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पर्यटन संपदाओं से भरा भिंड, फिर भी वीरान

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Published : Apr 20, 2021, 8:17 PM IST

Updated : Apr 28, 2021, 4:21 PM IST

एमपी का भिंड जिला कहने को तो विरासत को समेटे हुए है लेकिन फिर भी प्रशासन की अनदेखी और पुरातत्व विभाग की लापरवाही के चलते पर्यटन के लिहाज से काफी पिछड़ा हुआ है. ऐसे में भिंड विकास की राह तक रहा है.

गुमनामी में भिंड
गुमनामी में भिंड

भिंड। चम्बल अंचल का भिंड जिला भिंडी ऋषि की तपोभूमि कहलाती है. यह वह क्षेत्र है, जिसका नाता और पहचान बागी और बीहड़ों से होता है. हालांकि सच्चाई इसके विपरीत है. इसके अलावा भिंड क्षेत्र ऐतिहासिक धरोहरें (Historical Heritage) और इतिहास को अपने आंचल में समेटे हुए है. सदियों पुराने मंदिर, हेरिटेज फोर्ट (Heritage Fort) और प्राकृतिक संपदाओं का गवाह भिंड आज भी विकास से कोसों दूर (Far from development) है. आखिर क्या वजह है की इस क्षेत्र को वह पहचान नहीं मिली जो सकारात्मक रूप से इसके विकास में मील का पत्थर साबित हो सकती थी. आइए नजर डालते हैं पर्यटन (Tourism) से अछूते भिंड पर ईटीवी भारत के विश्लेषण के जरिए...

पुरातत्व विभाग कर रहा लापरवाही.

इतिहास के पन्नों में दर्ज है भिंड
साल 1948 में जब मध्यभारत का गठन हुआ. उस समय बनाए गए 16 जिलों में से भिंड जिला भी शामिल था. हालांकि बाद में राज्यों के पुनर्गठन में यह साल 1956 में मध्यप्रदेश राज्य का हिस्सा बना. भिंड का इतिहास सदियों पुराना है. कहा जाता है कि भिंडी ऋषि के नाम पर इस क्षेत्र का नाम भिंड पड़ा था. इतिहास कहता है कि शुंग, मौर्य, नंद, कुषाण, गुप्त, हूण, गुर्जर, प्रतिहार, कछवाहा, सूर, मुगल आदि शासकों का भिंड में काफी समय तक शासन रहा. 18वीं शताब्दी में सिंधिया शासकों द्वारा अधिकार में किए जाने से पहले भिंड भदौरिया चौहान राजपूतों का क्षेत्र था, जिसकी वजह से इतिहास पन्नों में भिंड को कई ऐतिहासिक धरोहर सौगात में मिली हैं.

भिंड की शान है अटेर किला
भिंड जिले में एक नहीं बल्कि दो बेहद खूबसूरत और ऐतिहासिक दुर्ग हैं, पहला गोहद का किला और दूसरा अटेर के देवगिरी पर्वत पर निर्मित देवगिरी दुर्ग जिसे अटेर किले के नाम से भी जाना जाता है. दोनों ही किले जिले की शान हैं. देख-रेख के अभाव में आज दोनों ही दुर्ग खंडहर में तब्दील हो रहे हैं. अटेर किले का इतिहास सदियों पुराना है. मध्यप्रदेश के छोर पर बना भिंड का अटेर किला कभी अपनी शानों-शौकत के लिए मशहूर था. अटेर के किले का निर्माण भदौरिया राजा बदन सिंह ने 1664 ईसवी में शुरू करवाया था. भदौरिया राजाओं के नाम पर ही भिंड क्षेत्र को पहले "बधवार" कहा जाता था. गहरी चंबल नदी की घाटी में स्थित ये किला भिंड जिले से करीब 35 किलोमीटर पश्चिम में है.

