हैदराबाद : तालिबान ने 20 साल बाद दोबारा अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया. राष्ट्रपति अशरफ गनी की सरकार अमेरिकी सैनिकों के अफगानिस्तान छोड़ने के करीब तीन सप्ताह बाद ही सत्ता से बेदखल हो गई. 4 मई को तालिबान के हमले की पहली खबर आई थी. 15 अगस्त यानी रविवार देर शाम राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी और उपराष्ट्रपति अमीरुल्लाह सालेह ने देश छोड़ दिया. न्यूज चैनल अल-जजीरा ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया है कि राष्ट्रपति अपने परिवार, सेना प्रमुख और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के साथ उज़्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद गए हैं. हालांकि इस बीच ओमान के रास्ते उनके अमेरिका जाने की उम्मीद जताई जा रही है. दूसरी तरफ तालिबान ने अधिकारिक तौर पर काबुल में राष्ट्रपति भवन समेत सरकारी दफ्तरों को कब्ज़े में लेने की पुष्टि की है. उधर, पाकिस्तान के अलावा रूस और चीन ने भी तालिबान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है.
तालिबान के काबिज होने के बाद काबुल एयरपोर्ट पर अफगानिस्तान छोड़कर जाने वालों की भीड़ जमा हो गई. मगर तालिबान ने अफगानिस्तान में हवाई क्षेत्र को बंद कर दिया है. 16 अगस्त को आई रिपोर्टस के मुताबिक वहां 1500 भारतीय फंसे हुए हैं. भारत सरकार ने एयर इंडिया की कुछ फ्लाइट्स को एयर लिफ्ट के लिए तैयार रखा है. उधर, काबुल एयरपोर्ट को अमेरिकी सैनिकों ने अपने कब्जे ले लिया. वहां मची अफरातफरी के बाद गोलीबारी में 5 लोगों की मौत भी हो गई.
तालिबान ने अफगानिस्तान का नाम फिर बदल दिया
20 साल बाद सत्ता में वापसी के बाद तालिबान ने अफगानिस्तान का नाम फिर इस्लामी अमीरात ऑफ अफगानिस्तान (Islamic Emirate of Afghanistan) रखने का एलान किया है. चिंता जताई जा रही है कि इस इस्लामिक अफगानिस्तान में फिर महिलाओं की स्थिति खराब होगी. अजीबोगरीब तरीकों से न्यायिक फैसले होंगे. तालिबान प्रवक्ता ने भी कहा है कि अफगानिस्तान में शरीयत का कानून चलेगा. वह शरीयत के सिद्धांतों को नहीं बदल सकते हैं.
चिंता का विषय, फिर लौटेगा तालिबानी सजा का दौर
अपने पहले दौर में तालिबान ने इस्लामिक कानून को सख्ती से लागू किया था. मसलन मर्दों का दाढ़ी बढाना और महिलाओं का बुर्का पहनना अनिवार्य कर दिया था. महिलाओं के नौकरी करने और बिना किसी मर्द के घर से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी थी. सिनेमा, संगीत और लड़कियों की पढ़ाई पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. नियम तोड़ने वालों को खुलेआम बीच सड़क पर सजा दी जाती थी. इसके अलावा तालिबान लड़ाकों ने बामियान में यूनेस्को संरक्षित बुद्ध की प्रतिमा भी तोड़ दी थी.
कौन है तालिबान, जिसने अमेरिका को भी मजबूर कर दिया
तालिबान का अफगानिस्तान में उदय 90 के दशक में हुआ. सोवियत सैनिकों के लौटने के बाद वहां अराजकता का माहौल पैदा हुआ, जिसका फायदा तालिबान ने उठाया. उसने दक्षिण-पश्चिम अफगानिस्तान से अपना प्रभाव बढ़ाया. सितंबर 1995 में तालिबान ने ईरान सीमा से लगे हेरात प्रांत पर कब्ज़ा कर लिया. 1996 में अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी को सत्ता से हटाकर काबुल पर कब्जा कर लिया था. तब सिर्फ पाकिस्तान और सऊदी अरब ने ही तालिबानी सरकार को मान्यता दी थी. 9/11 हमलों के बाद तालिबान ने ओसामा बिन लादेन को सौंपने से मना कर दिया था. 2002 में NATO ने अफगानिस्तान की सुरक्षा अपने हाथ में ले ली. हामिद करजई को पहला राष्ट्रपति चुना गया. 2014 से अमेरिका अफगानिस्तान में सैनिकों की संख्या कम करने लगा. इसके साथ ही तालिबान फिर बढ़ने लगा.
