भोपाल। 23 मई को देश में मोदी नाम की सुनामी आई और क्या राजा, क्या महाराजा सबको बहा ले गई. सियासी समंदर में लहरों का ऐसा उन्माद उमड़ा कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस के मजबूत किले भी ताश के पत्तों की तरह ढह गए और उन किलों को फतह भी ऐसे चेहरों ने किया, जो कल तक सियासत से अंजान थे. मध्यप्रदेश में कांग्रेस के दो क्षत्रपों की हार ने सबको हैरान कर दिया. एक हैं दिग्विजय सिंह और दूसरे ज्योतिरादित्य सिंधिया.
15 साल बाद सियासी पिच पर बैटिंग करने उतरे राघौगढ़ के राजा दिग्विजय सिंह को पहली ही सियासी पारी में बीजेपी की साध्वी प्रज्ञा ने क्लीन बोल्ड कर दिया. वहीं, कल तक महाराजा सिंधिया के वजीर रहे डॉक्टर केपी यादव ने गुना में सिंधिया के किले में सेंध लगा दी और सियासत में सालों से अपने सियासी दमखम का लोहा मनवा रहे ये धुरंधर एक ही झटके में धराशायी हो गये और सियासी तारीख पर एक नया अध्याय जुड़ गया.
2003 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद दिग्गी राजा ने 10 साल तक चुनाव नहीं लड़ने का अपना वादा तो पूरा किया, लेकिन ये सोचा भी नहीं होगा कि जब दोबारा इस अखाड़े में उतरेंगे तो सियासी करियर की सबसे बड़ी हार मिलेगी. वो भी उस व्यक्ति से जो पहली बार सियासी दंगल में दांव आजमा रहा था. साध्वी प्रज्ञा ने दिग्गी राजा को साढ़े तीन लाख वोटों से हराया है, जो दिग्विजय सिंह की अब तक की सबसे बड़ी हार है.
कुछ ऐसा ही हाल महाराज ज्योतिरादित्य सिंधिया का भी रहा, जहां राजतंत्र के इस झंडाबरदार को लोकतंत्र में पहली बार हार का सामना करना पड़ा. केपी यादन ने सिंधिया के गढ़ में भगवा फहराकर सिंधिया महाराज को संसद से बाहर कर दिया. संसदीय इतिहास में ऐसा पहला मौका होगा, जब देश की सबसे बड़ी पंचायत में सिंधिया परिवार की नुमाइंदगी तक नहीं होगी. हालांकि, राजा और महाराजा ने लोकतंत्र में अपनी हार को जनता का आदेश मानकर स्वीकार भी कर लिया. जिसने ये बता दिया कि लोकतंत्र में जनता का जनादेश ही सर्वोपरि है.