सतना। एक ऐसा गांव, जिसे गांधी का गांव या गांधीवादी नाम से भी लोग जानते और बुलाते हैं. इस गांव का असली नाम सुलखमा है. इस गांव के निवासी आज भी चरखा चलाते हैं, इसी चरखे से इनकी जिंदगी चलती है, जिस दिन चरखा नहीं चलता, उनके घर का चूल्हा नहीं जलता. एक हकीकत ये भी है कि जिसे लोग बापू का आदर्श बताते हैं, वो इनकी असल मजबूरी है. सरकार इनके स्वावलंबन की बात तो खूब करती है, पर आज तक इनका सहारा गांधीजी का चरखा ही बना हुआ है. यही वजह है कि ये लोग शौक नहीं बल्कि मजबूरी में चरखा चलाए जा रहे हैं. जिस मोहनदास करमचंद गांधी को लोग महात्मा के नाम से जानते हैं, 2 अक्टूबर को उन्हीं की जयंती है, इसलिए इस गांव का जिक्र भी जरूरी है, जो 75 साल की आजादी में भी गरीबी-भुखमरी से आजाद नहीं हो पाया है.
साल 1916 में पहली बार बापू ने चलाया था चरखा: संस्कृत भाषा में महात्मा का अर्थ महान-आत्मा होता है, यह सम्मान सूचक भी होता है. महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में हुआ था, जबकि 30 जनवरी 1948 को दिल्ली के बिरला भवन में नाथूराम गोडसे ने गोली मारकर बापू की हत्या कर दी थी. महात्मा गांधी के जन्मदिन को गांधी जयंती के रूप में मनाया जाता है, जबकि दुनिया इस दिन को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाती है. महात्मा गांधी को सन 1908 में इस चरखे की बात सूझी थी, तब वह इंग्लैंड में थे. सन 1916 में साबरमती आश्रम की स्थापना के उपरांत महात्मा गांधीजी ने चरखा चलाना शुरू किया था. जो आजादी की लड़ाई के साथ ही आर्थिक स्वावलंबन का प्रतीक बन गया था, लेकिन अब यह चरखा सिर्फ प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह गया है.
चरखे की खटपट भी नहीं मिटा पाती है इनकी भूख: जिला मुख्यालय से 90 किलोमीटर दूर अमरपाटन विधानसभा क्षेत्र के सुलखमा गांव में करीब 120 परिवार निवास करते हैं, जोकि चरखे पर पूरी तरह आश्रित हैं, जबकि आधुनिक दौर में चरखे के दम पर इनका गुजारा बमुश्किल ही हो रहा है. इस गांव के लोग मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित हैं. पुरानी परंपरा पर आधारित ये रोजगार अब दम तोड़ता नजर आ रहा है. कारण यही है कि चरखे से सूत कातने के बाद भी यहां के लोगों को वाजिब मेहनताना नहीं मिल पाता है, जबकि यही चरखा देश के ज्यादातर संग्रहालयों में प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह गया है, जबकि यहां चरखे की खटर-खटर की आवाज से 120 परिवारों को दो जून की रोटी मयस्सर होती है.
शौक नहीं मजबूरी में इस परंपरा को संजो रहे ये लोग: ग्रामीणों की माने तो इस चरखे से कंबल, टाट-पट्टी, बैठकी जैसी चीजें बनाई जाती हैं. एक कंबल को बनाने में करीब 15 से 20 दिन का समय लग जाता है और 300 रुपए लागत भी आती है, जबकि तैयार कंबल मुश्किल से 500 से 600 रुपए में ही बिक पाता है. महीने में करीब दो से तीन कंबल तैयार हो पाते हैं. ऐसे में बड़ी मुश्किल में इन परिवारों का गुजारा हो रहा है. मजबूरी में ही सही पर ये लोग आज भी इस धरोहर को संजोए हुए हैं, यदि सरकार इन्हें कच्चा माल और बाजार उपलब्ध कराने के साथ ही इनको मदद मुहैया करा दे तो इनक जीवन आसान हो जाएगा और ये परंपरा भी जीवित रहेगी.
सरकार की अनदेखी से दम तोड़ रही बापू की विरासत: सुलखमा गांव तक पहुंचने से पहले सरकारी योजनाएं रास्ते में ही दम तोड़ देती हैं, यहां शिक्षा-स्वास्थ्य-सड़क जैसी सुविधाएं आज भी दूर की कौड़ी है. जिला प्रशासन और जनप्रतिनिधियों के सुस्त रवैये के चलते इस गांव की दुर्दशा जस के तस बनी हुई है. वक्त के साथ अब ये विरासत कमजोर होने लगी है क्योंकि चरखे से बने कपड़ों से उनका घर नहीं चल पाता है. यहां के कुछ युवा आजीविका के लिए पलायन भी करने लगे हैं, ऐसे में बुजुर्ग ही इस विरासत को संभाल रहे हैं. ऐसे में ग्रामीणों को ये चिंता भी सता रही है कि कहीं बापू की विरासत भी दम न तोड़ दे.
आश्वासन भी बेकार, हालात जैसे ढाक के तीन पात: साल 2019 में ईटीवी भारत ने जब प्रमुखता से इस खबर को प्रकाशित किया था, तब तत्कालीन कलेक्टर डॉ. सत्येंद्र सिंह ने सुलखमां गांव में जन चौपाल लगाई थी और लोगों की समस्याएं सुने थे और जल्द ही उसके निराकरण का आश्वासन भी दिये थे, इसके बाद भी हालात वही ढाक के तीन पात जैसे ही हैं क्योंकि कलेक्टर का तबादला भी हो गया था. मौजूदा कलेक्टर इस बारे में बात करने के लिए राजी ही नहीं हैं. बड़ी बात यह है कि यह गांव अमरपाटन विधानसभा क्षेत्र में आता है, वर्तमान में अमरपाटन विधायक राम खेलावन पटेल राज्य सरकार के पिछड़ा वर्ग आयोग के राज्य मंत्री हैं, इसके बावजूद भी पिछड़ों का ये गांव पिछड़ता ही जा रहा है, अब सवाल ये है कि आखिर शासन-प्रशासन और जनप्रतिनिधियों का ध्यान इस ओर क्यों नहीं जाता है.