भोपाल। मध्य प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने के लिए नेता चुनाव प्रचार में अपना पूरा जोर लगा रहे हैं, लेकिन प्रदेश की कुछ विधानसभा सीटें ऐसी भी हैं. जहां मुख्यमंत्री और मंत्री चुनाव प्रचार पर जाने से ही तौबा करते हैं. वहीं कुछ सीटों पर प्रचार के लिए जाते भी हैं, तो वहां रात नहीं गुजारते, शाम तक प्रचार खत्म कर वह स्थान छोड़ देते हैं. दरअसल इन सीटों को लेकर मिथक जुडे हुए हैं, जिसका चुनाव प्रचार के दौरान नेता पूरा ध्यान रखते हैं. मध्यप्रदेश की ऐसी करीब एक दर्जन विधानसभा सीटें हैं. इसमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के गृह जिले की इछावर भी शामिल है.
इस सीट पर जाने से चली जाती है सीएम की कुर्सी: मध्यप्रदेश के सीहोर जिले की इछावर विधानसभा सीट के बारे में कहा जाता है कि जो नेता बतौर मुख्यमंत्री इस सीट पर पहुंचा. उसकी सीएम की कुर्सी चली जाती है. यह विधानसभा सीट मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के गृह जिले में ही आती है. इस जिले की बुधनी सीट से शिवराज ने लगातार जीत का रिकॉर्ड बनाया है, लेकिन इस सीट से ही लगी इछावर सीट पर जाने से शिवराज सिंह किस हद तक कतराते हैं, इसका अंदाज इस बात से ही लगाया जाता है कि सीएम शिवराज सिंह यहां अब तक किसी कार्यक्रम में नहीं गए. माना जाता है कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कैलाश नाथ काटजू की कुर्सी इछावर जाने के बाद ही चली गई थी. वे यहां एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने पहुंचे थे, लेकिन उसी साल जब विधानसभा चुनाव हुए तो पार्टी तो हारी ही, कैलाश नाथ काटजू को भी हार का सामना करना पड़ा. इसी फेहरिस्त में मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्रा, कैलाश जोशी, वीरेन्द्र कुमार सकलेचा, दिग्विजय सिंह का भी नाम जोड़ा जाता है.
- बतौर मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र मार्च 1967 में इछावर पहुंचे और बाद में उन्हें पार्टी में असंतोष की वजह से इस्तीफा देना पड़ा.
- मुख्यमंत्री कैलाश जोशी यहां 1977 में गए थे. इसके 4 माह बाद ही उनकी कुर्सी जाती रही.
- फरवरी 1979 को मुख्यमंत्री वीरेन्द्र कुमार सकलेचा भी इछावर गए, लेकिन एक साल में ही उनका मुख्यमंत्री पद छिन गया.
- मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह नवंबर 2003 में इछावर पहुंचे और बाद में उनकी भी सत्ता जाती रही.
- मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इछावर कभी नहीं गए. यहां तक कि एक बार खराब मौसम की वजह से जब उनका हैलीकॉप्टर उड़ान नहीं भर सका और उन्हें सडक मार्ग से आना पड़ा, उस दौरान इछावर में उनका स्वागत हुआ, लेकिन सीएम ने गाड़ी से नीचे कदम नहीं रखा.
अशोक नगर जाने से कतराते हैं मुख्यमंत्री: दौरे के बाद कुर्सी जाने का मिथक मध्यप्रदेश के अशोकनगर जिले को लेकर भी जुड़ा हुआ है. यहां भी मुख्यमंत्री जाने से कतराते हैं. स्थिति यह है कि शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री रहते अशोक नगर नहीं गए. अशोकनगर को लेकर मिथक जुड़ा है कि यहां जाने पर मुख्यमंत्री को अपना पद गंवाना पड़ता है. यह मिथक 1975 से जुड़ता चला गया, जबकि मुख्यमंत्री प्रकाश चंद्र सेठी 1975 में यहां पहुंचे और इसके कुछ महीनों बाद ही उनका मुख्यमंत्री का पद छिन गया. इसके बाद 1977 में मुख्यमंत्री श्यामा चरण शुक्ल, 1985 में यहां पहुंचने वाले मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह, 1988 में मोती लाल वोरा, 1992 में अशोक नगर पहुंचने वाले मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा और 2001 में प्रचार के लिए जाने वाले मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का भी नाम इस मिथक से जुड़ता गया. साल 2020 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह उपचुनाव में प्रचार के लिए यहां पहुंचे, लेकिन सभा स्थल अशोक नगर से 9 किलोमीटर दूर बनाया गया था.
