी बेटी का नाम कमलापति रखा गया. बचपन से ही वह बहुत बुद्धिमान और साहसी थी. शिक्षा, घुड़सवारी, मलयुद्ध, तीर कमान चलाने में उन्हें महारत हासिल थी. अनेक कलाओं से पारंगत होकर राजकुमारी कुशल प्रशिक्षण प्राप्त कर सेनापति बनी. वह अपने पिता के सैन्य बल और अपनी महिला साथी दल के साथ युद्धों में शत्रुओं से लोहा लेती थी. पड़ोसी राज्य अकसर खेत, खलिहान, धन सम्पत्ति लूटने के लिए आक्रमण किया करते थे और सलकनपुर राज्य की देखरेख करने की पूरी जिम्मेदारी राजा कृपाल सिंह सरौतिया और उनकी बेटी राजकुमारी कमलापति की थी.
16वीं सदी में भोपाल से 55 किलोमीटर दूर 750 गांवों को मिलाकर गिन्नौरगढ़ राज्य बनाया गया, जो देहलावाड़ी के पास आता है. इसके राजा सुराज सिंह शाह थे. इनके पुत्र निजामशाह थे, जो बहुत बहादुर, निडर व हर कार्य क्षेत्र में निपुण थे. उन्हीं से कमलापति का विवाह हुआ. उनको एक पुत्र प्राप्ति हुई, जिसका नाम नवल शाह था. वह बाड़ी किले के जमींदार का लड़का चैन सिंह राजा निजाम शाह का भतीजा था. वह राजकुमारी कमलापति की शादी होने के बावजूद भी अभी उससे विवाह करने की इच्छा रखता था. उसने अनेक बार राजा निजामशाह को मारने की कोशिश की, जिसमें वह असफल रहा. एक दिन उसने राजा निजामशाह को खाने में जहर देकर उनकी धोखे से हत्या कर दी. राजा निजामशाह की मौत की खबर से पूरे गिन्नौरगढ़ में खलबली हो गई. रानी कमलापति निजाम शाह की विधवा थीं, जिनके गोंड वंश ने 18वीं शताब्दी में भोपाल से लगभग 55 किमी दूर तत्कालीन गिन्नौरगढ़ पर शासन किया था. रानी कमलापति को अपने पति की हत्या के बाद अपने शासनकाल के दौरान हमलावरों का सामना करने में बड़ी बहादुरी दिखाने के लिए जाना जाता है. कमलापति "भोपाल की अंतिम हिंदू रानी" थीं, जिन्होंने जल प्रबंधन के क्षेत्र में बहुत अच्छा काम किया और पार्कों और मंदिरों की स्थापना की थी.
रानी दुर्गावती: रानी दुर्गावती हमारे देश की वो वीरांगना हैं, जिन्होंने अपने राज्य की रक्षा के लिए मुगलों से युद्ध कर वीरगति को प्राप्त हो गई. वे बहुत ही बहादुर और साहसी महिला थीं. जिन्होंने अपने पति की मृत्यु के बाद न केवल उनका राज्य संभाला बल्कि राज्य की रक्षा के लिए कई लड़ाईयां भी लड़ी. रानी दुर्गावती अपने पति की मृत्यु के बाद गोंडवाना राज्य की उत्तराधिकारी बनीं और उन्होंने लगभग 15 साल तक गोंडवाना में शासन किया. रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर सन 1524 को प्रसिद्ध राजपूत चंदेल सम्राट कीरत राय के परिवार में हुआ. इनका जन्म चंदेल राजवंश के कालिंजर किले में जोकि वर्तमान में बांदा, उत्तर प्रदेश में स्थित है, में हुआ. इनके पिता चंदेल वंश के सबसे बड़े शासक थे, ये मुख्य रूप से कुछ बातों के लिए बहुत प्रसिद्ध थे. ये उन भारतीय शासकों में से एक थे, जिन्होंने महमूद गजनी को युद्ध में खदेड़ा, वे खजुराहों के विश्व प्रसिद्ध मंदिरों जोकि मध्य प्रदेश के छत्तरपुर जिले में स्थित है.
