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भोपाल। क्या ये केवल कुर्सी का मोह है या मूंह तक आए निवाले के आंखों के आगे से निकल जाने का अफसोस है ये. 18 बरस की सत्ता में पार्टी के यस मैन और बेहद संतुलित नेता शिवराज सिंह चौहान ने सियासत की सांप सीढ़ी में पहले ऐसे बयान कब दिये, याद कीजिए, ज़हन पर जोर डालिए भी तो उदाहरण नहीं मिलता. शिवराज ने कहा "अपन रिजेक्टेड नहीं हैं. कुर्सी छोड़ने के बाद भी एमपी की जनता मामा मामा कर रही है..." क्या ये समांनान्तर ताकत का मुजाहिरा नहीं. उनके बेटे कार्तिकेय तो अपनी ही सरकार से लड़ने को तैयार हैं. इसके पहले ठीक इसी तरह की चुनौती कांग्रेस की सरकार में सिंधिया ने दी थी. कार्तिकेय की आवाज़ में शिवराज की ताकत है, तो क्यों हर दिन मोहन सरकार की मुसीबत बढ़ा रहे हैं शिवराज.
मामा अब मानने वाले नहीं हैं
ये एक महीना शिवराज सिंह चौहान के 18 साल पर भारी था. इस एक महीने के शिवराज भी अलग हैं, उनके बयान भी जुदा. पार्टी के संयमित और अनुशासित सिपाही शिवराज इस बेबाकी से पहले शायद कभी नहीं बोले थे. सिलसिलेवार बयानों को जोड़िए तो पीड़ा का भी एक सिक्वेंस दिखाई देगा. शिवराज के बयानो की मंशा के साथ उनकी टाइमिंग बताती है कि मामा अब मानने वाले नहीं हैं.
शिवराज पार्टी में अलग थलग पड़ गए हैं. साथ चलने वाले काफिले ने रास्ता बदल लिया है. उनके बयान में शिवराज के निशाने पर कितने अपने हैं.
अपनी ही सरकार में पेश की जा रही चुनौती...
18 साल तक सत्ता और संगठन की धूरी बने रहे शिवराज हंसते हुए कहते हैं कि अपन रिजेक्टेड नहीं है, लेकिन उनका अफसोस इस एक लाइन में भी भरपूर बाहर आ जाता है. परिवार से लेकर समाज तक नई पीढ़ी नई लकीरें ही खींचती है, जो शिवराज नहीं कह पाए वो बेटे कार्तिकय की जुबान से निकल आया.
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शिवराज के महीने भर के बयानों का सार है कि जनता ने उन्हें अस्वीकार नहीं किया. कुर्सी का मोह अपनी जगह, सत्ता से बिछोह अपनी जगह, लेकिन इन बयानों के पीछे का एजेंडा क्या है. सवाल ये है कि 18 साल के मजबूत जोड़ के साथ बैठे शिवराज के लिए विदाई इतनी मुश्किल क्यों हो रही है. क्या पूरे पांच साल मोहन यादव को इस समानान्तर ताकत का मुकाबला करना है.