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MP Chaurai Assembly Seat: एमपी का आदिवासी इलाका, जहां लोगों को नहीं आती हिन्दी, प्रचार में नेताओं- पार्टियों के छूट जाते हैं पसीने, देखें रिपोर्ट - एमपी का आदिवासी इलाका

ईटीवी की खास सीरीज चौरई विधानसभा देश की अनोखी विधानसभा में से एक है. ऐसा इसलिए हम कह रहे हैं, क्योंकि यहां पर लोगों से संवाद के लिए ट्रांसलेटर लगता है. इस विधानसभा में करीब बारह हजार की आबादी ऐसी है, जहां राजनीतिक दलों के साथ उम्मीदवारों को चुनाव में पसीने छूट जाते हैं. ये सभी मवासी समाज के लोग हैं, जो हिन्दी नहीं जानते हैं.

MP Election 2023
मध्यप्रदेश विधानसभा 2023
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Oct 18, 2023, 8:19 PM IST

मध्यप्रदेश की चौरई विधानसभा का गांव

छिन्दवाड़ा। जिले की चौरई विधानसभा देश में अपनी तरह की पहली विधानसभा होगी, जहां वोटर को संवाद के लिए ट्रांसलेटर भी लगता है. इस विधानसभा में करीब बारह हजार की आबादी ऐसी भी है, जहां राजनीतिक दलों के साथ उम्मीदवारों को चुनाव में पसीने छूट जाते हैं. वजह ये है कि 12 गांव में बसने वाली गौंडी जाति के मवासी समाज के ये लोग हिंदी नहीं जानते. अब ऐसे में ना वोटर अपनी बात नेताजी से कह पाते हैं, और नेताजी को भी अपनी बात रखने ट्रांसलेटर ले जाना पड़ता है. बाकी नारे बैनर पोस्टर का प्रचार इन गांवों में बेअसर रहता है.

नेताओं को पड़ती है ट्रांसलेटर की जरूरत: चौरई विधानसभा के बिछुआ विकासखंड के करीब 12 गांव में आदिवासी जनजातियां रहती हैं. इनमें अधिकतर बुजुर्ग और पुराने लोग हिंदी बोल और समझ नहीं पाते हैं. यहां के आदिवासी आज भी हिन्दी भाषा से अछूते हैं. गुलसी, खदबेली, डंगरिया, बिसाला, राधादेवी, तिवड़ी, पनियारी, चकारा, मोहपानी, टेकापानी, मझियापार, मुंगनापार, चीचगांवबड़ोसा शामिल है. जनजातीय आधारित इन पंचायतों में लोगों को हिन्दी भाषा की बजाए अपनी गोंडी मवासी भाषा ज्यादा पसंद है.

इन गांव में जब चुनाव प्रचार के दौरान नेता पहुंचते हैं, तो वह गांव के ही किसी ऐसी युवक या व्यक्ति का सहारा लेते हैं, जो दोनों भाषाओं को समझता हो. नेताजी पहले उस ट्रांसलेटर को अपनी बात गांव वालों को समझाने के लिए बोलते हैं और फिर गांव वाले अपनी बात नेता को बताते हैं. उनके बीच में ट्रांसलेटर ही मुख्य भूमिका निभाता है.

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गांव का मुखिया ही तय कर देता मतदान: खास बात यह है कि चुनावी सीजन में हर गांव में दीवार पर प्रचार प्रसार की पेंटिंग होर्डिंग बैनर और पोस्टर से सजे होते हैं. इन गांव में हिंदी की कम जागरूकता के चलते किसी तरीके की प्रचार सामग्री दिखाई नहीं देती है. एक दो घरों में पार्टी के चुनाव चिन्ह और झंडे जरूर लगाए जाते हैं, ताकि चुनाव चिन्ह के जरिए मतदाता अपना मन बना सकें. हालांकि, स्थानीय ग्रामीणों ने बताया कि गांव के मुखिया चुनाव के पहले पंचायत बैठाकर आपस में सामंजस बना लेते हैं कि कौन उनके गांव का विकास करेगा और किससे उनके गांव को फायदा हो सकता है. उसके पक्ष में मतदान करने के लिए अपील कर दी जाती है.