अमेरिका ने 20 साल में करोड़ों गंवाए
अमेरिका ने 29 फरवरी 2021 को तालिबान के साथ शांति समझौता किया. 15 अगस्त को तालिबान ने अफगानिस्तान को दोबारा कब्जे में लिया. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 20 सालों में 3500 से अधिक सैनिक (अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के) मारे गए. इसी दौरान करीब अफगानिस्तान सुरक्षा बलों के करीब 69 हजार जवान मारे गए. कई अमेरिकी सैनिक अपाहिज हो गए. अमेरिका ने पिछले 20 सालों में 1 लाख करोड़ डॉलर खर्च किये हैं.
किसके इशारे पर चलता है तालिबान, कौन संभालेगा 'सल्तनत'
1996 से 2001 के बीच शासन के दौरान सत्ता चलाने वाले कमांडरों के नाम गुप्त रखे गए थे. तब मुल्ला उमर तालिबान का सुप्रीम कमांडर था. आज भी तालिबान खुले तौर से सत्ता संभालने वाले प्रमुख लोगों के नाम का खुलासा नहीं करता है. मीडिया रिपोर्टस के मुताबिक, करीब 80 हजार मुख्य लड़ाकों के साथ अफगानिस्तान पर राज करने वाला तालिबान 4 प्रमुख लोगों के इशारे पर काम करता है. हैबतुल्ला अखुंदजादा, अब्दुल गनी बरादर, सिराजुद्दीन हक्कानी और मुल्ला याकूब.
हैबतुल्लाह अखुंदज़ादा सर्वोच्च नेता
इसमें पहला नाम हैबतुल्ला अखुंदजादा (Haibatullah Akhundzada) का है. 2016 में मुल्ला मंसूर अख्तर (Mullah Mansour Akhtar) की मौत के बाद तालिबान का सुप्रीम लीडर बना. मंसूर अख्तर ड्रोन हमले में मारा गया था. मुल्ला उमर की मौत के बाद इसने दोबारा लड़ाकों को एकजुट किया. मुख्य रूप से आध्यात्मिक नेता के तौर पर उसकी पहचान थी. मगर तालिबान सुप्रीमो बनने पर उसने हर गुट का समर्थन हासिल किया. अल कायदा के अल जवाहिरी ने उसे 'वफादारों का अमीर' का खिताब दिया था.
तालिबान का संस्थापक मुल्ला अब्दुल गनी बरादर
अब्दुल गनी बरादर ( abdul ghani baradar) कंधार में पैदा हुआ अफगानी है. 1979 में सोवियत संघ की आर्मी के अफगानिस्तान में हस्तक्षेप के दौरान बरादर स्थानीय मुजाहिदीनों में शामिल हो गया. माना जाता है कि उसने मौलवी मुल्ला उमर के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी थी. सोवियत सैनिकों की वापसी के बाद भड़के गृहयुद्ध का फायदा उठाकर 1990 के दशक की शुरुआत में दोनों ने तालिबान को संगठित किया. 2001 में तालिबान के पतन के बाद वह विद्रोहियों के एक छोटे समूह के साथ पाकिस्तान में अंडर ग्राउंड रहा. अमेरिकी दवाब के बाद 2010 में उसे गिरफ्तार किया गया. 2018 में रिहा होने के बाद वह तालिबान के राजनीतिक कार्यालय का प्रमुख बना. अमेरिकियों के साथ वापसी समझौते पर बरादर के ही सिग्नेचर हैं.
