हैदराबाद: टाटा मोटर्स और टाटा कमिंस कंपनी ने झारखंड के जमशेदपुर में स्थित मुख्यालय को महाराष्ट्र के पुणे में शिफ्ट करने का फैसला लिया है. जिसका पहले विरोध हुआ और अब उसपर सियासी रंग चढ़ गया है. टाटा के खिलाफ मोर्चा खोलने वालों में सरकार के मंत्री से लेकर विधायक तक शामिल हैं. जिसके बाद 13 साल पहले का सिंगूर के टाटा प्लांट की कहानी याद आ रही है. ऐसा क्यों हो रहा है ?
टाटा के खिलाफ खोला मोर्चा
टाटा कमिंस समेत टाटा समूह की कुछ कंपनियों के प्रधान कार्यालय (head office) पुणे शिफ्ट करने के विरोध में झारखंड की सत्ताधारी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने मोर्चा खोल दिया. बुधवार 17 नवंबर को टाटा समूह की कंपनियों के गेट से लेकर खदानों के सामने धरना दिया गया, जिसकी अगुवाई अलग-अलग स्थानों पर झामुमो के विधायकों और नेताओं ने की. 17 नवंबर को प्रदर्शन का ऐलान चार से पांच दिन पहले ही किया जा चुका था. झामुमो नेता कंपनी मुख्यालय को जमशेदपुर में रखने की मांग के अलावा, इनमें 75 फीसदी नौकरियां स्थानीय आदिवासी और मूल निवासियों को देने की मांग कर रहे हैं.
बिरसा मुंडा के नाम पर कांग्रेस कर रही राजनीति
झारखंड में झामुमो के साथ कांग्रेस भी सरकार की हिस्सेदार है. 15 नवंबर को आदिवासी नेता बिरसा मुंडा की जयंती थी. कांग्रेस के कोटे से स्वास्थ्य मंत्री बने बन्ना गुप्ता मुंह पर काली पट्टी बांधकर जमशेदजी टाटा की मूर्ति के सामने धरना देकर बैठ गए. उनकी दलील थी कि बिरसा मुंडा की जयंती पर टाटा की तरफ से ना तो किसी कार्यक्रम का आयोजन हुआ और ना ही टाटा के अधिकारियों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी. इसी बात का विरोध करते हुए मंत्रीजी मुंह पर काली पट्टी बांधकर और स्लोगन लिखे पोस्टर के साथ धरने पर बैठ गए.
उद्योगपतियों में भी रोष है
टाटा समूह की कंपनियों के गेट के बाहर धरना देने को लेकर उद्यमी नाराज हैं. उद्योगपतियों ने सरकार को साफ कहा है कि अगर कहीं कोई समस्या है तो आंदोलन की बजाय मिल बैठकर इसका हल ढूंढना चाहिए. कंफडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स के सचिव सुरेश सोंथालिया ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को ट्वीट कर अपनी नाराजगी जाहिर की है. इस ट्वीट में उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल को भी टैग किया है.
उद्योग जगत से जुड़े कई और लोगों ने भी सरकार के मंत्रियों से लेकर नेताओं तक के धरना प्रदर्शन पर सवाल उठाए हैं. उद्योगपतियों ने झारखंड सरकार को चेताया है कि अगर यही हाल रहा तो कोई भी कंपनी झारखंड में निवेश करने से पहले सोचेगी. क्योंकि जमशेदपुर में इन दिनों जो भी हो रहा है उससे झारखंड की छवि खराब होगी और निवेशक नहीं आएंगे. जिसके लिए सरकार एड़ी चोटी का जोर लगा रही है.
जमशेदपुर है झारखंड की शान और टाटा है जमशेदपुर की पहचान
आज जमशेदपुर शहर झारखंड की पहचान है, जिसे स्टील सिटी के नाम से जाना जाता है. और ये सब मुमकिन हुआ है उसी टाटा कंपनी की बदौलत जिसके खिलाफ आज नेता मोर्चा खोले हुए हैं. जमशेदपुर आज देश के सबसे प्रगतिशील औद्योगिक नगरों में से एक है, टाटा की कई कंपनियों की उत्पादन इकाइयां इस शहर में हैं. जिनमें कई लोगों को रोजगार मिला है. दुनिया की टॉप 10 स्टील कंपनियों में शुमार टाटा स्टील झारखंड में 114 सालों से है.
1907 में जमशेदजी नसरवानजी टाटा ने साकची नाम के एक छोटे से गांव में इस्पात उद्योग की नींव रखी थी. 1919 में जमशेदजी टाटा ने वहां जिस शहर की नींव रखी उसे आज जमशेदपुर के नाम से जाना जाता है. शहर की आबादी आज 20 लाख के करीब है. ये शहर आज सड़क से लेकर रेल मार्ग तक से जुड़ा हुआ है. कुल मिलाकर औद्योगिक शहरों के मामले में जमशेदपुर एक मिसाल है और इसमें टाटा की अहम भूमिका है. टाटा की बदौलत ये शहर झारखंड राज्य के विकास में अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है.
बंगाल की तरह झारखंड को भी 'टाटा' ना कह दे कंपनी
टाटा को लेकर झारखंड में जिस तरह से नेताओं ने मोर्चा खोला है, वो कहीं ना कहीं पश्चिम बंगाल के सिंगूर की याद दिलाता है. कुछ उद्योगपति भी इस माहौल को देखते हुए पश्चिम बंगाल के सिंगूर की याद दिला रहे हैं. जहां से टाटा को अपना प्लांट शिफ्ट करना पड़ा था. जिसके बाद निवेशकों और उद्योगपतियों की नजर में बंगाल की छवि खराब हो गई और फिर सालों साल बंगाल निवेश को तरसता रहा.
