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सुरक्षा नदारद ... हैं तो, बस मुसीबत की दास्तान बयां करते संरक्षण केंद्र!

देश के तमाम संरक्षण केंद्र जहां लड़कियों को नया जीवन देने के लिए रखा जाता है उनके भी हालात सही नहीं हैं. समय-समय पर वहां से भी ऐसी घटनाएं समाने आती हैं, जो समाज और देश दोनों को झकझोर देती हैं.

rescue homes not protection but problematic centres
बद से बदतर हैं संरक्षण केंद्रों के हालात
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Published : Nov 21, 2020, 8:06 AM IST

हैदराबाद: तकरीबन दो साल पहले बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर का नाम पूरे देश में गूंज रहा था. नाम गूंजे भी क्यों न क्योंकि शहर में स्थित एक संरक्षण केंद्र की 34 लड़कियों पर हुए क्रूर यौन हमले की चौंकाने वाली ख़बरें महीनों तक जो आती रहीं. टीआईएसएस (टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस) की उजागर की गई सर्वेक्षण रिपोर्टों के अनुसार 15 और संरक्षण केंद्रों को दिल दहला देने वाले हालात पैदा करने का दोषी पाया गया था.

सुप्रीम कोर्ट भी उठा चुकी सवाल

रिपोर्ट में दिए गये तथ्यों के साथ उत्तर प्रदेश के देवरिया में भी एक संरक्षण केंद्र में चल रहे वेश्यावृत्ति के रैकेट की खबरें विवाद का एक बड़ा कारण बनी थी. सुप्रीम कोर्ट ने सीधे तौर पर लचर प्रणाली पर सवाल उठाते हुए कहा कि इन पीड़ितों के लिए सुरक्षा कहां है. जब आश्रय और सहारा देने वाले देने वाले हाथ ही उन्हें ऐसे कालकोठरियों में धकेल रहे हैं. उस संदर्भ में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार सभी राज्यों में संरक्षण केंद्रों की स्थिति चिंताजनक है! वहीं, एनसीपीसीआर का अनुमान है कि ऐसे समस्याग्रस्त संरक्षण केंद्रों की संख्या, जिनमें शरण लेने वालों को शारीरिक और यौन हमलों से बचाने की किसी उचित व्यवस्था नहीं है, उनमें त्रिपुरा (जो लगभग 86.8 प्रतिशत है) टॉप पर है. इसके बाद कर्नाटक(74.2%) है, जबकि ओडिशा(68)%), केरल (63.4%) और असम (60.9%) का स्थान आता है.

इन राज्यों की हालत बेहद खराब

आकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि न केवल सरकार द्वारा संचालित संरक्षण गृह, बल्कि निजी आश्रय गृह जो कि अंतरराष्ट्रीय दानदाताओं के मोटे दान से चलते हैं, वे भी कोई बेहतर प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं. आंध्र प्रदेश में गैर-सरकारी संगठनों द्वारा संचालित 145 संरक्षण केंद्रों में लगभग 6200 बच्चों को 1 वित्तीय वर्ष की अवधि में 400 करोड़ रुपये से अधिक की धनराशि मिली है. यह औसत प्रति व्यक्ति रु. 6.6 लाख प्रति बच्चा है. वहीं, तेलंगाना जैसे कई राज्यों में प्रति व्यक्ति वित्त पोषण रु. 3.88 लाख है, इसके बाद बाहरी और अंतरराष्ट्रीय दाताओं के माध्यम से केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु में 2 लाख रुपये से अधिक धन राशि प्राप्त होती है.

सुशासन बाबू ने व्यकित की थी सहमति

इसके बावजूद जरूरी मुद्दों को संबोधित करने के लिए पर्याप्त देखभाल नहीं की जा रही है जैसे -पर्याप्त स्टाफ और बुनियादी ढांचे की आवश्यकताओं की कमी. यह एक मजबूत संकेत है कि सभी प्राप्त धन को कहीं और इस्तेमाल किया जा रहा है! इससे पहले, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस बात पर सहमति व्यक्त की है कि मुज़फ़्फ़रपुर की तरह की घटनाएं होने की संभावना है यदि दोषियों के खिलाफ कोई सख्त कानून और कड़ी कार्रवाई नहीं होती है. हालांकि, ऐसे और भी मुज़फ़्फ़रपुर हैं जो आज देश में रोजाना फल-फूल रहे हैं!

नियमों के तहत संरक्षण केंद्रों का होना चाहिए रजिस्ट्रेशन

भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 और 34 की मूल प्रेरणा यह है कि जो बच्चे इस भूमि पर जन्म लेते हैं और अपनी आंखें खोलते हैं, उन्हें किसी भी प्रकार के भेदभाव या यौन हिंसा का शिकार नहीं होना पड़ेगा. इसके जवाब में, सर्वोच्च न्यायलय ने मई 2017 में स्पष्ट किया था कि सभी बाल संरक्षण केंद्रों को कुछ नियमों के तहत पंजीकृत किया जाना चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि सामाजिक ऑडिट एक निर्दिष्ट अवधि के भीतर नियमित रूप से आयोजित किए जाने चाहिए. केंद्रीय महिला और बाल कल्याण मंत्रालय ने बाल कानून (किशोर न्याय) अधिनियम के तहत देश में हर बाल संरक्षण केंद्र के पंजीकरण की तारीख के रूप में उसी वर्ष (2017) को 1 दिसंबर निर्धारित कर दी थी.

