भिंड। सन् 1857 में हुए भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति का गवाह चम्बल अंचल भी रहा है. यह वह इलाका है, जहां इस क्रांति के लिए ग्वालियर को केंद्र बनाया गया. अंग्रेजी हुकूमत की गुलामी वाले भारत मे भी अंचल के भिंड जिले के लोगों ने उस आंदोलन की नायिका रहीं झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का पूरा साथ दिया था. भिंड जिला उस स्वर्णिम इतिहास का गवाह है.
युमना से नर्मदा तक के क्षेत्र की जिम्मेदारी : इतिहासकार और एडवोकेट देवेंद्र सिंह चौहान ने इतिहास के पन्ने पलटते हुए बताया कि, 1857 की क्रांति में सिर्फ किसी अकेले नेता का महत्व नही है. उस दौर में सर्वोच्च नेता नाना साहब की देखरेख में उत्तर प्रदेश के कानपुर में जो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का हेडक्वार्टर था. वहां संगठन खड़ा किया गया था कि इस युद्ध को संचालित करना है. सबकी भूमिकाएं तय की गई थीं. इसमें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को यमुना के उत्तर से नर्मदा तक का क्षेत्र दिया गया था.
आजादी की लड़ाई में भिंड का अहम रोल यहां तय हुआ था कि क्रांति का केंद्र बनेगा ग्वालियर : कालपी में अंग्रेजों से युद्ध के बाद यह तय किया गया कि अब मध्य भारत में क्रांति का केंद्र बनाना है. इस क्रांति की नायिका रानी लक्ष्मीबाई अपनी बची हुई सेना के साथ निकलीं. उनके साथ ग्वाला साहब जो नाना साहब के भाई थे और इस क्षेत्र के सभी कॉमरेड्स भिंड से लगे गोपालपुरा में इकट्ठा हुए चम्बल घाटी के इस क्षेत्र को पचनद कहा जाता है. 26 मई 1858 को सभी गोपालपुरा पहुँचे. एक बैठक कर यह विचार मंथन हुआ कि अब हमें ग्वालियर पर अधिकार करना है. क्योंकि ग्वालियर पर अब तक अंग्रेजों का ध्यान नही है. क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी समझती है कि ग्वालियर शक्तिशाली है और सुरक्षित है. इसलिए यहीं पर रानी लक्ष्मीबाई ने देश की आजादी के लिए ग्वालियर को क्रांति का केंद्र बनाने और उस पर अधिकार करने का निर्णय लिया. साथ ही सारी शक्तियों को इकट्ठा करने की बात कही.
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 की क्रांति भिंड में तय हुई रणनीति : गोपालपुरा से यह टोली भिंड के लिए रवाना हुई. बची हुई सेना के साथ झांसी की रानी मिहोना होते हुए भिंड के इंदुर्खी गांव पहुँची थीं और रात्रि विश्राम भी वहीं किया था. यहीं भिंड के सभी क्रांतिवीर इकट्ठा हुए आगे की रणनीति तय की गई बताया जाता है कि भिंड के क्रांतिकारी चिमनाजी ने भी रानी लक्ष्मीबाई के साथ इस आंदोलन में भाग लिया था. उस दौरान भिंड जिले के एक लाख से ज्यादा लोगों ने लक्ष्मीबाई का साथ दिया था. चिमना जी के बेटे दौलतसिंह ने ही खुफिया रास्तों के जरिए अमायन, सुपावली, बड़ागांव मुरार होते हुए झांसी की रानी को ग्वालियर पहुचाया था .
भिंड के असंख्य युवा हुए थे युद्ध मे शामिल : इतिहासकार देवेंद्र चौहान के मुताबिक भिंड जिले के जिस क्षेत्र से वे गुज़री उस क्षेत्र के तमाम लोग उनके साथ इस आंदोलन में जुड़ते गए, क्योंकि लाखों की सेना से लड़ने के लिए चंद सिपाही पर्याप्त नही थे. भिंड के जिस गांव से उनका कारवां गुज़रा वहां के असंख्य युवा उनके साथ चलते गए उनका कारवां मुरार से 3 किलोमीटर दूर रुका. उनके सामने ग्वालियर के महाराजा जीवाजी राव अपनी सेना के साथ खड़े थे. सारी मराठा सेना सामने थी. जैसे ही पता चला कि उनके सामने लक्ष्मीबाई और ग्वाला साहिब नाना साहेब के भाई है तो ग्वालियर की आधी फौज क्रांति सेना के साथ खड़ी हो गयी. क्योंकि मराठाओं में पेशवा लक्ष्मीबाई सबसे अपर कास्ट की है और आम मराठा उनके प्रति सम्मान रखता और ग्वाला साहेब को सामने देख उनके सम्मान में उनका साथ देने पहुंच गए और जल्द ही लक्ष्मीबाई की सेना ने ग्वालियर के तोपखाने पर कब्जा कर ग्वालियर पर अधिकार कर लिया.
18 दिन तक रहा था ग्वालियर पर लक्ष्मीबाई का अधिकार : युद्ध में क्रांति सेना ने 1 जून 1858 को ग्वालियर पर जीत हासिल की थी. इस युद्ध मे जीत के बाद दौलत सिंह अपनी सेना के साथ सकुशल वापस भिंड लौट आये थे. जबकि उनके पिता चिमनाजी गंभीर घायल हुए थे और अमायन के राजा भगवंत सिंह शहीद हो गए थे. हालांकि, बाद में ग्वालियर पर करीब 18 दिन तक रानी लक्ष्मीबाई का अधिकार रहा .और फिर18 जून 1858 को रानी लक्ष्मीबाई ने भी अंग्रेजों से लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त किया.
अंतिम सांस ले रही झांसी की रानी ने पुजारी से लिए थे दो वचन, जानिए क्यों ?क्रांतिवीरों के सामूहिक निर्णय : इतिहासकार एड. देवेंद्र सिंह चौहान कहते हैं कि 1857 का प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन किसी एक नायक के बलबूते नही था, और नाही किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा पूरा हो सकता था, इस क्षेत्र के भिंड और इटावा और आसपास के क्षेत्रों की शक्तियां या कहे नाना साहब के फॉलोवर थे जो पहले से ही इस क्रांति योजना में सम्मिलित थे उनका समूहिक निर्णय था जो प्रथम क्रांति का स्वर्णिम इतिहास बना.
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