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स्वर्णरेखा परियोजना की अधूरी दास्तां, अपने हक के लिए विस्थापित कर रहे प्रदर्शन

स्वर्णरेखा नदी पर देश की सबसे बड़ी नदी घाटी परियोजना 41 साल बाद भी अधर में लटका है. जिसके कारण स्वर्णरेखा परियोजना की लागत 400 करोड़ से बढ़कर 1000 करोड़ रुपए हो गई. वहीं, उचित मुआवजे को लेकर स्थानीय इसका लगातार विरोध कर रहे हैं.

स्वर्णरेखा परियोजना
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Published : Sep 20, 2019, 3:24 PM IST

चाईबासा: स्वर्णरेखा नदी पर देश की सबसे बड़ी नदी घाटी बहुउद्देशीय परियोजना केंद्र सरकार से प्रस्तावित है. इस परियोजना की नींव 1978 में रखी गई, जिससे देश के 3 राज्यों को सीधा फायदा पहुंचने वाला है. झारखंड की सबसे बड़ी दामोदर नदी के बाद राज्य की दूसरी बड़ी नदी स्वर्णरेखा है.

देखें पूरी खबर

परियोजना की लागत बढ़कर 1000 करोड़ रुपए हुई

स्वर्णरेखा बहुद्देशीय परियोजना अब 1000 करोड़ में पूरी होगी. केंद्र सरकार के जल शक्ति मंत्रालय से इसकी प्रशासनिक स्वीकृति भी मिल गयी है. गौरतलब है कि स्वर्णरेखा परियोजना का काम 1978 में 400 करोड़ की लागत से शुरू हुआ था. लगभग 41 साल पहले शुरू हुई इस परियोजना की लागत अब कई गुणा बढ़ गई है. इस परियोजना में वर्ल्ड बैंक ने भी दिलचस्पी दिखाई है. अगर यह परियोजना अब तक पूरी हो गई होती तो झारखंड के विकास में यह मील का पत्थर साबित होता. लेकिन करीब 4 दशक बीत जाने के बाद भी स्वर्णरेखा परियोजना अधर में है.

41 वर्षों से अधर में परियोजना

कोल्हान प्रमंडल क्षेत्र में आने वाली इस परियोजना की नींव 1978 में रखी गई थी. जिसका मकसद था बिहार के साथ ओडिशा और पश्चिम बंगाल में सिंचाई के लिए पानी की व्यवस्था हो सके. जिसके माध्यम से किसानों के जीवन स्तर में सुधार हो सके और बांध से विद्युत उत्पादन कर देश की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाया जा सके, लेकिन सरकारी उदासीनता के कारण लगभग 41 साल बीत जाने के बाद भी यह परियोजना अधर में है.

बिहार सरकार ने साल 1978 से 1980 तक इस परियोजना के तहत बनाए जा रहे इचा खरकई बांध का 30 फीसदी तक काम पूरा कर लिया गया था. लेकिन कुछ साल बाद उन्होंने इस परियोजना से अपना हाथ खींच लिया. बिहार विभाजन के बाद यह परियोजना झारखंड के हिस्से में आ गई. झारखंड की नई सरकार ने इस परियोजना को महत्वाकांक्षी बताते हुए काम तो शुरू किया, लेकिन दशकों बीत जाने के बाद भी यह परियोजना अभी तक अधूरी है.

ये भी पढ़ें- रिनपास में बंद हुई बिहार के मरीजों की भर्ती, बिहार सरकार पर संस्थान का 76 करोड़ है बकाया

विस्थापित कर रहे विरोध

इधर, बांध बनने की सुगबुगाहट से इसके जद में आने वाले 87 गांव के लोगों ने इस परियोजना का विरोध करना शुरू कर दिया है. अविभाजित बिहार सरकार के शासनकाल में झारखंड मुक्ति मोर्चा ने इस मुद्दे को लेकर काफी राजनीति की और इस पार्टी को लोगों ने समर्थन भी दिया. इन सबके बीच सरकार ने अपने अधिकार और बल का प्रयोग करते हुए बांध के दोनों ओर से नहर बनाने का काम शुरू कर दिया. इस नहर में से एक नहर ओडिशा तक भी जाती है, जबकि दूसरी नहर पश्चिम बंगाल के कई गांवों तक पहुंची है.

इस परियोजना से प्रभावित लोग कई शर्तों के आधार पर नौकरी और उचित मुआवजा मिलने की सूरत में बांध निर्माण को लेकर राजी भी हो गए. लेकिन सरकार की सारी घोषणाएं अब तक फाइलों में ही सिमटी हुई है. नतीजा यह हुआ कि लोगों को मुआवजे के नाम पर औने-पौने दामों में अपनी पुश्तैनी जमीन को विकास के नाम पर सरकार को सौंपनी पड़ी. लेकिन आज लोगों का विरोध भी कम होने का नाम नहीं ले रहा है.