खंडहर में तब्दील होता देवगिरी दुर्ग
अटेर किला खुद में सैकड़ों किवदंतियां, कई सौ किस्से और न जाने कितने ही रहस्य को छुपाए हुए आज भी आन बान से खड़ा है. महाभारत में जिस देवगिरी पहाड़ी का उल्लेख आता है ये किला उसी पहाड़ी पर है. इसका मूल नाम देवगिरी दुर्ग है. कई इतिहास संजोए अटेर का किला, मरम्मत और देखभाल के अभाव में खंडहर में तब्दील होता जा रहा है. अटेर किले में एक के बाद एक महल और कलात्मक चित्रों की श्रृंखला उपेक्षा के चलते अस्तित्व खोते जा रहे हैं. बताया जाता है कि किले की प्राचीर से कभी भदावर वंश की विजय पताका फहराया करती थी. चंबल नदी से दो किलोमीटर दूर उत्तरी किनारे पर स्थित अटेर किले का इतिहास करीब 400 साल पुराना बताया जाता है. खजाने की चाह में लोगों ने अटेर दुर्ग के तलघर और दीवारों को बेहिसाब नुकसान पहुंचाया है. स्थानीय लोगों के मुताबिक अधिकारियों की लगातार अनदेखी और उपेक्षा के चलते किला अपना अस्तित्व खोने की कगार पर है.

पर्यटकों की भारी कमी झेल रहा गोहद फोर्ट
कुछ ऐसे ही हाल गोहद किले का भी है. इस किले का निर्माण 16वीं सदी में हुआ था. किला दो भागों में बना है, पहला पुराना किला और दूसरा नया महल. पुराने किले का निर्माण 1739 ई. में जाट राजा भीमसिंह ने करवाया था. वहीं नए महल का निर्माण जाट राजा छत्रपति सिंह द्वारा कराया गया था. किले पर अधिकांशतः जाट एवं भदावर राजाओं और फिर मराठों का अधिकार रहा है. वर्तमान में पुराना किला एवं नयामहल मध्य प्रदेश सरकार के पुरातत्व विभाग के अधीन है.

प्राचीन मंदिरों का भी नहीं प्रचार-प्रसार
भिंड में इन किलों के अलावा 11वीं सदी के प्रसिद्ध और प्राचीन मंदिर भी हैं, जिनमें 11वीं सदी का वनखंडेश्वर महादेव मंदिर जिसका निर्माण खुद महाराजा प्रथ्विराज चौहान ने कराया था. इसके अलावा दंदरौआ धाम के नाम से प्रसिद्ध 800 साल पुराना डॉक्टर हनुमान का मंदिर प्रमुख है. इन दोनों ही मंदिरों में लाखों श्रद्धालु दर्शन करने पहुंचते हैं. भिंड में 100 से अधिक शिव के मंदिर हैं. वहीं कुछ प्राचीन मंदिर ऐसे भी हैं, जो इतिहास के गुमनाम पन्नों में खो गए हैं. भिंड का नाता महाभारत काल से जुड़ा रहा है. अटेर के देवगिरी पर्वत के अलावा एक प्राचीन शिव मंदिर भी भिंड नीले में मौजूद है. इस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना खुद पांडवों में से महाबली भीम ने की थी. यहां स्थापित शिवलिंग अपने आप में अनूठा और विश्व का एक मात्र ऐसा शिवलिंग है जो गोलाकार ना होकर अष्टकोणीय है. यह मंदिर मुख्यालय से 40 किलोमीटर उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे पांडरी गांव में स्थिति है. यह मंंदिर भी गुमनामी में खो चुका है. कुछ ऐसे ही हाल बौरेश्वर धाम का है.

