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जानें, क्या है दल-बदल विरोधी कानून और क्या हैं इनके प्रावधान - आया राम, गया राम

1967 में हरियाणा के एक विधायक गया लाल ने एक दिन में तीन बार पार्टी बदली थी. इसके बाद से 'आया राम, गया राम' मुहावरा खूब प्रचलित हुआ था. इस घटना के बाद राजनीतिक दलों ने दल-बदल कानून लाने पर गंभीरता से विचार किया और 1985 में एक कानून लेकर आए. हालांकि, अब विधायकों ने इसका भी 'तोड़' निकाल लिया है. क्या है दल-बदल विरोधी कानून और क्या हैं इसके प्रावधान, आइए इस पर डालते हैं एक नजर.

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Published : Mar 13, 2020, 9:13 PM IST

Updated : Mar 17, 2020, 3:56 PM IST

हैदराबाद : मध्यप्रदेश में सियासी उठापटक जारी है. कमलनाथ सरकार बचेगी या जाएगी, कहना मुश्किल है. कई विधायकों ने बगावत कर दी है. कुछ के इस्तीफे भी आ चुके हैं. ऐसे में यह जानना जरूरी है कि आखिर क्या इन विधायकों पर दल-बदल विरोधी कानून के तहत कोई कार्रवाई की जा सकती है या नहीं. क्या है यह कानून और क्या हैं इनके प्रावधान, आइए इन पर एक नजर डालते हैं.

क्या है दल बदल विरोधी कानून
दल-बदल विरोधी कानून एक मार्च 1985 को अस्तित्व में आया था. इसका उद्देश्य अपनी सुविधा के हिसाब से पार्टी बदल लेने वाले विधायकों और सांसदों पर लगाम लगाना था. 1985 में संविधान में 10वीं अनुसूची जोड़ी गई. यह संविधान में 52वां संशोधन था.

1985 से पहले दल-बदल के खिलाफ कोई कानून नहीं था. नेताओं द्वारा दल-बदल को लेकर उस समय 'आया राम गया राम' मुहावरा खूब प्रचलित था.

दरअसल 1967 में हरियाणा के एक विधायक गया लाल ने एक दिन में तीन बार पार्टी बदली, जिसके बाद से 'आया राम गया राम' प्रचलित हो गया.

1985 में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार इसके खिलाफ विधेयक लेकर आई.

इसमें विधायकों और सांसदों के पार्टी बदलने पर लगाम लगाने का काम किया. इसमें यह भी बताया गया है कि दल-बदल के कारण किस तरह से सदस्यता खत्म हो सकती है.

ईटीवी भारत की रिपोर्ट

कब-कब लागू होगा दल-बदल कानून
अगर कोई विधायक या सांसद खुद ही अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है, तो उस पर यह कानून लागू नहीं होता है. अगर कोई निर्वाचित विधायक या सांसद पार्टी लाइन के खिलाफ जाता है, या सदस्य पार्टी व्हिप के बावजूद वोट नहीं करता है, या फिर कोई सदस्य सदन में पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करता है, तो उस पर यह कानून लागू होता है.

इसके अलावा किसी पार्टी के दो तिहाई विधायक या सांसद दूसरी पार्टी के साथ जाना चाहें, तो उनकी सदस्यता खत्म नहीं होगी.

इन परिस्थितियों में नहीं जाती है सदस्यता
विधायक कुछ परिस्थितियों में सदस्यता गंवाने से बच सकते हैं. अगर एक पार्टी के दो तिहाई सदस्य मूल पार्टी से अलग होकर दूसरी पार्टी में मिल जाते हैं, तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी. ऐसी में न तो दूसरी पार्टी में विलय करने वाले सदस्य और न ही मूल पार्टी में रहने वाले सदस्य अयोग्य ठहराए जा सकते हैं.

इसके अलावा जब पूरी की पूरी राजनीतिक पार्टी अन्य राजनीति पार्टी के साथ मिल जाती है तो यह कानून लागू नहीं होता. अगर किसी पार्टी के निर्वाचित सदस्य एक नई पार्टी बना लेते हैं तो भी यह कानून लागू नहीं होगा. अगर किसी पार्टी के सदस्य दो पार्टियों का विलय स्वीकार नहीं करते और विलय के समय अलग ग्रुप में रहना स्वीकार करते हैं तब भी विधायक या सांसद की सदस्यता को कोई खतरा नहीं है. इसके अलावा जब किसी पार्टी के दो तिहाई सदस्य अलग होकर नई पार्टी में शामिल हो जाते हैं तो भी यह कानून लागू नहीं होता.

दल-बदल कानून में संशोधन
वर्ष 2003 में इस कानून में संशोधन किया गया. जब यह कानून बना तो प्रावधान यह था कि अगर किसी भी पार्टी में बंटवारा होता है और एक तिहाई विधायक एक नया ग्रुप बनाते हैं, तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी. लेकिन इसके बाद बड़े पैमाने पर दल-बदल हुए और ऐसा महसूस किया कि पार्टी में टूट के प्रावधान का फायदा उठाया जा रहा है. इसलिए यह प्रावधान भी खत्म कर दिया गया.

