भोपाल। गुलाम दस्तगीर नाम था उनका. भोपाल रेलवे स्टेशन पर असिस्टेंट स्टेशन सुपरिटेंडेट की ड्यूटी पर थे. दो दिसंबर 1984 रात भी वो रोज की तरह ड्यूटी ही कर रहे थे, लेकिन उस दिन उनकी ड्यूटी का दायरा बहुत बड़ा हो गया था. इटारसी विदिशा में ही ट्रेनें रुकवा देते हैं, लेकिन गोरखपुर बाम्बे एक्सप्रेस इस बीच प्लेटफार्म पर आ खड़ी होती है. मुसाफिरों को बचाते-बचाते अब सुबह हो रही है.....और ड्यूटी खत्म करते दस्तगीर स्टेशन पर ही लड़खड़ा कर गिर गए हैं. वो स्टेशन से घर जा सकते थे... नहीं गए....वो मुसाफिरों के बजाए अपने मासूम बच्चों की जिंदगी को बचाने दौड़ सकते थे...नहीं गए........लेकिन गुलाम दस्तगीर ने पिता से पहले इंसानियत का फर्ज निभाया.....पर क्या ये फर्ज उनकी सबसे बड़ी भूल थी.
भोपाल रेल्वे स्टेशन पर असिस्टेंट स्टेशन सुपरिटेंडेट की ड्यूटी पर थे दो दिसम्बर 1984 रात भी वो इटारसी विदिशा में ही ट्रेनें रुकवा देते हैं. लेकिन गोरखपुर बाम्बे एक्सप्रेस इस बीच प्लेटफार्म पर आ खड़ी होती है. रोज की तरह ड्यूटी ही कर रहे थे, लेकिन उस दिन उनकी ड्यूटी का दायरा बहुत बड़ा हो गया था. रेलवे की नौकरी में उस रात ने गुलाम दस्तगीर का सबसे मुश्किल इम्तेहान लिया था. रात 12 बजे के लगभग गुलाम दस्तगीर ड्यूटी पर आते हैं. पंद्रह मिनिट बाद ही यूनियन कार्बाइड से रिसी गैस के बाद हालात बिगड़ने लगते हैं. रेलवे स्टेशन पर जाड़े का नहीं मिक गैस का धुंध छाने लगता है. कागजों में उलझे दस्तगीर जब स्टेशन पर आते हैं, तो समझ नहीं पाते कि उनका दम क्यों घुट रहा है. बहुत जल्द मालूम भी चल जाता है कि ये धुंध असल में जहर है..जो सांसों में घुलकर मौत दे रहा है. गुलाम दस्तगीर वक्त जाया नहीं करते. इटारसी विदिशा में ही ट्रेनें रुकवा देते हैं. लेकिन गोरखपुर बाम्बे एक्सप्रेस इस बीच प्लेटफार्म पर आ खड़ी होती है.
वो पांच मिनिट...और सैकड़ों जानें: पच्चीस मिनिट का हॉल्ट है, गोरखपुर बाम्बे ट्रेन का. गुलाम दस्तगीर ड्राइवर से कहते हैं, ले जाओ इस ट्रेन को यहां से...ड्राइवर ऊपर का आदेश मांगता है. गुलाम दस्तगीर अपनी रिस्क पर इंटेंट पर लिखकर देते हैं. गार्ड तैयार नहीं होता उसे कहते हैं, कुछ हुआ तो मेरी जिम्मेदारी वक्त जाया मत करो ट्रेन को जाने दो. पच्चीस मिनिट रुकने वाले ट्रेन पांच मिनिट के भीतर रवाना हो जाती है. एक नंबर प्लेटफार्म से तीन नंबर प्लेटफार्म पर भाग रहे गुलाम दस्तगीर को इत्मीनान होता है कि सैकड़ों यात्री महफूज कर लिए मैंने...लेकिन ऑक्सीजन के साथ उनके जिस्म में जा रही मिथाइल आईसोसाइनेट उन्हें तसल्ली की सांस नहीं लेने देती....मुसाफिरों को बचाते-बचाते अब सुबह हो रही है.....और ड्यूटी खत्म करते दस्तगीर स्टेशन पर ही लड़खड़ा कर गिर गए हैं.....वो ड्यूटी छोड़कर स्टेशन से घर जा सकते थे...नहीं गए....वो मुसाफिरों में अपने मासूम बच्चों का चेहरा देख सकते थे, नहीं देखा, लेकिन गुलाम दस्तगीर ने पिता से पहले इंसानियत का जो फर्ज निभाया. क्या ये फर्ज उनकी भूल थी, क्योंकि उस रात के बीत जाने के बाद भी गुलाम दस्तगीर की जिंदगी में सुबह तो नहीं आई फिर कभी.
