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Kabir Jayanti 2021: कबीर के वो दोहे जो पाखंड को दिखाते हैं ठेंगा - पाखंड के खिलाफ कबीर के दोहे

कबीर चौराहे के कवि भी हैं, दिग्भ्रमित जनों को सही राह दिखाने वाले संत भी. दुनियावी पाखंड और अंधश्रद्धा पर सीधा प्रहार उनको एक खास मुकाम पर खड़ा करता है. तभी उनकी जयंती (Kabir Jayanti 2021) को सुधिजन आडंबर से ऊपर उठकर श्रद्धा भाव से मनाते हैं.

kabir jayanti 2021
कबीरा खड़ा बाजार
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Published : Jun 23, 2021, 1:27 PM IST

भोपाल। कबीर की पहचान उनकी दो पंक्तियों के दोहों में बसती है. जिन्हें हम 'कबीर के दोहे' (Kabir Ke Dohe) कहते हैं. कोई उन्हें संत तो कोई उन्हें कवि कहता है. इसी महान शख्सियत की जयंती (Kabir Jayanti 2021) प्रतिवर्ष ज्येष्ठ पूर्णिमा (Jyeshtha Purnima) के दिन मनाई जाती है. इस बार यह तिथि 24 जून को है. कबीर मध्यकालीन भारत के प्रथम विद्रोही संत कहे जाते हैं, उनका विद्रोह अंधविश्वास और अंधश्रद्धा के विरोध में सदैव मुखर रहा और समाज में व्याप्त ऊंच-नीच, जाति बिरादरी पर उन्होंने कठोर प्रहार किया. उनका निर्गुण भक्ति स्वरूप हमेशा से जिज्ञासा के केन्द्र में रहा है.

महात्मा कबीर के प्राकट्यकाल में समाज ऐसे चौराहे पर खड़ा था, जहां चारों ओर धार्मिक पाखंड (Kabir On Hypocrisy), जात-पात, छुआछूत, अंधश्रद्धा से भरे कर्मकांड, मौलवी, मुल्ला तथा पंडित-पुरोहितों का ढोंग और सांप्रदायिक उन्माद चरम पर था. आम जनता धर्म के नाम पर दिग्भ्रमित थी. इस पर उनका कुठाराघात बेबाक और बेलौस रहा. मध्यकाल में समाज बंटा हुआ था. अंधविश्वास, अंधश्रद्धा चरम पर थी कबीर ने इन पर निर्ममता से वार किया. तो दूसरी ओर उस काल में भारतीय समाज में विभिन्न धर्मों और समाज के मेल-जोल का मार्ग दिखाया.

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प्रस्तुत हैं कुछ दोहे जो (Kabir Ke Dohe) साबित करते हैं कि चौराहे पर खड़े इस संत ने पूरे मान और शान से अपनी बात को रखा और सीधे उस परमात्मा की आंखों में आंखें डालकर अपनी बात कही. (Kabir Jayanti 2021)

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥

माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर ।
कर का मन का डा‍रि दे, मन का मनका फेर॥


माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुख माहि ।
मनुआ तो चहुं दिश फिरे, यह तो सुमिरन नाहि ॥

पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजू पहाड़ ।
घर की चाकी कोई ना पूजे, जाको पीस खाए संसार ॥

कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय।

ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।।

कहै हिन्दु मोहि राम पिआरा, तुरक कहे रहिमाना।

आपस में दोऊ लरि-लरि मुए, मरम न कोऊ जाना।।

कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर॥

सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनाई।

धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाई॥

काजी तुम कौन कितेब बखानी, झंखत बकत रहहु निशि बासर,

मति एकऊ नहीं जानी दिल में खोजी देखि खोजा दे बिहिस्त कहां से आया?

कुल मिलाकर कबीर (Kabir Couplets)आज भी दहकते अंगारे हैं. वो कल कल बहती जलधारा भी हैं और भारतीय मनीषा के भूगर्भ के फौलाद भी. जिसके चोट से ढोंग, पाखंड और धर्मांधता चूर-चूर हो जाती है. कबीर भारतीय संस्कृति का वह हीरा है जिसकी चमक कभी मलीन नहीं पड़ती.

भोपाल। कबीर की पहचान उनकी दो पंक्तियों के दोहों में बसती है. जिन्हें हम 'कबीर के दोहे' (Kabir Ke Dohe) कहते हैं. कोई उन्हें संत तो कोई उन्हें कवि कहता है. इसी महान शख्सियत की जयंती (Kabir Jayanti 2021) प्रतिवर्ष ज्येष्ठ पूर्णिमा (Jyeshtha Purnima) के दिन मनाई जाती है. इस बार यह तिथि 24 जून को है. कबीर मध्यकालीन भारत के प्रथम विद्रोही संत कहे जाते हैं, उनका विद्रोह अंधविश्वास और अंधश्रद्धा के विरोध में सदैव मुखर रहा और समाज में व्याप्त ऊंच-नीच, जाति बिरादरी पर उन्होंने कठोर प्रहार किया. उनका निर्गुण भक्ति स्वरूप हमेशा से जिज्ञासा के केन्द्र में रहा है.

महात्मा कबीर के प्राकट्यकाल में समाज ऐसे चौराहे पर खड़ा था, जहां चारों ओर धार्मिक पाखंड (Kabir On Hypocrisy), जात-पात, छुआछूत, अंधश्रद्धा से भरे कर्मकांड, मौलवी, मुल्ला तथा पंडित-पुरोहितों का ढोंग और सांप्रदायिक उन्माद चरम पर था. आम जनता धर्म के नाम पर दिग्भ्रमित थी. इस पर उनका कुठाराघात बेबाक और बेलौस रहा. मध्यकाल में समाज बंटा हुआ था. अंधविश्वास, अंधश्रद्धा चरम पर थी कबीर ने इन पर निर्ममता से वार किया. तो दूसरी ओर उस काल में भारतीय समाज में विभिन्न धर्मों और समाज के मेल-जोल का मार्ग दिखाया.

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प्रस्तुत हैं कुछ दोहे जो (Kabir Ke Dohe) साबित करते हैं कि चौराहे पर खड़े इस संत ने पूरे मान और शान से अपनी बात को रखा और सीधे उस परमात्मा की आंखों में आंखें डालकर अपनी बात कही. (Kabir Jayanti 2021)

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥

माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर ।
कर का मन का डा‍रि दे, मन का मनका फेर॥


माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुख माहि ।
मनुआ तो चहुं दिश फिरे, यह तो सुमिरन नाहि ॥

पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजू पहाड़ ।
घर की चाकी कोई ना पूजे, जाको पीस खाए संसार ॥

कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय।

ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।।

कहै हिन्दु मोहि राम पिआरा, तुरक कहे रहिमाना।

आपस में दोऊ लरि-लरि मुए, मरम न कोऊ जाना।।

कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर॥

सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनाई।

धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाई॥

काजी तुम कौन कितेब बखानी, झंखत बकत रहहु निशि बासर,

मति एकऊ नहीं जानी दिल में खोजी देखि खोजा दे बिहिस्त कहां से आया?

कुल मिलाकर कबीर (Kabir Couplets)आज भी दहकते अंगारे हैं. वो कल कल बहती जलधारा भी हैं और भारतीय मनीषा के भूगर्भ के फौलाद भी. जिसके चोट से ढोंग, पाखंड और धर्मांधता चूर-चूर हो जाती है. कबीर भारतीय संस्कृति का वह हीरा है जिसकी चमक कभी मलीन नहीं पड़ती.

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