नई दिल्ली : लड़कियों की शादी की उम्र 18 से बढ़ाकर 21 साल करने की योजना कुछ और नहीं बल्कि सतही है. इसका मां और बच्चे के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में बहुत कम योगदान होगा और इससे यौन गतिविधियों से जुड़े अपराध बढ़ेंगे. विशेषज्ञों का ऐसा ही कहना है. उनका कहना है कि आदेश जारी करके कानून में संशोधन कर देने से लैंगिक समानता, महिलाओं के अधिकार या लड़कियों के सशक्तिकरण को बढ़ावा नहीं मिलेगा.
सरकार के महिलाओं की शादी की उम्र में संशोधन करने के प्रस्ताव की देश भर के महिला एवं बाल अधिकार विशेषज्ञों की ओर से आलोचना की जा रही है. महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ओर से जून में ही एक टास्क फोर्स नियुक्त किया गया है जो समाज के सदस्यों से इस मुद्दे पर राय ले रहा है.
संगठनों ने टास्क फोर्स को तीन निवेदन दिए
इस पर 100 से अधिक सिविल सोसइटी से जुड़े संगठनों ने चिंता जताई है. इन संगठनों का बढ़ते बच्चों व बाल अधिकारों और महिला अधिकारों पर शोध और उनके हितों के लिए आवाज उठाने का व्यापक अनुभव है. इन संगठनों ने टास्क फोर्स को तीन निवेदन दिए हैं. इनमें सरकार से शादी की उम्र को बढ़ाने का विरोध करते हुए समझने में सरल वजहों का हवाला देते हुए उल्लेख किया है कि उम्र की संभावित बढ़ोतरी की घोषणा क्यों चिंता का विषय है. शादी की उम्र को संशोधित करने को लेकर बहुत सारे सवाल उभरने लगे हैं.
अधिकारों से जुड़े संगठनों ने एक संयुक्त बयान में पूछा है कि किस तरह से शादी की उम्र बढ़ाना लड़कियों को आगे ले जाएगा जबकि यह बहुत अधिक युवतियों को उनकी वैवाहिक स्थिति और अधिकारों से वंचित करेगा. उन्होंने यह भी सवाल किया कि यह अपराध के शिकार उन परिवारों को किस तरह से मदद करेगा, जिन्हें अपना अस्तित्व बचाना है और असुरक्षा की वजह से वे न केवल लड़की की जल्दी शादी करने के लिए बल्कि उन्हें कम उम्र में ही काम कराने के लिए भी मजबूर हैं.
जो भी हो संगठनों और अलग-अलग लोगों ने व्यक्तिगत स्तर पर भी शादी की उम्र बढ़ाने के सरकार के प्रस्ताव का विरोध किया है और यह दावा किया है कि यह लैंगिक समानता, महिलाओं के अधिकारों या लड़कियों के सशक्तिकरण को आगे नहीं बढ़ाएगा. माताओं और शिशुओं के स्वास्थ्य में सुधार के लिए भी बहुत कम कारगर होगा.
पढ़ाने और नौकरी देने पर हो जोर
महिला-पुरुष दोनों के लिए शादी की उम्र 21 वर्ष यह लैंगिक समानता का संकेत है. यह केवल सबसे सतही अर्थ में है, लेकिन किसी न किसी प्रकार से उदारवादी हलकों में इस विचार की बहुत अपील है. इस बयान का 100 से अधिक सिविल सोसाइटी से जुड़े संगठनों और 2500 युवाओं ने समर्थन किया है.
महिला अधिकार के विशेषज्ञों का विचार है कि बाल विवाह के मामले अब कम हो रहे हैं इस लिए शादी की उम्र बढ़ाने का कोई मुद्दा नहीं है इसकी जगह उनको पढ़ाने और नौकरी देने पर अधिक जोर दिया जाना चाहिए.
ईटीवी भारत से बात करते हुए महिला विकास अध्ययन केंद्र की निदेशक मेरी ई जॉन ने कहा कि यह सिर्फ एक सतही विचार है कि जो लोग शिक्षित और पैसे वाले हैं लड़कियों की शादी अधिक उम्र में करते हैं. वास्तव में ऐसा नहीं है कि एक गरीब आदमी जो बच्ची की शादी करने के लिए तीन साल तक इंतजार कर लेगा तो 21 साल के होने तक वह अमीर बनने जा रहा है. जब तक गरीबों के लिए स्कूल-कॉलेज नहीं हैं या नौकरी जो उसके लिए मायने रखती है, वह नहीं है तो बस 3 साल तक शादी की उम्र टाल देने से क्या बदलने वाला है? सरकार ने इस तरह से ठीक से नहीं सोचा है. जॉन ने भी शादी की उम्र बढ़ाने के विरोध पर सहमति जताई है.