स्कूल में अतिथि शिक्षक निभाते हैं अहम भूमिका: ऐसा नहीं है कि इन गांव में स्कूल नहीं है. गांव में स्कूल है और बाकायदा हिंदी में पढ़ाई भी कराई जाती है, लेकिन शुरुआत के दिनों में शिक्षकों को भी काफी मशक्कत करनी पड़ती है. इन स्कूलों में सबसे पहले अतिथि शिक्षकों की अहम भूमिका होती है. क्योंकि,अतिथि शिक्षक स्थानीय स्तर के होते हैं और वे दोनों भाषाओं को समझते हैं. इसलिए बच्चों को हिंदी पढ़ने और समझाने में सफल हो पाते हैं. स्कूली बच्चे हिंदी पढ़ते हैं और समझते हैं, लेकिन गांव में आज भी वह गोंडी भाषा का ही उपयोग करते हैं.

मध्यप्रदेश की चौरई विधानसभा का गांव

छिन्दवाड़ा। जिले की चौरई विधानसभा देश में अपनी तरह की पहली विधानसभा होगी, जहां वोटर को संवाद के लिए ट्रांसलेटर भी लगता है. इस विधानसभा में करीब बारह हजार की आबादी ऐसी भी है, जहां राजनीतिक दलों के साथ उम्मीदवारों को चुनाव में पसीने छूट जाते हैं. वजह ये है कि 12 गांव में बसने वाली गौंडी जाति के मवासी समाज के ये लोग हिंदी नहीं जानते. अब ऐसे में ना वोटर अपनी बात नेताजी से कह पाते हैं, और नेताजी को भी अपनी बात रखने ट्रांसलेटर ले जाना पड़ता है. बाकी नारे बैनर पोस्टर का प्रचार इन गांवों में बेअसर रहता है.

नेताओं को पड़ती है ट्रांसलेटर की जरूरत: चौरई विधानसभा के बिछुआ विकासखंड के करीब 12 गांव में आदिवासी जनजातियां रहती हैं. इनमें अधिकतर बुजुर्ग और पुराने लोग हिंदी बोल और समझ नहीं पाते हैं. यहां के आदिवासी आज भी हिन्दी भाषा से अछूते हैं. गुलसी, खदबेली, डंगरिया, बिसाला, राधादेवी, तिवड़ी, पनियारी, चकारा, मोहपानी, टेकापानी, मझियापार, मुंगनापार, चीचगांवबड़ोसा शामिल है. जनजातीय आधारित इन पंचायतों में लोगों को हिन्दी भाषा की बजाए अपनी गोंडी मवासी भाषा ज्यादा पसंद है.

इन गांव में जब चुनाव प्रचार के दौरान नेता पहुंचते हैं, तो वह गांव के ही किसी ऐसी युवक या व्यक्ति का सहारा लेते हैं, जो दोनों भाषाओं को समझता हो. नेताजी पहले उस ट्रांसलेटर को अपनी बात गांव वालों को समझाने के लिए बोलते हैं और फिर गांव वाले अपनी बात नेता को बताते हैं. उनके बीच में ट्रांसलेटर ही मुख्य भूमिका निभाता है.

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गांव का मुखिया ही तय कर देता मतदान: खास बात यह है कि चुनावी सीजन में हर गांव में दीवार पर प्रचार प्रसार की पेंटिंग होर्डिंग बैनर और पोस्टर से सजे होते हैं. इन गांव में हिंदी की कम जागरूकता के चलते किसी तरीके की प्रचार सामग्री दिखाई नहीं देती है. एक दो घरों में पार्टी के चुनाव चिन्ह और झंडे जरूर लगाए जाते हैं, ताकि चुनाव चिन्ह के जरिए मतदाता अपना मन बना सकें. हालांकि, स्थानीय ग्रामीणों ने बताया कि गांव के मुखिया चुनाव के पहले पंचायत बैठाकर आपस में सामंजस बना लेते हैं कि कौन उनके गांव का विकास करेगा और किससे उनके गांव को फायदा हो सकता है. उसके पक्ष में मतदान करने के लिए अपील कर दी जाती है.

स्कूल में अतिथि शिक्षक निभाते हैं अहम भूमिका: ऐसा नहीं है कि इन गांव में स्कूल नहीं है. गांव में स्कूल है और बाकायदा हिंदी में पढ़ाई भी कराई जाती है, लेकिन शुरुआत के दिनों में शिक्षकों को भी काफी मशक्कत करनी पड़ती है. इन स्कूलों में सबसे पहले अतिथि शिक्षकों की अहम भूमिका होती है. क्योंकि,अतिथि शिक्षक स्थानीय स्तर के होते हैं और वे दोनों भाषाओं को समझते हैं. इसलिए बच्चों को हिंदी पढ़ने और समझाने में सफल हो पाते हैं. स्कूली बच्चे हिंदी पढ़ते हैं और समझते हैं, लेकिन गांव में आज भी वह गोंडी भाषा का ही उपयोग करते हैं.

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