इसके बाद संविधान में 91वां संशोधन जोड़ा गया. जिसमें व्यक्तिगत ही नहीं, सामूहिक दल बदल को असंवैधानिक करार दिया गया.

दल बदल को लेकर स्पीकर की शक्ति
10वीं अनुसूची के पैराग्राफ छह के मुताबिक स्पीकर का दल-बदल को लेकर जो भी फैसला होगा वह आखिरी होगा. पैराग्राफ सात में कहा गया है कि कोई कोर्ट इसमें दखल नहीं दे सकता. लेकिन 1991 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने 10वीं अनुसूची को वैध तो ठहराया, लेकिन पैराग्राफ सात को असंवैधानिक घोषित कर दिया.

सुप्रीम कोर्ट ने ये भी स्पष्ट कर दिया कि स्पीकर के फैसले की कानूनी समीक्षा हो सकती है.

कानून में खामियां
यदि अयोग्यता याचिकाओं पर अध्यक्ष निर्णय नहीं लेता है तो क्या होगा ? दसवीं अनुसूची में ऐसे मुद्दों के बारे में कोई उल्लेख नहीं है. ऐसा इसलिए किया गया है, ताकि इस तरह के जोड़तोड़ और रणनीतियों को अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहित किया जा सके.

कानून में एक जानबूझकर दोष प्रतीत होता है. यह देखते हुए कि पीठासीन अधिकारी द्वारा मामले पर फैसला दिए जाने के बाद ही अदालतें हस्तक्षेप कर सकती हैं, अयोग्यता की मांग करने वाले याचिकाकर्ता के पास निर्णय का इंतजार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.

दल-बदल कानून के दायरे से बचने के लिए विधायक या सांसद इस्तीफा दे रहे हैं.

दल बदल कानून से बचने के लिए विधायकों ने नया तरीका निकाल लिया है. वह इससे बचने के लिए इस्तीफा दे रहे हैं, इसलिए ऐसा प्रावधान किया जाना चाहिए कि जिस अवधि के लिए वो चुने गए थे, उन्हें उस वक्त तक चुनाव नहीं लड़ने दिया जाएगा.

कानून में बदलाव की जरूरत
विशेषज्ञों का मानना है कि दल बदल कानून में संशोधन कर यह प्रावधान किया जाना चाहिए कि दल बदल करने वाला विधायक पूरे पांच साल के टर्म में चुनाव नहीं लड़ सकता. इस मामले पर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी ने कहा कि हॉर्स ट्रेडिंग (नेताओं की खरीद फरोख्त) को रोकने के लिए ही दल-बदल विरोधी कानून बना था. मगर इस समय इसके मद्देनजर कोई फायदा नहीं हो पा रहा है.

कुरैशी ने यह सुझाव दिया है कि इस कानून में बड़े बदलाव की जरूरत है और खासतौर पर जो विधायक दल-बदलू हैं, उन पर छह साल तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगाने की जरूरत है.

हैदराबाद : मध्यप्रदेश में सियासी उठापटक जारी है. कमलनाथ सरकार बचेगी या जाएगी, कहना मुश्किल है. कई विधायकों ने बगावत कर दी है. कुछ के इस्तीफे भी आ चुके हैं. ऐसे में यह जानना जरूरी है कि आखिर क्या इन विधायकों पर दल-बदल विरोधी कानून के तहत कोई कार्रवाई की जा सकती है या नहीं. क्या है यह कानून और क्या हैं इनके प्रावधान, आइए इन पर एक नजर डालते हैं.

क्या है दल बदल विरोधी कानून
दल-बदल विरोधी कानून एक मार्च 1985 को अस्तित्व में आया था. इसका उद्देश्य अपनी सुविधा के हिसाब से पार्टी बदल लेने वाले विधायकों और सांसदों पर लगाम लगाना था. 1985 में संविधान में 10वीं अनुसूची जोड़ी गई. यह संविधान में 52वां संशोधन था.

1985 से पहले दल-बदल के खिलाफ कोई कानून नहीं था. नेताओं द्वारा दल-बदल को लेकर उस समय 'आया राम गया राम' मुहावरा खूब प्रचलित था.

दरअसल 1967 में हरियाणा के एक विधायक गया लाल ने एक दिन में तीन बार पार्टी बदली, जिसके बाद से 'आया राम गया राम' प्रचलित हो गया.

1985 में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार इसके खिलाफ विधेयक लेकर आई.

इसमें विधायकों और सांसदों के पार्टी बदलने पर लगाम लगाने का काम किया. इसमें यह भी बताया गया है कि दल-बदल के कारण किस तरह से सदस्यता खत्म हो सकती है.

ईटीवी भारत की रिपोर्ट

कब-कब लागू होगा दल-बदल कानून
अगर कोई विधायक या सांसद खुद ही अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है, तो उस पर यह कानून लागू नहीं होता है. अगर कोई निर्वाचित विधायक या सांसद पार्टी लाइन के खिलाफ जाता है, या सदस्य पार्टी व्हिप के बावजूद वोट नहीं करता है, या फिर कोई सदस्य सदन में पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करता है, तो उस पर यह कानून लागू होता है.