मंदिर पर चावल चढ़ाने की है परंपरा
भिंड जिला मुख्यालय से करीब 20 किमी दूरी पर स्थिति प्राचीन भुवनेश्वर धाम क्षेत्र का बौरेश्वर धाम शिव मंदिर काफी प्रसिद्ध है. कहने को यह मंदिर पुरातत्व विभाग के अधीन है. बावजूद इसके आज भी यहां देख-रेख की कमी है. प्रचार-प्रसार न होने से यह मंदिर श्रद्धालुओं से वंचित है. इस मंदिर को लेकर भी कई मान्यताएं हैं. जिनमें से एक मान्यता यह भी है कि मंदिर में बने शिवलिंग पर प्रसाद के साथ चावल चढ़ाया जाता है लेकिन आज तक कोई चावलों से शिवलिंग को ढक नहीं सका है. सैकड़ों साल पहले कई राजाओं ने उस मंदिर के शिवलिंग को सैकड़ों क्विंटल चावल से ढकने की कोशिश की. फिर भी शिवलिंग कभी पूरा नहीं ढक सका.

किसी को नहीं पता कितना पुराना है शिवलिंग
मंदिर के पुजारी कहते हैं कि उनकी कई पीढ़ियां बौरेश्वर महादेव की सेवा करती आयी हैं लेकिन यह किसी को नहीं पता है कि यह मंदिर कितना पुराना है. इस मंदिर की मरम्मत की एक छाप मंदिर पर बनी हुई है, जिसे पुरातत्व विभाग के अनुसार 14वीं सदी में मरम्मत कार्य होना बताया गया है. पुजारी अनूप गोस्वामी का कहना है कि इस मंदिर में दूर-दूर से लोग अपनी मनोकामनाएं लेकर आते हैं.

मौरछठ, शिवरात्रि, सावन तक सीमित श्रद्धालु
महाशिवरात्रि के पर्व पर हजारों की संख्या में कांवड़िये जल चढ़ाने महादेव के मंदिर में आते हैं. सावन में तो मंदिर पर आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या लाखों तक पहुंच जाती है. मौरछठ पर भी जिले भर से और आसपास के जिलों से लोग बौरेश्वर धाम पर बने तालाब में अपने बच्चों की शादी के मौर सिराने आते हैं. इसके बाद श्रद्धालु नहीं आते हैं.

पब्लिक ट्रांसपोर्ट की कमी
बौरेश्वर धाम मंदिर जिले के अटेर क्षेत्र में आता है. मंदिर तक पहुंचने के लिए कोई भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट नहीं है. ऐसे में यहां आने वाले लोगों को अपने निजी वाहनों से आना पड़ता है. साथ ही पुरातत्व विभाग द्वारा कोई खास प्रचार-प्रसार मंदिर को लेकर नहीं किया जाता है.

फंड की कमी और अनदेखी से हाल बदहाल
इतना सब कुछ होने के बाद भी भिंड पर्यटन के लिहाज से पिछड़ा है, जिसके कई कारण हैं. जिला पर्यटन इकाई के सदस्य अशोक तोमर कहते हैं कि भिंड चहुंओर पर्यटन संपदाओं से घिरा है लेकिन प्रशासन और जनप्रतिनिधियों की अनदेखी की वजह से यहां कभी पर्यटन को बढ़ावा नहीं मिला. न तो प्रशासन ने कभी पर्यटन को लेकर कोई विशेष प्रयास किए और न ही प्रचार-प्रसार किये. अशोक तोमर कहते हैं कि यहां शासन-प्रशासन में बैठे लोगों की मंशा ही नहीं है कि क्षेत्र पर्यटन की ओर अग्रसर हो. उन्होंने बताया कि कार्य योजना तैयार होती है लेकिन बजट नहीं मिलता. वहीं दूसरी बड़ी कमी है सुविधाएं. यहां मूलभूत सुविधाओं का आभाव है. वहीं पर्यटन को लेकर जब जिला कलेक्टर से बात की जाती हैं तो वहां से भी कोई उचित जवाब नहीं मिलता है.

पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए आप जैसे मीडिया बंधु आगे आएं. खबरों के माध्यम से लोगों को जानकारी उपलब्ध कराएं, जिससे लोग उन स्थानों के बारे में जानेंगे और पहुंचेंगे. इससे धीरे-धीरे यह क्षेत्र स्टेट लेवल और नेशनल लेवल पर पहुंचेगा. मीडिया प्रशासन का सहयोग करे.

सतीश कुमार एस, कलेक्टर

भिंड। चम्बल अंचल का भिंड जिला भिंडी ऋषि की तपोभूमि कहलाती है. यह वह क्षेत्र है, जिसका नाता और पहचान बागी और बीहड़ों से होता है. हालांकि सच्चाई इसके विपरीत है. इसके अलावा भिंड क्षेत्र ऐतिहासिक धरोहरें (Historical Heritage) और इतिहास को अपने आंचल में समेटे हुए है. सदियों पुराने मंदिर, हेरिटेज फोर्ट (Heritage Fort) और प्राकृतिक संपदाओं का गवाह भिंड आज भी विकास से कोसों दूर (Far from development) है. आखिर क्या वजह है की इस क्षेत्र को वह पहचान नहीं मिली जो सकारात्मक रूप से इसके विकास में मील का पत्थर साबित हो सकती थी. आइए नजर डालते हैं पर्यटन (Tourism) से अछूते भिंड पर ईटीवी भारत के विश्लेषण के जरिए...

पुरातत्व विभाग कर रहा लापरवाही.

इतिहास के पन्नों में दर्ज है भिंड
साल 1948 में जब मध्यभारत का गठन हुआ. उस समय बनाए गए 16 जिलों में से भिंड जिला भी शामिल था. हालांकि बाद में राज्यों के पुनर्गठन में यह साल 1956 में मध्यप्रदेश राज्य का हिस्सा बना. भिंड का इतिहास सदियों पुराना है. कहा जाता है कि भिंडी ऋषि के नाम पर इस क्षेत्र का नाम भिंड पड़ा था. इतिहास कहता है कि शुंग, मौर्य, नंद, कुषाण, गुप्त, हूण, गुर्जर, प्रतिहार, कछवाहा, सूर, मुगल आदि शासकों का भिंड में काफी समय तक शासन रहा. 18वीं शताब्दी में सिंधिया शासकों द्वारा अधिकार में किए जाने से पहले भिंड भदौरिया चौहान राजपूतों का क्षेत्र था, जिसकी वजह से इतिहास पन्नों में भिंड को कई ऐतिहासिक धरोहर सौगात में मिली हैं.

भिंड की शान है अटेर किला
भिंड जिले में एक नहीं बल्कि दो बेहद खूबसूरत और ऐतिहासिक दुर्ग हैं, पहला गोहद का किला और दूसरा अटेर के देवगिरी पर्वत पर निर्मित देवगिरी दुर्ग जिसे अटेर किले के नाम से भी जाना जाता है. दोनों ही किले जिले की शान हैं. देख-रेख के अभाव में आज दोनों ही दुर्ग खंडहर में तब्दील हो रहे हैं. अटेर किले का इतिहास सदियों पुराना है. मध्यप्रदेश के छोर पर बना भिंड का अटेर किला कभी अपनी शानों-शौकत के लिए मशहूर था. अटेर के किले का निर्माण भदौरिया राजा बदन सिंह ने 1664 ईसवी में शुरू करवाया था. भदौरिया राजाओं के नाम पर ही भिंड क्षेत्र को पहले "बधवार" कहा जाता था. गहरी चंबल नदी की घाटी में स्थित ये किला भिंड जिले से करीब 35 किलोमीटर पश्चिम में है.