सिराजुद्दीन हक्कानी- हक्कानी नेटवर्क का मुखिया
सिराजुद्दीन हक्कानी (Sirajuddin Hakkani) सोवियत विरोधी जिहाद के प्रसिद्ध कमांडर जलालुद्दीन हक्कानी का बेटा है. उसे तालिबान के उप नेता का दर्जा दिया गया है. हक्कानी नेटवर्क का खौफ तालिबान की हुकूमत का पहला दौर खत्म होने के बाद भी रहा. अमेरिका ने हक्कानी नेटवर्क को आतंकवादी समूह घोषित कर दिया था. यह ग्रुप अपने आत्मघाती हमलों से अफगान और अमेरिका के नेतृत्व वाली नाटो सेना को चैलेंज करता रहा. माना जाता है कि इसने काबुल में पिछले कुछ वर्षों में सबसे हाई-प्रोफाइल हमलों में से कुछ को अंजाम दिया है. तालिबान की नेतृत्व परिषद पर सिराजुद्दीन का काफी प्रभाव है.
मुल्ला याकूब, तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर का बेटा
मुल्ला याकूब तालिबान के शक्तिशाली सैन्य आयोग का नेतृत्व करता है. वह पिछले कई वर्षों से जंग और हमलों की रणनीति भी तय करता है. फील्ड कमांडरों का एक विशाल नेटवर्क उसकी देखरेख में काम करता है. कुछ विश्लेषकों का तर्क है कि 2020 में जो पद दिया गया वह केवल दिखावटी था.
गद्दी संभालने पर तालिबान कैसे करेगा कमाई
ड्रग्स : तालिबान की आय का स्रोत नशीली दवाओं की तस्करी, खनन, फिरौती और लोगों से मिलने वाला दान है. दुनिया में अफ़ीम की 90 फीसदी पैदावार अफगानिस्तान में होती है. इसकी खेती ग़ैरक़ानूनी है. मीडिया रिपोर्टस के मुताबिक, अफगानिस्तान की जीडीपी में 7 प्रतिशत हिस्सा डोडा पोस्त से होने वाली आय का है. अमेरिका ने 15 वर्षों में 8 बिलियन डॉलर से अधिक खर्च किए, मगर इस कारोबार को रोक नहीं पाया. अब करीब 416 मिलियन डॉलर के कारोबार पर तालिबान का कब्जा होगा.
खनन : अफगानिस्तान में कॉपर और जिंक की माइनिंग होती है. तालिबान का इस पर पहले से ही प्रभुत्व रहा है. वह पिछले साल 464 मिलियन डॉलर कमा चुका है.
रंगदारी और चंदा : तालिबान फिरौती से 160 मिलियन डॉलर कमाता है. आंकड़े बताते हैं कि पाकिस्तान और कई मुस्लिमों देश से उसे 2020 में 240 मिलियन डॉलर का चंदा मिला. साथ ही रूस, ईरान, पाकिस्तान और सऊदी अरब जैसे देशों से भी सहायता मिली.
इसके अलावा निर्यात पर भी टैक्स वसूली से हर साल 240 मिलियन डॉलर और रियल एस्टेट कारोबार से हर साल 80 मिलियन डॉलर कमाता है. तालिबान 2.92 करोड़ की आबादी वाले अफगानिस्तान पर काबिज हो चुका है, इसलिए अब वहां की अर्थव्यवस्था पर उसका पूरा कब्जा होगा. वहां का व्यापार तंत्र तालिबान के पूर्ण नियंत्रण में पहले ही आ चुका है. मई के बाद से कई सीमाओं पर टैक्स तालिबान ही वसूल रहा था.
भारत के 3 बिलियन डॉलर के निवेश पर भी संकट
फिलहाल अफगानिस्तान में 1500 भारतीय फंसे हैं. भारत सरकार ने पिछले 20 साल में कई प्रोजेक्ट्स में करीब 3 बिलियन डॉलर का निवेश किया है. इन सालों में भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में क़रीब 500 छोटी-बड़ी परियोजनाओं में निवेश किया है. भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में संसद भवन, सलमा बांध और ज़रांज-देलाराम हाइवे प्रोजेक्ट में भारी निवेश किया है. इनके अलावा भारत ईरान के चाबहार बंदरगाह के विकास का काम कर रहा है. चाबहार चीन के ग्वादर प्रोजेक्ट के जवाब में था. इसे जोड़ने वाली सड़क अफ़ग़ानिस्तान से होकर जाती है. तालिबानी राज में इसका पूरा होना नामुमकिन है. इसके अलावा इसका असर कश्मीर में आतंकी गतिविधियों पर पड़ सकता है.