अभी भी नियमों की धज्जियां उड़ा रहे कई केंद्र

एनसीपीसीआर के अध्ययन से पता चलता है कि महाराष्ट्र (88.9 प्रतिशत), त्रिपुरा (52.6 प्रतिशत), दिल्ली (46.8 प्रतिशत), केरल (41.6 प्रतिशत) और तेलंगाना (40.1 प्रतिशत) में ऐसे कई बाल संरक्षण केंद्र हैं, जो अभी भी नियमों की धज्जियां उड़ा रहे हैं. यहां तक कि जहां जिला कल्याण और बाल संरक्षण समितियों जैसे सरकारी अधिकारियों के पहुंच बनाने की संभावना है, वे इन केंद्रों में जा सकते हैं और निरीक्षण कर सकते हैं. उनके लिए भी केंद्र परिसर में कदम रखना असंभव हो रहा है, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि अदृश्य राजनीतिक शक्तियां यहां अपना चक्रव्यूह बनाये हुए है और इन संरक्षण केंद्रों और निरीक्षण समितियों के बीच एक अदृश्य अवरोध बनाने में सफल हो रहीं हैं. यहां तक कि तेलंगाना के अमीनापुर में एक संरक्षण केंद्र में हाल ही में हुई शर्मनाक घटनाएं इस अनैतिक रिश्ते के ताजा उदाहरण के रूप में खड़ी हैं, जो संरक्षण केंद्र के प्रबंधकों, सरकार/निरीक्षण समिति के अधिकारियों और स्थानीय जमींदारों के बीच मौजूद हैं.

पढ़ें: बेलगाम आपराधिक राजनीति : क्या निर्वाचन आयोग की कोई जिम्मेदारी नहीं?

गंभीर दंड देने का प्रावधान

वैश्विक परिदृश्य में, नॉर्वे जैसे देशों में बच्चों के खिलाफ किसी भी अपराध के लिए गंभीर दंड देने का प्रावधान हैं. सख्त प्रतिबंधों के साथ, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम बाल देखभाल पर विशेष जोर देते हैं. इसी तरह से, जब देश की कानून प्रवर्तन में कानून और व्यवस्था की स्थिति में सुधार होता है, तभी यह अनाथालयों और बच्चों के संरक्षण केंद्रों को उनके नाम के अनुकूल स्थापित होने में मदद करेगा और बेसहारा बच्चों के भक्षक नहीं रक्षक बनेंगे. इन मासूम जिंदगियों को बेहतर और सुरक्षित जगह मुहैया करा सकेंगे!

हैदराबाद: तकरीबन दो साल पहले बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर का नाम पूरे देश में गूंज रहा था. नाम गूंजे भी क्यों न क्योंकि शहर में स्थित एक संरक्षण केंद्र की 34 लड़कियों पर हुए क्रूर यौन हमले की चौंकाने वाली ख़बरें महीनों तक जो आती रहीं. टीआईएसएस (टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस) की उजागर की गई सर्वेक्षण रिपोर्टों के अनुसार 15 और संरक्षण केंद्रों को दिल दहला देने वाले हालात पैदा करने का दोषी पाया गया था.

सुप्रीम कोर्ट भी उठा चुकी सवाल

रिपोर्ट में दिए गये तथ्यों के साथ उत्तर प्रदेश के देवरिया में भी एक संरक्षण केंद्र में चल रहे वेश्यावृत्ति के रैकेट की खबरें विवाद का एक बड़ा कारण बनी थी. सुप्रीम कोर्ट ने सीधे तौर पर लचर प्रणाली पर सवाल उठाते हुए कहा कि इन पीड़ितों के लिए सुरक्षा कहां है. जब आश्रय और सहारा देने वाले देने वाले हाथ ही उन्हें ऐसे कालकोठरियों में धकेल रहे हैं. उस संदर्भ में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार सभी राज्यों में संरक्षण केंद्रों की स्थिति चिंताजनक है! वहीं, एनसीपीसीआर का अनुमान है कि ऐसे समस्याग्रस्त संरक्षण केंद्रों की संख्या, जिनमें शरण लेने वालों को शारीरिक और यौन हमलों से बचाने की किसी उचित व्यवस्था नहीं है, उनमें त्रिपुरा (जो लगभग 86.8 प्रतिशत है) टॉप पर है. इसके बाद कर्नाटक(74.2%) है, जबकि ओडिशा(68)%), केरल (63.4%) और असम (60.9%) का स्थान आता है.

