भोपाल। मध्यप्रदेश की 28 विधानसभा सीटें में उपचुनाव हैं. इन 28 विधानसभा सीटों पर 3 नवंबर को मतदान है. मध्यप्रदेश के ये चुनाव इसलिए भी ऐतिहासिक हैं, क्योंकि इससे पहले किसी राज्य में विधानसभा की इतनी सीटों के लिए एक साथ उपचुनाव कभी नहीं हुए.
संसद या विधानसभा की किसी भी खाली सीट के लिए उपचुनाव होना एक सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन मध्य प्रदेश की 28 विधानसभा सीटों पर होने जा रहे उपचुनाव देश के संसदीय लोकतंत्र की एक अभूतपूर्व घटना है. राज्य की 230 सदस्यीय विधानसभा में 28 सीटों के लिए यानी 12 फीसद सीटों के लिए उपचुनाव हो रहे हैं. आम तौर पर किसी भी उपचुनाव के नतीजे से किसी सरकार पर कोई खास असर नहीं होता, सिर्फ सत्तारूढ़ दल या विपक्ष के संख्याबल में कमी या बढ़ोत्तरी होती है, लेकिन मध्य प्रदेश में 28 विधानसभा सीटों के उपचुनाव से न सिर्फ सत्तापक्ष और विपक्ष का संख्या बल प्रभावित होगा, बल्कि राज्य की मौजूदा सरकार का भविष्य भी तय होगा कि वो सत्ता में रहेगी या नहीं इसलिए भी इन उपचुनावों को अभूतपूर्व कहा जा सकता है.
28 सीटों पर उपचुनाव क्यों?
मध्य प्रदेश में इतनी अधिक सीटों पर उपचुनाव सात महीने पुराने एक बड़े राजनीतिक घटनाक्रम की वजह से हो रहे हैं, इसी साल मार्च महीने में पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस से अपना 18 साल पुराना नाता तोड़कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए थे. सिंधिया के साथ कांग्रेस के 19 विधायकों ने भी कांग्रेस और विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया था. उसी दौरान तीन अन्य कांग्रेस विधायक भी पार्टी और विधानसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हो गए, इन तीन में से दो को पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का और एक विधायक को पूर्व सांसद मीनाक्षी नटराजन का समर्थक माना जाता था.
कुल 22 विधायकों के पार्टी और विधानसभा से इस्तीफा दे देने के कारण सूक्ष्म बहुमत के सहारे चल रही कांग्रेस की 15 महीने पुरानी सरकार अल्पमत में आ गई. सरकार को समर्थन दे रहे कुछ निर्दलीय, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के विधायकों ने भी कांग्रेस पर आई इस 'आपदा' को अपने लिए 'अवसर' माना और उन लोगों ने पाला बदल लिया और भाजपा को समर्थन देने का फैसला किया.
प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद भाजपा के नेता पहले दिन से दावा करते आ रहे थे कि वो जिस दिन चाहेंगे, उस दिन कांग्रेस की सरकार गिरा देंगे. उनका दावा हकीकत में बदल गया और कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई.
विधानसभा की प्रभावी सदस्य संख्या के आधार पर भाजपा बहुमत में आ गई और इसी के साथ एक बार फिर सूबे की सत्ता उसके हाथों में आ गई, इसी बीच तीन विधायकों के निधन की वजह से विधानसभा की तीन और सीटें खाली हो गईं और कांग्रेस के तीन अन्य विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया, और विधानसभा की कुल 28 सीटें खाली हो गईं.
ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ जो विधायक कांग्रेस और विधानसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हुए थे, उनमें से आधे से ज्यादा को मंत्री बना दिया गया और अन्य को सरकारी निगमों और बोर्डों का अध्यक्ष बना कर मंत्री स्तर का दर्जा दे दिया गया. खुद सिंधिया भी भाजपा की ओर से राज्यसभा सांसद बन गए.