विस्थापित कर रहें नौकरी की मांग

तात्कालिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कार्यकाल के दौरान झारखंड में मधु कोड़ा की सरकार बनी, तो एआईबीपी के तहत परियोजना को मुख्यमंत्री के प्रयास से केंद्रीय परियोजना में शामिल कर लिया गया. उस समय इसकी लागत 400 करोड़ रूपए थी जो अब बढ़कर 1000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा हो गई. मुआवजे की राशि जो ग्रामीणों में बांटे गए थे वह भी घोटाले की भेंट चढ़ गई. कुछ ग्रामीण को रोजगार के नाम पर नौकरी तो मिली, लेकिन आज भी लोग विकास के नाम पर अपना सब कुछ खो चुके हैं और ग्रामीण खुद को ठगा हुआ महसूस करने लगे हैं.

ये भी पढ़ें-झारखंड हाईकोर्ट ने हाई स्कूल नियुक्ति पर लगाई रोक, मामले की अगली सुनवाई 4 नवंबर को होगी

वर्तमान में केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार आने के बाद फिर एक बार इस अधूरी परियोजना को पूरी करने के लिए निविदा कर दी गई है. जिसके चलते ग्रामीणों को एक ओर जहां नाराज हैं वहीं, दूसरी ओर उन्हें सब कुछ खोने का मलाल भी है. विस्थापित ग्रामीणों की माने तो विकास के नाम पर पिछले कालखंड में कई घोटाले हुए. बांध का पैसा पदाधिकारी और बिचौलिया मिलकर हड़प लिए. विस्थापित आज भी अपनी हक की लड़ाई लड़ रहे हैं. ऐसे में अब सभी विस्थापित न्यायालय की शरण में जाने की तैयारी कर रहे हैं.

क्या कहना है अधिकारियों का

इधर, अधीक्षण अभियंता विश्वनाथ बोइपाई ने बताया कि लगभग 1 हजार करोड़ की लागत से यह परियोजना का कार्य दिलीप बिल्डकॉन के कंपनी करा रही है. वहीं, स्थानीय ग्रामीणों के विरोध के सवाल पर उन्होंने कहा कि बांध के निर्माण हो जाने के बाद मछली पालन और पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित हो जाएगा. जिससे स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेंगे और क्षेत्र का संपूर्ण विकास हो पाएगा. बहरहाल, स्वर्णरेखा परियोजना के पूरा होने से लोगों को सिंचाई और बिजली जैसी समस्याओं का निजात तो मिलेगा. लेकिन जिन ग्रामीणों का जमीन छीन गया, जिनका घर तबाह हो गया. उनको सरकार उचित मुआवजा देगी. उन्हें बसाने का काम करेगी. यह देखने वाली बात है.

चाईबासा: स्वर्णरेखा नदी पर देश की सबसे बड़ी नदी घाटी बहुउद्देशीय परियोजना केंद्र सरकार से प्रस्तावित है. इस परियोजना की नींव 1978 में रखी गई, जिससे देश के 3 राज्यों को सीधा फायदा पहुंचने वाला है. झारखंड की सबसे बड़ी दामोदर नदी के बाद राज्य की दूसरी बड़ी नदी स्वर्णरेखा है.

देखें पूरी खबर

परियोजना की लागत बढ़कर 1000 करोड़ रुपए हुई

स्वर्णरेखा बहुद्देशीय परियोजना अब 1000 करोड़ में पूरी होगी. केंद्र सरकार के जल शक्ति मंत्रालय से इसकी प्रशासनिक स्वीकृति भी मिल गयी है. गौरतलब है कि स्वर्णरेखा परियोजना का काम 1978 में 400 करोड़ की लागत से शुरू हुआ था. लगभग 41 साल पहले शुरू हुई इस परियोजना की लागत अब कई गुणा बढ़ गई है. इस परियोजना में वर्ल्ड बैंक ने भी दिलचस्पी दिखाई है. अगर यह परियोजना अब तक पूरी हो गई होती तो झारखंड के विकास में यह मील का पत्थर साबित होता. लेकिन करीब 4 दशक बीत जाने के बाद भी स्वर्णरेखा परियोजना अधर में है.