इन राज्यों की हालत बेहद खराब

आकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि न केवल सरकार द्वारा संचालित संरक्षण गृह, बल्कि निजी आश्रय गृह जो कि अंतरराष्ट्रीय दानदाताओं के मोटे दान से चलते हैं, वे भी कोई बेहतर प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं. आंध्र प्रदेश में गैर-सरकारी संगठनों द्वारा संचालित 145 संरक्षण केंद्रों में लगभग 6200 बच्चों को 1 वित्तीय वर्ष की अवधि में 400 करोड़ रुपये से अधिक की धनराशि मिली है. यह औसत प्रति व्यक्ति रु. 6.6 लाख प्रति बच्चा है. वहीं, तेलंगाना जैसे कई राज्यों में प्रति व्यक्ति वित्त पोषण रु. 3.88 लाख है, इसके बाद बाहरी और अंतरराष्ट्रीय दाताओं के माध्यम से केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु में 2 लाख रुपये से अधिक धन राशि प्राप्त होती है.

सुशासन बाबू ने व्यकित की थी सहमति

इसके बावजूद जरूरी मुद्दों को संबोधित करने के लिए पर्याप्त देखभाल नहीं की जा रही है जैसे -पर्याप्त स्टाफ और बुनियादी ढांचे की आवश्यकताओं की कमी. यह एक मजबूत संकेत है कि सभी प्राप्त धन को कहीं और इस्तेमाल किया जा रहा है! इससे पहले, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस बात पर सहमति व्यक्त की है कि मुज़फ़्फ़रपुर की तरह की घटनाएं होने की संभावना है यदि दोषियों के खिलाफ कोई सख्त कानून और कड़ी कार्रवाई नहीं होती है. हालांकि, ऐसे और भी मुज़फ़्फ़रपुर हैं जो आज देश में रोजाना फल-फूल रहे हैं!

नियमों के तहत संरक्षण केंद्रों का होना चाहिए रजिस्ट्रेशन

भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 और 34 की मूल प्रेरणा यह है कि जो बच्चे इस भूमि पर जन्म लेते हैं और अपनी आंखें खोलते हैं, उन्हें किसी भी प्रकार के भेदभाव या यौन हिंसा का शिकार नहीं होना पड़ेगा. इसके जवाब में, सर्वोच्च न्यायलय ने मई 2017 में स्पष्ट किया था कि सभी बाल संरक्षण केंद्रों को कुछ नियमों के तहत पंजीकृत किया जाना चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि सामाजिक ऑडिट एक निर्दिष्ट अवधि के भीतर नियमित रूप से आयोजित किए जाने चाहिए. केंद्रीय महिला और बाल कल्याण मंत्रालय ने बाल कानून (किशोर न्याय) अधिनियम के तहत देश में हर बाल संरक्षण केंद्र के पंजीकरण की तारीख के रूप में उसी वर्ष (2017) को 1 दिसंबर निर्धारित कर दी थी.

अभी भी नियमों की धज्जियां उड़ा रहे कई केंद्र

एनसीपीसीआर के अध्ययन से पता चलता है कि महाराष्ट्र (88.9 प्रतिशत), त्रिपुरा (52.6 प्रतिशत), दिल्ली (46.8 प्रतिशत), केरल (41.6 प्रतिशत) और तेलंगाना (40.1 प्रतिशत) में ऐसे कई बाल संरक्षण केंद्र हैं, जो अभी भी नियमों की धज्जियां उड़ा रहे हैं. यहां तक कि जहां जिला कल्याण और बाल संरक्षण समितियों जैसे सरकारी अधिकारियों के पहुंच बनाने की संभावना है, वे इन केंद्रों में जा सकते हैं और निरीक्षण कर सकते हैं. उनके लिए भी केंद्र परिसर में कदम रखना असंभव हो रहा है, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि अदृश्य राजनीतिक शक्तियां यहां अपना चक्रव्यूह बनाये हुए है और इन संरक्षण केंद्रों और निरीक्षण समितियों के बीच एक अदृश्य अवरोध बनाने में सफल हो रहीं हैं. यहां तक कि तेलंगाना के अमीनापुर में एक संरक्षण केंद्र में हाल ही में हुई शर्मनाक घटनाएं इस अनैतिक रिश्ते के ताजा उदाहरण के रूप में खड़ी हैं, जो संरक्षण केंद्र के प्रबंधकों, सरकार/निरीक्षण समिति के अधिकारियों और स्थानीय जमींदारों के बीच मौजूद हैं.

पढ़ें: बेलगाम आपराधिक राजनीति : क्या निर्वाचन आयोग की कोई जिम्मेदारी नहीं?

गंभीर दंड देने का प्रावधान

वैश्विक परिदृश्य में, नॉर्वे जैसे देशों में बच्चों के खिलाफ किसी भी अपराध के लिए गंभीर दंड देने का प्रावधान हैं. सख्त प्रतिबंधों के साथ, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम बाल देखभाल पर विशेष जोर देते हैं. इसी तरह से, जब देश की कानून प्रवर्तन में कानून और व्यवस्था की स्थिति में सुधार होता है, तभी यह अनाथालयों और बच्चों के संरक्षण केंद्रों को उनके नाम के अनुकूल स्थापित होने में मदद करेगा और बेसहारा बच्चों के भक्षक नहीं रक्षक बनेंगे. इन मासूम जिंदगियों को बेहतर और सुरक्षित जगह मुहैया करा सकेंगे!

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