बैतूल। इस बार होली के रंग में कोराना वायरस का भंग पड़ने की आशंका है. जिसे देखते हुए तरह-तरह की एडवाइजरी जारी की जा रही हैं. होली के मौके पर बाजार में केमिकल रंगों की भरमार होती है. जो शरीर के लिए नुकसानदायक होते हैं, लेकिन जिले के आदिवासी अंचलों की होली प्राकृतिक रंगों से रंगीन होती है. यहां पलाश के फूल से केमिकल फ्री कलर बनाए जाते हैं. जिनसे होली खेली जाती है.
टेशू के फूल से रंग बनाने के लिए फूलों को दो से तीन दिनों तक पानी में भिगोकर रखा जाता है. जिसके बाद इन फूलों को पत्थरों और हाथों से मसला जाता है. पलाश के फूलों से पूरी तरह रंग निकलने के बाद इसे कपड़े में छान लिया जाता है और इसके बाद तैयार होता है, बिल्कुल शुद्ध हर्बल केसरिया रंग. इस रंग का शरीर की त्वचा पर कोई साइड इफेक्ट भी नहीं होता है.
स्थानीय लोग बताते हैं कि पलाश के पेड़ की लकड़ी, फूल, जड़ और पत्ते तक धार्मिक कार्यों में उपयोग किए जाते हैं. पलाश के फूलों से बने रंग से शरीर को कोई नुकसान नहीं होता है, बल्कि फायदा ही मिलता है. पलाश के फूल गर्मी की शुरुआत होते ही जंगलों की खूबसूरती को चार चांद लगाते हैं.
बुजुर्गों का मानना है कि हम प्राकृतिक से दूर हो रहे हैं और बाजारों में बिक रहे केमिकल रंग से होली खेलते हैं, जो शरीर के लिए नुकसानदायक है. लिहाजा प्राकृतिक रंगों से होली खेलनी चाहिए, ताकि शरीर को किसी तरह का नुकसान न हो.