41 वर्षों से अधर में परियोजना

कोल्हान प्रमंडल क्षेत्र में आने वाली इस परियोजना की नींव 1978 में रखी गई थी. जिसका मकसद था बिहार के साथ ओडिशा और पश्चिम बंगाल में सिंचाई के लिए पानी की व्यवस्था हो सके. जिसके माध्यम से किसानों के जीवन स्तर में सुधार हो सके और बांध से विद्युत उत्पादन कर देश की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाया जा सके, लेकिन सरकारी उदासीनता के कारण लगभग 41 साल बीत जाने के बाद भी यह परियोजना अधर में है.

बिहार सरकार ने साल 1978 से 1980 तक इस परियोजना के तहत बनाए जा रहे इचा खरकई बांध का 30 फीसदी तक काम पूरा कर लिया गया था. लेकिन कुछ साल बाद उन्होंने इस परियोजना से अपना हाथ खींच लिया. बिहार विभाजन के बाद यह परियोजना झारखंड के हिस्से में आ गई. झारखंड की नई सरकार ने इस परियोजना को महत्वाकांक्षी बताते हुए काम तो शुरू किया, लेकिन दशकों बीत जाने के बाद भी यह परियोजना अभी तक अधूरी है.

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विस्थापित कर रहे विरोध

इधर, बांध बनने की सुगबुगाहट से इसके जद में आने वाले 87 गांव के लोगों ने इस परियोजना का विरोध करना शुरू कर दिया है. अविभाजित बिहार सरकार के शासनकाल में झारखंड मुक्ति मोर्चा ने इस मुद्दे को लेकर काफी राजनीति की और इस पार्टी को लोगों ने समर्थन भी दिया. इन सबके बीच सरकार ने अपने अधिकार और बल का प्रयोग करते हुए बांध के दोनों ओर से नहर बनाने का काम शुरू कर दिया. इस नहर में से एक नहर ओडिशा तक भी जाती है, जबकि दूसरी नहर पश्चिम बंगाल के कई गांवों तक पहुंची है.

इस परियोजना से प्रभावित लोग कई शर्तों के आधार पर नौकरी और उचित मुआवजा मिलने की सूरत में बांध निर्माण को लेकर राजी भी हो गए. लेकिन सरकार की सारी घोषणाएं अब तक फाइलों में ही सिमटी हुई है. नतीजा यह हुआ कि लोगों को मुआवजे के नाम पर औने-पौने दामों में अपनी पुश्तैनी जमीन को विकास के नाम पर सरकार को सौंपनी पड़ी. लेकिन आज लोगों का विरोध भी कम होने का नाम नहीं ले रहा है.

विस्थापित कर रहें नौकरी की मांग

तात्कालिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कार्यकाल के दौरान झारखंड में मधु कोड़ा की सरकार बनी, तो एआईबीपी के तहत परियोजना को मुख्यमंत्री के प्रयास से केंद्रीय परियोजना में शामिल कर लिया गया. उस समय इसकी लागत 400 करोड़ रूपए थी जो अब बढ़कर 1000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा हो गई. मुआवजे की राशि जो ग्रामीणों में बांटे गए थे वह भी घोटाले की भेंट चढ़ गई. कुछ ग्रामीण को रोजगार के नाम पर नौकरी तो मिली, लेकिन आज भी लोग विकास के नाम पर अपना सब कुछ खो चुके हैं और ग्रामीण खुद को ठगा हुआ महसूस करने लगे हैं.

ये भी पढ़ें-झारखंड हाईकोर्ट ने हाई स्कूल नियुक्ति पर लगाई रोक, मामले की अगली सुनवाई 4 नवंबर को होगी

वर्तमान में केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार आने के बाद फिर एक बार इस अधूरी परियोजना को पूरी करने के लिए निविदा कर दी गई है. जिसके चलते ग्रामीणों को एक ओर जहां नाराज हैं वहीं, दूसरी ओर उन्हें सब कुछ खोने का मलाल भी है. विस्थापित ग्रामीणों की माने तो विकास के नाम पर पिछले कालखंड में कई घोटाले हुए. बांध का पैसा पदाधिकारी और बिचौलिया मिलकर हड़प लिए. विस्थापित आज भी अपनी हक की लड़ाई लड़ रहे हैं. ऐसे में अब सभी विस्थापित न्यायालय की शरण में जाने की तैयारी कर रहे हैं.

क्या कहना है अधिकारियों का

इधर, अधीक्षण अभियंता विश्वनाथ बोइपाई ने बताया कि लगभग 1 हजार करोड़ की लागत से यह परियोजना का कार्य दिलीप बिल्डकॉन के कंपनी करा रही है. वहीं, स्थानीय ग्रामीणों के विरोध के सवाल पर उन्होंने कहा कि बांध के निर्माण हो जाने के बाद मछली पालन और पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित हो जाएगा. जिससे स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेंगे और क्षेत्र का संपूर्ण विकास हो पाएगा. बहरहाल, स्वर्णरेखा परियोजना के पूरा होने से लोगों को सिंचाई और बिजली जैसी समस्याओं का निजात तो मिलेगा. लेकिन जिन ग्रामीणों का जमीन छीन गया, जिनका घर तबाह हो गया. उनको सरकार उचित मुआवजा देगी. उन्हें बसाने का काम करेगी. यह देखने वाली बात है.