दुर्गाष्टमी के दिन हुआ रानी दुर्गावती का जन्म: रानी दुर्गावती का जन्म दुर्गाष्टमी के दिन हुआ, इसलिए इनका नाम दुर्गावती रखा गया. इनके नाम की तरह ही इनका तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता चारों ओर प्रसिद्ध थी. रानी दुर्गावती के विवाह योग्य होने के बाद उनके पिता ने उनके विवाह के लिए राजपूत राजाओं के राजकुमारों में से अपनी पुत्री के लिए योग्य राजकुमार की तलाश शुरू कर दी. दूसरी ओर दुर्गावती दलपत शाह की वीरता और साहस से बहुत प्रभावित थी और उन्हीं से शादी करना चाहती थी. किन्तु उनके राजपूत ना होकर गोंढ जाति के होने के कारण रानी के पिता को यह स्वीकार न था. दलपत शाह के पिता संग्राम शाह थे, जोकि गढ़ा मंडला के शासक थे, वर्तमान में यह जबलपुर, दमोह, नरसिंहपुर, मंडला और होशंगाबाद जिलों के रूप में सम्मिलित है. संग्राम शाह रानी दुर्गावती की प्रसिद्धी से प्रभावित होकर उन्हें अपनी बहु बनाना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने कालिंजर में युद्ध कर रानी दुर्गावती के पिता को हरा दिया. इसके परिणामस्वरूप सन 1542 में राजा कीरत राय ने अपनी पुत्री रानी दुर्गावती का विवाह दलपत शाह से करा दिया.
रानी दुर्गावती और दलपत शाह की शादी के बाद गोंढ ने बुंदेलखंड के चंदेल राज्य के साथ गठबंधन कर लिया, तब शेर शाह सूरी के लिए यह करारा जवाब था. जब उसने सन 1545 को कालिंजर पर हमला किया था. शेरशाह बहुत ताकतवर था, मध्य भारत के राज्यों के गठबंधन होने के बावजूद भी वह अपने प्रयासों में बहुत सफल रहा, किन्तु एक आकस्मिक बारूद विस्फोट में उसकी मृत्यु हो गई. उसी साल रानी दुर्गावती ने अपने पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम वीर नारायण रखा गया. इसके बाद सन 1550 में राजा दलपत शाह की मृत्यु हो गई, तब वीर नारायण सिर्फ 5 साल के थे, रानी दुर्गावती ने अपने पति की मृत्यु के बाद अपने पुत्र वीर नारायण को राजगद्दी पर बैठा कर खुद राज्य की शासक बन गई.
मुगल सेना से की थी युद्ध,हारने से पहले ही हो गई बलिदान: रानी दुर्गावती मुगल सेना से युद्ध करते-करते बहुत ही बुरी तरह से घायल हो चुकीं थीं. 24 जून सन 1524 को लड़ाई के दौरान एक तीर उनके कान के पास से होते हुए निकला और एक तीर ने उनकी गर्दन को छेद दिया और वे होश खोने लगीं. उस समय उनको लगने लगा की अब वे ये लड़ाई नहीं जीत सकेंगी, उनके एक सलाहकार ने उन्हें युद्ध छोड़ कर सुरक्षित स्थान पर जाने की सलाह दी, किन्तु उन्होंने जाने से मना कर दिया और उससे कहा दुश्मनों के हाथों मरने से अच्छा है कि अपने आप को ही समाप्त कर लो. रानी ने अपने ही एक सैनिक से कहा कि तुम मुझे मार दो, किन्तु उस सैनिक ने अपने मालिक को मारना सही नहीं समझा. इसलिए उसने रानी को मारने से मना कर दिया, तब रानी ने अपनी ही तलवार अपने सीने में मार ली और उनकी मृत्यु हो गई. इस दिन को वर्तमान में “बलिदान दिवस” के नाम से जाना जाता है. इस प्रकार एक बहादुर रानी जो मुगलों की ताकत को जानते हुए एक बार भी युद्ध करने से पीछे नहीं हठी और अंतिम सांस तक दुश्मनों के खिलाफ लड़ाई लडती रहीं. अपनी मृत्यु के पहले रानी दुर्गावती ने लगभग 15 साल तक शासन किया.