कमलनाथ या शिवराज
मध्यप्रदेश विधानसभा की 28 खाली सीटों के लिए उपचुनाव हो रहे हैं, 230 सदस्यों वाली राज्य विधानसभा में 202 सदस्य हैं, जिनमें भाजपा के 107, कांग्रेस के 88, बसपा के दो, सपा का एक और चार निर्दलीय विधायक हैं. इस संख्या बल के लिहाज से भाजपा को 230 के सदन में बहुमत के लिए महज 9 सीटें और चाहिए, जबकि कांग्रेस को फिर से सत्ता हासिल करने के लिए उपचुनाव वाली सभी 28 सीटें जीतनी होंगी. जिन 28 सीटों पर उपचुनाव हो रहा है, उनमें से 25 सीटें तो कांग्रेस विधायकों के इस्तीफे से खाली हुई हैं, विधायकों के निधन से खाली हुई तीन सीटों में भी दो सीटें पहले कांग्रेस के पास और एक सीट बीजेपी के पास थी.
उपचुनाव वाली 28 सीटों में से 16 सीटें ग्वालियर-चंबल संभाग में हैं, जिसे ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने प्रभाव वाला इलाका बताते हैं, इसके अलावा 8 सीटें मालवा-निमाड़ अंचल की हैं, जो कि जनसंघ के जमाने से भाजपा का गढ़ रहा है, दो सीटें विंध्य इलाके की हैं और एक-एक सीट महाकौशल और भोपाल की है.
BSP भी मैदान में
मध्य प्रदेश की राजनीति में बसपा पहली बार उपचुनाव लड़ रही है, मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने के बसपा के दावे का आधार उसका अपना पुराना चुनावी रिकॉर्ड है.
उत्तर प्रदेश की पार्टी मानी जाने वाली बसपा तीन दशक पहले मध्य प्रदेश में भी एक बड़ी ताकत बन कर उभरी थी.
साल 1996 के लोकसभा चुनाव में उसने मध्य प्रदेश की दो लोकसभा सीटों पर चौंकाने वाली जीत दर्ज की थी, विंध्य इलाके की सतना सीट पर तो उसके एक युवा उम्मीदवार सुखलाल कुशवाहा ने मध्य प्रदेश के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों- कांग्रेस के अर्जुन सिंह और भाजपा के वीरेंद्र कुमार सकलेचा को हराकर जीत दर्ज की थी.
उसके बाद 1998 में मध्य प्रदेश विधानसभा में भी बसपा के 11 विधायक चुन कर आए थे और उसने पूरे चुनाव में करीब 7 फीसद वोट हासिल किए थे. बाद के चुनावों में उसका वोट प्रतिशत तो 2013 के विधानसभा चुनाव तक कमोबेश बरकरार रहा, लेकिन विधायकों की संख्या घटती गई.
साल 2018 के विधानसभा चुनाव में भी BSP ने राज्य की सभी 230 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे, लेकिन सिर्फ दो ही जीत पाए थे, उसे प्राप्त होने वाले वोटों के प्रतिशत में भी जबर्दस्त गिरावट दर्ज हुई थी.
सपाक्स भी मैदान में
बसपा के अलावा भाजपा और कांग्रेस की संभावनाओं को प्रभावित करने के लिए 2018 में विधानसभा चुनाव के समय अस्तित्व में आई सपाक्स (सामान्य, पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक कल्याण समाज) पार्टी ने भी 16 सीटों पर अपनी किस्मत आजमाई है.
सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों की इस पार्टी ने 2018 के विधानसभा चुनाव में भी 110 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे और आठ सीटों पर दूसरे और तीसरे नंबर पर रहते हुए भाजपा और कांग्रेस के उम्मीदवारों को प्रभावित किया था.
उपचुनाव के रण में शिवसेना
बसपा और सपाक्स पार्टी के अलावा शिव सेना ने भी भाजपा को सबक सिखाने के लिए मालवा-निमाड़ क्षेत्र की आठ और ग्वालियर शहर की दो सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं. मालवा-निमाड़ महाराष्ट्र की सीमा को छूता है, इस इलाके में और ग्वालियर में मराठी भाषी मतदाताओं की खासी तादाद है.
वैसे शिवसेना का मध्य प्रदेश के अधिकांश जिलों में संगठन तो है, लेकिन चुनाव मैदान में उसकी मौजूदगी कभी भी असरकारक नहीं रही है.
कुल मिलाकर राज्य की सभी 28 सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधे मुकाबले की स्थिति है, इन सीटों के नतीजों से न सिर्फ मौजूदा भाजपा सरकार का भविष्य तय होगा, बल्कि कांग्रेस से भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया के राजनीतिक प्रभाव का भी इम्तिहान है, जो कि भाजपा में उनके और उनके समर्थकों की आगे की राजनीति का सफर और भविष्य तय करेगा.