इसके अलावा किसी पार्टी के दो तिहाई विधायक या सांसद दूसरी पार्टी के साथ जाना चाहें, तो उनकी सदस्यता खत्म नहीं होगी.

इन परिस्थितियों में नहीं जाती है सदस्यता
विधायक कुछ परिस्थितियों में सदस्यता गंवाने से बच सकते हैं. अगर एक पार्टी के दो तिहाई सदस्य मूल पार्टी से अलग होकर दूसरी पार्टी में मिल जाते हैं, तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी. ऐसी में न तो दूसरी पार्टी में विलय करने वाले सदस्य और न ही मूल पार्टी में रहने वाले सदस्य अयोग्य ठहराए जा सकते हैं.

इसके अलावा जब पूरी की पूरी राजनीतिक पार्टी अन्य राजनीति पार्टी के साथ मिल जाती है तो यह कानून लागू नहीं होता. अगर किसी पार्टी के निर्वाचित सदस्य एक नई पार्टी बना लेते हैं तो भी यह कानून लागू नहीं होगा. अगर किसी पार्टी के सदस्य दो पार्टियों का विलय स्वीकार नहीं करते और विलय के समय अलग ग्रुप में रहना स्वीकार करते हैं तब भी विधायक या सांसद की सदस्यता को कोई खतरा नहीं है. इसके अलावा जब किसी पार्टी के दो तिहाई सदस्य अलग होकर नई पार्टी में शामिल हो जाते हैं तो भी यह कानून लागू नहीं होता.

दल-बदल कानून में संशोधन
वर्ष 2003 में इस कानून में संशोधन किया गया. जब यह कानून बना तो प्रावधान यह था कि अगर किसी भी पार्टी में बंटवारा होता है और एक तिहाई विधायक एक नया ग्रुप बनाते हैं, तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी. लेकिन इसके बाद बड़े पैमाने पर दल-बदल हुए और ऐसा महसूस किया कि पार्टी में टूट के प्रावधान का फायदा उठाया जा रहा है. इसलिए यह प्रावधान भी खत्म कर दिया गया.

इसके बाद संविधान में 91वां संशोधन जोड़ा गया. जिसमें व्यक्तिगत ही नहीं, सामूहिक दल बदल को असंवैधानिक करार दिया गया.

दल बदल को लेकर स्पीकर की शक्ति
10वीं अनुसूची के पैराग्राफ छह के मुताबिक स्पीकर का दल-बदल को लेकर जो भी फैसला होगा वह आखिरी होगा. पैराग्राफ सात में कहा गया है कि कोई कोर्ट इसमें दखल नहीं दे सकता. लेकिन 1991 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने 10वीं अनुसूची को वैध तो ठहराया, लेकिन पैराग्राफ सात को असंवैधानिक घोषित कर दिया.

सुप्रीम कोर्ट ने ये भी स्पष्ट कर दिया कि स्पीकर के फैसले की कानूनी समीक्षा हो सकती है.

कानून में खामियां
यदि अयोग्यता याचिकाओं पर अध्यक्ष निर्णय नहीं लेता है तो क्या होगा ? दसवीं अनुसूची में ऐसे मुद्दों के बारे में कोई उल्लेख नहीं है. ऐसा इसलिए किया गया है, ताकि इस तरह के जोड़तोड़ और रणनीतियों को अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहित किया जा सके.

कानून में एक जानबूझकर दोष प्रतीत होता है. यह देखते हुए कि पीठासीन अधिकारी द्वारा मामले पर फैसला दिए जाने के बाद ही अदालतें हस्तक्षेप कर सकती हैं, अयोग्यता की मांग करने वाले याचिकाकर्ता के पास निर्णय का इंतजार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.

दल-बदल कानून के दायरे से बचने के लिए विधायक या सांसद इस्तीफा दे रहे हैं.

दल बदल कानून से बचने के लिए विधायकों ने नया तरीका निकाल लिया है. वह इससे बचने के लिए इस्तीफा दे रहे हैं, इसलिए ऐसा प्रावधान किया जाना चाहिए कि जिस अवधि के लिए वो चुने गए थे, उन्हें उस वक्त तक चुनाव नहीं लड़ने दिया जाएगा.

कानून में बदलाव की जरूरत
विशेषज्ञों का मानना है कि दल बदल कानून में संशोधन कर यह प्रावधान किया जाना चाहिए कि दल बदल करने वाला विधायक पूरे पांच साल के टर्म में चुनाव नहीं लड़ सकता. इस मामले पर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी ने कहा कि हॉर्स ट्रेडिंग (नेताओं की खरीद फरोख्त) को रोकने के लिए ही दल-बदल विरोधी कानून बना था. मगर इस समय इसके मद्देनजर कोई फायदा नहीं हो पा रहा है.

कुरैशी ने यह सुझाव दिया है कि इस कानून में बड़े बदलाव की जरूरत है और खासतौर पर जो विधायक दल-बदलू हैं, उन पर छह साल तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगाने की जरूरत है.

Last Updated : Mar 17, 2020, 3:56 PM IST
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