सतना। पूरी दुनिया चरखे पर सूत तैयार कर कपड़े बनाने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 151वीं जयंती मना रही है. जिस चरखे का इस्तेमाल गांधीजी ने देश के शोषण को रोकने के लिए हथियार के रुप में किया था. वो चरखा आज भी सतना जिले के सुलखमा गांव के लोगों की जीविका का साधन बना हुआ है. यहां के लगभग 100 परिवार बापू के दिखाए रास्ते पर चलते है. ये लोग चरखा चलाकर अपना गुजारा चलाते हैं. लेकिन आज के इस आधुनिक दौर में चरखे के दम पर इनका गुजारा मुश्किल से हो रहा है. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि बापू की यह विरासत बचाने के लिए शासन और प्रशासन कोई पहल क्यों नहीं कर रहा.
दम तोड रहा है अब चरखा
सतना जिला मुख्यालय से 90 किलोमीटर दूर सुलखमा गांव के लोग बापू की विरासत को देश की आजादी के इतने सालों तक साथ लेकर आ रहे हैं. लेकिन आजादी के बाद से आज तक इस गांव के लोग मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं. गांव के लोग चरखा चलाकर ही रोजी रोटी कमा रहे हैं. लेकिन बुजुर्गों की परंपरा पर आधारित यह रोजगार अब दम तोड़ता हुआ नजर आ रहा है. कारण यही है कि चरखे से सूत काटने के बाद भी यहां के लोगों को पूरी मजदूरी तक नहीं मिल पाती.
बिना सरकारी मदद के धरोहर है जिंदा
बापू का चरखा आज देश के संग्रहालयो की धरोहर बन गया है. लेकिन सतना जिले के सुलखमा गांव में चरखे की आवाज भी सुनने को मिलती है. यहां के करीब 100 परिवार आज भी चरखे को ही अपने जीविकोपार्जन का साधन बनाए हुए हैं. 2 जून की रोटी के लिए ही सही मगर सुलखमा का पाल समाज आज भी महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन की ज्योति जलाए हुए हैं वो भी बिना किसी सरकारी मदद के.
सूत की कमाई से नहीं पल रहा पेट
पाल समाज के लोगों ने बताया कि एक कंबल को बनाने में एक सप्ताह का समय लगता है और इस एक कंबल की कीमत करीब 400 से 500 रुपये मिलती है. लिहाजा इतने से पैसे से जीवन का गुजारा कैसे होगा. बावजूद इसके ग्रामीण अपनी समस्याओं को दरकिनार करते हुए गर्व के साथ इस परंपरा को जीवित रखे हुए हैं. इसलिए नहीं कि ये इनकी जरूरत है, बल्कि इसलिए क्योंकि इनके बुजुर्गों को महात्मा गांधी जो रास्ता दिखाया था. वह आज इनके लिए किसी धरोहर से कम नहीं है.
मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं गांव
आजादी के बाद से आज तक इस गांव के लोग मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं. चरखे की कमाई ज्यादा ना होने की वजह से बच्चे अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं. कहने को तो गांव में चरखा चलाने के लिए एक प्रशिक्षण केंद्र भी बनाया था, जो अब खंडहर में तब्दील हो चुका है. यहां के लोग आज भी मशीन या प्रशासनिक सुविधाओं के इंतजार में बैठे हैं.
विरासत को नहीं मिल रही पहचान
अब ये विरासत कमजोर होने लगी है, क्योंकि चरखे से बनाए कपड़ों से उनका घर नहीं चल पाता. ग्रामीणों का कहना है कि वह बापू की विरासत को तो संभाले हुए हैं, लेकिन उनका गांव और उनकी यह कला आज भी पहचान की मोहताज है, क्योंकि उन्हें आज तक कोई मदद मिली ही नहीं.
प्रशासन का दिखा रहा सुस्त रवैया
इस गांव की आबादी करीब 4 हजार है. जिला प्रशासन और जनप्रतिनिधि तक इस गांव की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं. यही वजह है कि इस गांव के लोगों के पास मूलभूत सुविधाएं पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं. ईटीवी भारत की पहल पर पहले इस गांव में अधिकारियों ने चौपाल लगाकर ग्रामीणों की समस्या सुनी थी और प्रशिक्षण केंद्र के माध्यम सुविधा मुहैया कराए जाने की बात कही थी, लेकिन अधिकारियों के बदलते ही उनके वादे कागजों में सिमट गए.