उन्होंने कहा कि हमारे पास तो अंतर संबंधी अलग-अलग युग का इतिहास है. कोई भी रातोंरात अचानक बराबरी नहीं कर सकता, क्योंकि हमारे पास एक सामाजिक व्यवस्था है. यह व्यवस्था यह सोचने के लिए प्रेरित करती है कि हमें ‘हाइपरगेमिस्ट्स’ होना चाहिए. जिसका अर्थ है कि एक जाति के भीतर लड़का लड़की से बेहतर होना चाहिए. पश्चिमी देशों में यह विचार अब समाप्त हो गया है, लेकिन भारत में हमलोग अब भी इस वर्गीकरण को बनाए हुए हैं. इसलिए 18 साल की उम्र को वैसे ही रखा जाना चाहिए जैसा वह है. यह शादी करने के लिए सिर्फ एक न्यूनतम उम्र है न कि वह शादी के लिए आवश्यक उम्र जो होनी चाहिए. यह ऐसी स्थिति में केवल एक रक्षक के रूप में काम करता है जब गरीबी की वजह से परिवार कठिन परिस्थितियों में होता है और लड़की के स्कूल छोड़ देने और घर पर बैठ जाने के बाद उसकी शादी कर देता है.
घट रहा कम उम्र में विवाह का अनुपात
ऐसी बाधाओं के बावजूद शादी की उम्र बढ़ रही है. कम उम्र में विवाह का अनुपात घट रहा है. जॉन ने कहा कि अब हमारे यहां राजस्थान के कुछ गांवों को छोड़कर बाल विवाह नहीं होते हैं, वहां भी बहुत कम. उन्होंने कहा कि शादी की उम्र बढ़ाने के बजाय पढ़ाने पर विशेष रूप से प्राथमिक शिक्षा पर जोर दिया जाना चाहिए. कम उम्र की शादी को रोकने के लिए, कुपोषण से लड़ने के लिए और गरीबी दूर करने के लिए उन्हें नौकरी का अवसर मिलना जरूरी है.
पूरी दुनिया में शादी के लिए पुरुष और महिला के लिए न्यूनतम उम्र 18 साल का मानदंड तय है. संयुक्त राष्ट्र के बाल अधिकारों पर 1992 में हुए समझौते को भारत ने स्वीकार किया था जो 18 वर्ष तक की उम्र को बच्चा के रूप में परिभाषित करता है. विशेषज्ञ यह भी तर्क देते हैं कि कानून के माध्यम से शादी की उम्र को बढ़ाने से केवल अपराधीकरण बढ़ेगा, कम उम्र में शादी नहीं रुकेगी.
पीसीएमए का किया गया गहन विश्लेषण
इसके अलावा कानून का सबसे अधिक उपयोग किसने किया और किस हद तक किया, यह समझने के लिए दिल्ली स्थित एक गैर सरकारी संगठन ‘पार्टनर्स फॉर लॉ एंड डेवलपमेंट’ की ओर से बाल विवाह निषेध अधिनियम (पीसीएमए), 2006 के तहत दर्ज किए गए मामलों का गहन विश्लेषण किया गया. उन मामलों में 2008 से 2017 के बीच 83 उच्च न्यायालय और जिला न्यायालय के फैसले और आदेश शामिल थे. उनमें पाया गया कि 65 फीसदी मामलों में पीसीएमए का उपयोग सहमति से शादी करने वाले किशोरों को दंडित करने के लिए किया गया था. बाल विवाह के शेष 35 मामलों में से आधे से अधिक विवाह संबंध खत्म कराने के लिए पीसीएमए का उपयोग किया गया था. इन मामलों में कानून तोड़ने के लिए माता-पिता को दंडित नहीं किया गया था. इस कानून का उपयोग 83 मामलों में से 56 में लड़की के माता-पिता और रिश्तेदारों की ओर से किया गया था और केवल 14 फीसदी मामलों को ही बाल विवाह निषेध अधिकारी जैसे कानूनी अधिकारियों की ओर से शुरू किया गया था.
अध्ययन में यह भी पाया गया कि व्यवस्थित तरीके से शादी (अरेंज मैरिज) के संबंध में 35 फीसदी मामलों में से 48 फीसदी में कम उम्र में विवाह के लिए माता-पिता/पति के खिलाफ अभियोग लगाया गया है. शेष 52 फीसदी मामलों में दहेज, असामंजस्य या घरेलू हिंसा की वजह से विवाह विच्छेद हुआ था.
यहां यह उल्लेख करना सही है कि वर्ष 2005-2006 में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) 3 और एनएफएचएस -4 के बीच 20-24 वर्ष की आयु वर्ग की महिलाओं का अनुपात जिनकी शादी तब हुई थी जब वे 15 साल की थीं, 25.4 फीसदी से घटकर 6 फीसदी रह गया. नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे 2015-2016 के आंकड़ों से पता चलता है कि 20-24 साल की 6 फीसदी महिलाओं की शादी 15 साल की उम्र में हुई, 26.8 फीसदी की 18 साल में और 48 फीसदी की 20 साल की उम्र में कर दी गई.