खंडहर में तब्दील होता देवगिरी दुर्ग
अटेर किला खुद में सैकड़ों किवदंतियां, कई सौ किस्से और न जाने कितने ही रहस्य को छुपाए हुए आज भी आन बान से खड़ा है. महाभारत में जिस देवगिरी पहाड़ी का उल्लेख आता है ये किला उसी पहाड़ी पर है. इसका मूल नाम देवगिरी दुर्ग है. कई इतिहास संजोए अटेर का किला, मरम्मत और देखभाल के अभाव में खंडहर में तब्दील होता जा रहा है. अटेर किले में एक के बाद एक महल और कलात्मक चित्रों की श्रृंखला उपेक्षा के चलते अस्तित्व खोते जा रहे हैं. बताया जाता है कि किले की प्राचीर से कभी भदावर वंश की विजय पताका फहराया करती थी. चंबल नदी से दो किलोमीटर दूर उत्तरी किनारे पर स्थित अटेर किले का इतिहास करीब 400 साल पुराना बताया जाता है. खजाने की चाह में लोगों ने अटेर दुर्ग के तलघर और दीवारों को बेहिसाब नुकसान पहुंचाया है. स्थानीय लोगों के मुताबिक अधिकारियों की लगातार अनदेखी और उपेक्षा के चलते किला अपना अस्तित्व खोने की कगार पर है.

पर्यटकों की भारी कमी झेल रहा गोहद फोर्ट
कुछ ऐसे ही हाल गोहद किले का भी है. इस किले का निर्माण 16वीं सदी में हुआ था. किला दो भागों में बना है, पहला पुराना किला और दूसरा नया महल. पुराने किले का निर्माण 1739 ई. में जाट राजा भीमसिंह ने करवाया था. वहीं नए महल का निर्माण जाट राजा छत्रपति सिंह द्वारा कराया गया था. किले पर अधिकांशतः जाट एवं भदावर राजाओं और फिर मराठों का अधिकार रहा है. वर्तमान में पुराना किला एवं नयामहल मध्य प्रदेश सरकार के पुरातत्व विभाग के अधीन है.

प्राचीन मंदिरों का भी नहीं प्रचार-प्रसार
भिंड में इन किलों के अलावा 11वीं सदी के प्रसिद्ध और प्राचीन मंदिर भी हैं, जिनमें 11वीं सदी का वनखंडेश्वर महादेव मंदिर जिसका निर्माण खुद महाराजा प्रथ्विराज चौहान ने कराया था. इसके अलावा दंदरौआ धाम के नाम से प्रसिद्ध 800 साल पुराना डॉक्टर हनुमान का मंदिर प्रमुख है. इन दोनों ही मंदिरों में लाखों श्रद्धालु दर्शन करने पहुंचते हैं. भिंड में 100 से अधिक शिव के मंदिर हैं. वहीं कुछ प्राचीन मंदिर ऐसे भी हैं, जो इतिहास के गुमनाम पन्नों में खो गए हैं. भिंड का नाता महाभारत काल से जुड़ा रहा है. अटेर के देवगिरी पर्वत के अलावा एक प्राचीन शिव मंदिर भी भिंड नीले में मौजूद है. इस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना खुद पांडवों में से महाबली भीम ने की थी. यहां स्थापित शिवलिंग अपने आप में अनूठा और विश्व का एक मात्र ऐसा शिवलिंग है जो गोलाकार ना होकर अष्टकोणीय है. यह मंदिर मुख्यालय से 40 किलोमीटर उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे पांडरी गांव में स्थिति है. यह मंंदिर भी गुमनामी में खो चुका है. कुछ ऐसे ही हाल बौरेश्वर धाम का है.

मंदिर पर चावल चढ़ाने की है परंपरा
भिंड जिला मुख्यालय से करीब 20 किमी दूरी पर स्थिति प्राचीन भुवनेश्वर धाम क्षेत्र का बौरेश्वर धाम शिव मंदिर काफी प्रसिद्ध है. कहने को यह मंदिर पुरातत्व विभाग के अधीन है. बावजूद इसके आज भी यहां देख-रेख की कमी है. प्रचार-प्रसार न होने से यह मंदिर श्रद्धालुओं से वंचित है. इस मंदिर को लेकर भी कई मान्यताएं हैं. जिनमें से एक मान्यता यह भी है कि मंदिर में बने शिवलिंग पर प्रसाद के साथ चावल चढ़ाया जाता है लेकिन आज तक कोई चावलों से शिवलिंग को ढक नहीं सका है. सैकड़ों साल पहले कई राजाओं ने उस मंदिर के शिवलिंग को सैकड़ों क्विंटल चावल से ढकने की कोशिश की. फिर भी शिवलिंग कभी पूरा नहीं ढक सका.