पापा यात्रियों की जिंदगी बचा रहे थे...बच्चे मौत से भाग रहे थे: गुलाम दस्तगीर के बेटे शादाब दस्तगीर की आंखों में वो रात आज भी एक-एक लम्हे के साथ उतर आती है. बताते हैं हम अपनी मां के सथ घर के अंदर थे. ऐसा लग रहा था कि किसी मिर्ची के गोडाउन में आग लग गई है. पापा स्टेशन पर लोगों को बचा रहे थे. उनके अपने बच्चे मां को लिए भाग रहे थे. हमें गैस ने असर किया था, लेकिन हमारी एक फिक्र थी पापा कैसे हैं कहां होंगे. उनको ढूंढना शुरु किया. उस समय टेलीफोन मोबाईल होते नहीं थे. हम ओल्ड सिटी में रहते थे.
मैं मेरे तीन भाई हम उन्हें ढूंढते रहे, कोई खबर नहीं मिली. आखिरी में मैं रेलवे स्टेशन पहुंचा. शादाब बताते हैं मैं आठवीं क्लास में था, सबसे छोटा और मां से छिपकर पापा को देखने पहुंचा था. शादाब कहते हैं, वहां पता चला कि पापा छह-सात बजे तक थे, फिर उन्हें एंबुलेंस में डालकर ले जाया गया. सबसे बड़े अस्पताल ले गए, बस इतना पता चला मैं अंदाजे से हमीदिया अस्पताल पहुंच गया. वहां सड़क के दोनों तरफ लाशों का ढेर था. पेशानी पर नंबरों के पर्चियां लगी थी पहचान के नाम पर. इनमें अपने पापा को ढूंढना था मुझे....पापा नहीं मिले और हम घर जाकर उनकी वापिसी की दुआ करने लगे.
दरवाजे की दस्तक...और जिंदगी बदल गई फिर: जिस वक्त अमूमन पापा के घर लौटने का समय होता था, सुबह नौ बजे...उससे कुछ देरी से पापा लौटे. शादाब कहते हैं, उनकी आंखे इतनी सूजी थी कि चिक बोन तक आंखे बंद थी. पापा लड़खड़ा रहे थे. चल नहीं पा रहे थे. सोचिए जरा एक इतनी बुलंद शख्सियत जो पूरी रात जहर पीते हुए हजारों लोगों की जिंदगी बचाता रहा. उन्होंने हिम्मत तो अब भी नहीं छोड़ी, लेकिन शरीर को गैस ने बहुत ज्यादा हार्म कर दिया था. पापा उस रात के बाद 19 साल जिंदा रहे...लेकिन उस एक रात का खामियाजा हमारे परिवार ने हर पल भुगता है. अच्छी खासी पढ़ाई भाई की छूटी. पापा के ईलाज के लिए हम दर-दर भटकते रहे. यूं समझिए वो रात भारी पड़ गई हमको.
उस खौफनाक रात का हीरो सुबह जीरो हो गया: शादाब की आंखे भर आती हैं ये कहते हुए. पापा लौट सकते थे. घर आ सकते थे. बच्चों की परवाह कर सकते थे. उन्होंने बीवी बच्चों को छोड़कर दुनिया को बचाने की फिक्र की. ये गलती थी शायद उनकी क्योंकि एक रात का वो हीरो तो सुबह जीरो कर दिया गया. कोई पलटकर नहीं आया, गुलाम दस्तगीर को देखा हीरो नहीं वो भी केवल एक गैस पीड़ित ही थे. तीस पैंतीस हजार जो सबको मुआवजा मिला उन्हें भी मिला.
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मुझे याद है पापा ने मना करने के बावजूद मैंने उनकी ब्रेवरी को लेकर राष्ट्रपति जी को चिट्ठी लिखी थी. उस टाइम जवाब आता है कि हमने इसको मिनिस्ट्री ऑफ रेलवे को फारवर्ड कर दिया, ये रेलवे का नहीं था स्टेट गर्वमेंट का मामला था. एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे में पहुंचाया जाते रहे. नायक विक्टिम बनकर रह गया. शादाब कहते हैं. बीवी बच्चे नौकरी सब ताक पर रख दिया था पापा ने....लोगों की जिंदगियां बचाने.....लेकिन क्या हुआ गैस विक्टिम की मौत ही गए.....इस हीरो को रोटरी क्लब को छोड़कर कभी कहीं सम्मानित नहीं किया. उनके डेथ सर्टिफिकेट में लिखा है लंग्स सीवियरली इफेक्ट बाय एमआईसी.