सिंगूर में क्या हुआ था ?
लखटकिया कार रतन टाटा का सपना था, जो टाटा नैनो के रूप में सामने आया था. साल 2008 की शुरुआत आम आदमी की कार के रूप में टाटा ने नैनो कार लॉन्च कर दी थी. उससे पहले ही नैनो कार के उत्पादन के लिए पश्चिम बंगाल के सिंगूर में प्लांट लगाया जा रहा था. उस वक्त पश्चिम बंगाल में माकपा की सरकार थी, जो सालों की कोशिश के बाद प्रदेश में निवेश लाने में कामयाब हुई थी.
तत्कालीन बंगाल सरकार ने करीब 1000 एकड़ जमीन का अधिग्रहण करके टाटा मोटर्स को सौंप दी थी. इस अधिग्रहण को लेकर सवाल उठ रहे थे क्योंकि स्थानीय लोग टाटा के प्लांट का विरोध कर रहे थे. टाटा को जमीन देने के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ, पुलिस और स्थानीय लोग भी कई बार आमने-सामने हुए. मई 2007 में इस आंदोलन ने खूनी संघर्ष और हिंसा का रूप ले लिया. तब नेता विपक्ष रहीं ममता बनर्जी ने भी सरकार पर किसानों की जमीन का जबरन अधिग्रहण का आरोप लगाते हुए मोर्चा खोल दिया. सरकार और विपक्ष की सियासत के बीच मुद्दा ऐसा उलझा कि आखिरकार अक्टूबर 2008 में टाटा इस प्लांट को सिंगूर से गुजरात के साणंद ले गए और अधिग्रहित जमीन किसानों को वापस दे दी गई.
ममता को सियासी फायदा, बंगाल को नुकसान
सिंगूर में टाटा प्लांट को लेकर हुए आंदोलन का ममता बनर्जी को चुनाव में फायदा मिला. 2011 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने 294 में से 184 सीटें जीतीं, जबकि सहयोगियों के साथ मिलकर राज्य की 228 सीटों पर जीत हासिल की. ममता बनर्जी पहली बार मुख्यमंत्री बनीं. सिंगूर से टाटा के प्लांट को हटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली ममता बनर्जी को सियासी फायदा तो खूब मिला लेकिन बंगाल नुकसान में ही रहा. टाटा का प्लांट सिंगूर से हटने के बाद निवेशकों ने पश्चिम बंगाल से मुंह मोड़ लिया.
झारखंड में लगातार निवेश कर रही है टाटा
झारखंड सरकार ने प्रदेश में निवेश बढ़ाने को लेकर औद्योगिक नीति बनाई है, जिसके तहत इन्वेस्टर मीट के आयोजन हो रहे हैं. मुख्यमंत्री देशभर के उद्योगपतियों से मुलाकात कर रहे हैं. इसी कड़ी में टाटा ने भी अगस्त में ऐलान किया था कि टाटा स्टील आगामी तीन साल में 3,000 करोड़ का निवेश करेगी. इसके अलावा झारखंड में ग्रिड से जुड़ी एक सौर परियोजना के निर्माण से लेकर अन्य योजनाओं को लेकर भी टाटा की तैयारी है. टाटा के खिलाफ झामुमों के नेताओं और सरकार के मंत्रियों ने जो मोर्चा खोला है उस घटनाक्रम पर अभी तक सूबे के मुख्यमंत्री का बयान नहीं आया है.
कहीं निवेश पर पानी ना फेर दे सियासत
निवेश को लेकर सरकार कवायद तो कर रही है लेकिन सरकार के मंत्री से लेकर झामुमो के नेता तक जिस तरह से सियासत कर रहे हैं वो सरकार के निवेश की प्लानिंग पर पानी फेर सकता है. सवाल है कि क्या किसी कंपनी के हेड ऑफिस शिफ्ट करने से राज्य में कंपनी के निवेश पर कोई फर्क पड़ रहा है ? क्या इस शिफ्टिंग को लेकर सरकार ने टाटा से बात की है ? क्या स्थानीय लोगों को नौकरी देने का जो सवाल उठाया जा रहा है उसपर कंपनी के साथ बैठकर बातचीत हुई है ? और कंपनी में बिरसा मुंडा की जयंती ना मनाने का निवेश से क्या लेना-देना है ?
सवाल है कि ऐसे किसी भी मामले में सियासी रोटियां सेंकने की क्या जरूरत है. क्योंकि इस तरह के कदम से निवेश और निवेशकों को फर्क पड़ता है, जिन्हें लुभाने के लिए सरकारें बड़े-बड़े वादे और हर मुमकिन मदद का वादा तो करती हैं लेकिन सियासत अपने किए से बाज नहीं आती. ऐसे में अगर निवेश सरकार का लक्ष्य है तो इस तरह की सियासी रोटियां और निजी हित साधने से नेताओं को बाज आना होगा. कांग्रेस से लेकर झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेताओं को समझना होगा कि इस सियासत से सिर्फ उनका फायदा होगा लेकिन कंपनियों के राज्य छोड़कर जाने या निवेशकों के मुंह मोड़ लेने पर पूरे राज्य का सिर्फ नुकसान होगा.
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