किसी को नहीं पता कितना पुराना है शिवलिंग
मंदिर के पुजारी कहते हैं कि उनकी कई पीढ़ियां बौरेश्वर महादेव की सेवा करती आयी हैं लेकिन यह किसी को नहीं पता है कि यह मंदिर कितना पुराना है. इस मंदिर की मरम्मत की एक छाप मंदिर पर बनी हुई है, जिसे पुरातत्व विभाग के अनुसार 14वीं सदी में मरम्मत कार्य होना बताया गया है. पुजारी अनूप गोस्वामी का कहना है कि इस मंदिर में दूर-दूर से लोग अपनी मनोकामनाएं लेकर आते हैं.

मौरछठ, शिवरात्रि, सावन तक सीमित श्रद्धालु
महाशिवरात्रि के पर्व पर हजारों की संख्या में कांवड़िये जल चढ़ाने महादेव के मंदिर में आते हैं. सावन में तो मंदिर पर आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या लाखों तक पहुंच जाती है. मौरछठ पर भी जिले भर से और आसपास के जिलों से लोग बौरेश्वर धाम पर बने तालाब में अपने बच्चों की शादी के मौर सिराने आते हैं. इसके बाद श्रद्धालु नहीं आते हैं.

पब्लिक ट्रांसपोर्ट की कमी
बौरेश्वर धाम मंदिर जिले के अटेर क्षेत्र में आता है. मंदिर तक पहुंचने के लिए कोई भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट नहीं है. ऐसे में यहां आने वाले लोगों को अपने निजी वाहनों से आना पड़ता है. साथ ही पुरातत्व विभाग द्वारा कोई खास प्रचार-प्रसार मंदिर को लेकर नहीं किया जाता है.

फंड की कमी और अनदेखी से हाल बदहाल
इतना सब कुछ होने के बाद भी भिंड पर्यटन के लिहाज से पिछड़ा है, जिसके कई कारण हैं. जिला पर्यटन इकाई के सदस्य अशोक तोमर कहते हैं कि भिंड चहुंओर पर्यटन संपदाओं से घिरा है लेकिन प्रशासन और जनप्रतिनिधियों की अनदेखी की वजह से यहां कभी पर्यटन को बढ़ावा नहीं मिला. न तो प्रशासन ने कभी पर्यटन को लेकर कोई विशेष प्रयास किए और न ही प्रचार-प्रसार किये. अशोक तोमर कहते हैं कि यहां शासन-प्रशासन में बैठे लोगों की मंशा ही नहीं है कि क्षेत्र पर्यटन की ओर अग्रसर हो. उन्होंने बताया कि कार्य योजना तैयार होती है लेकिन बजट नहीं मिलता. वहीं दूसरी बड़ी कमी है सुविधाएं. यहां मूलभूत सुविधाओं का आभाव है. वहीं पर्यटन को लेकर जब जिला कलेक्टर से बात की जाती हैं तो वहां से भी कोई उचित जवाब नहीं मिलता है.

पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए आप जैसे मीडिया बंधु आगे आएं. खबरों के माध्यम से लोगों को जानकारी उपलब्ध कराएं, जिससे लोग उन स्थानों के बारे में जानेंगे और पहुंचेंगे. इससे धीरे-धीरे यह क्षेत्र स्टेट लेवल और नेशनल लेवल पर पहुंचेगा. मीडिया प्रशासन का सहयोग करे.

सतीश कुमार एस, कलेक्टर

Last Updated : Apr 28, 2021, 4:21 PM IST
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