मुलताई विधानसभा गए तो नदी का पूजन करना जरूरी: इसी तरह मध्यप्रदेश के बैतूल जिले की मुलताई विधानसभा पर कोई भी बड़ा नेता पहुंचे, वे वहां ताप्ती मां का पूजन करना नहीं भूलते. यहां मिथक जुड़ा है कि यदि पूजन नहीं किया तो प्रतिष्ठा गंवाना पड़ती है. इसके पीछे एक पौराणिक मान्यता है कि ताप्ती सूर्य पुत्री और यमराज की बहन है, जिसका उदगम ही मुलताई के ताप्ती सरोवर से हुआ है. सूर्य पुत्री होने की वजह से ताप्ती मां का पूजन न करने से भगवान सूर्य देव की नाराजगी झेलती होती है. यही वजह है कि चुनाव प्रचार के लिए आने वाले नेताओं से लेकर अन्य सेलिब्रिटी यहां ताप्ती नदी का पूजन करना नहीं भूलते. माना जाता है कि अर्जुन सिंह यहां से बिना पूजन किए गए थे, इसके बाद उनकी सत्ता चली गई. बाबा रामदेव के साथ भी यहीं हुआ. उनके लिए पूजन की तैयारियां हो गई थी, लेकिन वे बाद में कार्यक्रम से ही वापस चले गए, इसके बाद दिल्ली में रामलीला मैदान में पुलिस के साथ बाबा रामदेव की झड़प हुई और बाद में वे महिलाओं के कपड़े पहनकर भागते दिखाई दिए थे.
उज्जैन और ओरछा में रात नहीं रूकते मंत्री, मुख्यमंत्री: बाबा महाकाल की नगरी उज्जैन और राम राजा सरकार की नगरी ओरछा में मंत्री, मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक रात नहीं रूकते. ऐसी मान्यता है कि यहां रात रूकने पर उनकी सत्ता से कुर्सी छिन जाती है. यह मान्यता सालों से चली आ रही है. दरअसल बाबा महाकाल को उज्जैन का राजाधिराज माना जाता है और इसके चलते उज्जैन में कोई मंत्री या मुख्यमंत्री रात में यहां रूकता है, तो उसकी सत्ता खतरे में पड़ जाती है. इस मान्यता के साथ देश के चौथे प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा का नाम जुड़ता है. जिन्हें यहां रात रूकने के बाद सत्ता गंवानी पड़ी. माना जाता है कि राजा भोज के समय से ही कोई राजा उज्जैन में रात्रि विश्राम नहीं करता. ऐसा ही मिथक निवाड़ी जिले के ओरछा को लेकर भी जुड़ा है, यहां मंत्री, मुख्यमंत्री रात को नहीं रूकते.
उधर वरिष्ठ पत्रकार अजय बोकिल कहते हैं कि "राजनीति में भी अंधविश्वास चलते हैं. प्रदेश में कई सीटें हैं, जहां मुख्यमंत्री या मंत्री प्रचार करने से कतराते हैं. दरअसल कुछ चीजों को लेकर अंधविश्वास जुड़ जाते हैं और कुछ घटनाएं उन अंधविश्वास की बातों को मजबूत बनाती जाती है, लेकिन इस पर भरोसा नहीं करना चाहिए. वैसे कई नेताओं ने इन मिथकों को तोड़ने की कोशिश की है."