Intro:चाईबासा। झारखंड में दामोदर नदी के बाद सबसे बड़ी आश है स्वर्णरेखा नदी, पानी मुहैया कराना हो या फिर उद्योग स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन इस नदी की विशेषता सिर्फ इतनी ही नहीं है। इसे स्वर्णरेखा नदी पर एक बहुउद्देशीय परियोजना की शुरुआत 1978 में की गई। ये एक ऐसी परियोजना थी, जिससे 3 राज्यों को फायदा पहुंचता। इस परियोजना में वर्ल्ड बैंक ने भी दिलचस्पी दिखाई। जाहिर है, यह परियोजना झारखंड के विकास में भी मील का पत्थर साबित होती। लोगों ने कई सपने भी बुनने शुरू कर दिए। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और आज दशको बीतने के बाद भी यह परियोजना पूरी नहीं हो सकी है।


Body:स्वर्णरेखा परियोजना देश की बड़ी परियोजना है, सिंहभूम कोल्हान प्रमंडल में पड़ने वाली इस परियोजना की नीव 1978 में रखी गई थी। मकसद था की बिहार के साथ उड़ीसा एवं पश्चिम बंगाल तक सिंचाई के माध्यम से किसानों का जीवन स्तर में सुधार हो और उसके साथ-साथ इस बांध से विद्युत उत्पादन कर देश की आर्थिक स्थिति को मजबूती प्रदान करने में सहभागिता मिले। लेकिन सरकारी उदासीनता के बाद भी लगभग 34 वर्ष बीत जाने के बाद भी यह परियोजना अधर में लटक गई है। यह अलग बात है कि तीन दशक में 400 करोड़ से बढ़कर 1000 करोड़ से भी अधिक हो चुकी है। स्वर्णरेखा परियोजना में बड़ी परियोजना है बिहार से विभाजन से पूर्व बिहार उड़ीसा व पश्चिम बंगाल का विश्व बैंक के साथ करार हुआ था जिसमें 1978 में इस परियोजना की नींव रखी गई थी। बताया जाता है कि बिहार सरकार ने 1978 से 1980 तक इचा खरकई बांध का 30 फीसदी तक काम पूर्ण हो गया था। लेकिन बिहार सरकार ने कुछ वर्ष बाद इस परियोजना से अपना हाथ खींच लिया था। बिहार विभाजन के बाद जब यह परियोजना झारखंड के हिस्से में आई तो एक बार फिर इस महत्वाकांक्षी परियोजना का काम फिर से शुरू किया गया है। लेकिन रफ्तार आज भी काफी कम है। इधर बांध बनने की सुगबुगाहट से इसके जद में आने वाले 87 गांव के ग्रामीणों ने विरोध करना शुरू कर दिया था। तत्कालीन समय में अविभाजित बिहार सरकार के शासनकाल में झारखंड मुक्ति मोर्चा ने इस मुद्दे को लेकर काफी राजनीति की और उसे लोगों का समर्थन भी मिला। इन सबके बीच सरकार ने अपने अधिकार और बल का प्रयोग करते हुए बांध की दाएं एवं बाएं ओर से नहर का काम शुरू कर दिया। जो इनमें से एक नहर ओडिशा तक जाती है जबकि दूसरी पश्चिम बंगाल के कई क्षेत्र तक बनाई गई है। दूसरी ओर लोगों का विरोध भी होता रहा मध्यांतर में कई शर्तों के आधार पर नौकरी और उचित मुआवजा मिलने की सूरत में बांध निर्माण को लेकर लोग राजी भी हो गए। लेकिन सरकार की सारी घोषणाएं फाइलों में सिमट कर रह गई। नतीजा यह हुआ कि लोगों को मुआवजे के नाम पर औने पौने दामों में अपनी पुश्तैनी जमीन को विकास के नाम पर सरकार को सौंपनी पड़ी। लेकिन लोगों का विरोध भी कम होने का नाम नहीं ले रहा था। खास बात यह है कि इस परियोजना की लागत राशि तत्कालीन समय में 400 करोड़ थी लेकिन परियोजना की देरी होने के कारण इसकी लागत राशिद बढ़ती गई। जिसके चलते विश्व बैंक ने भी इस परियोजना से अपना हाथ खींच लिया लिहाजा लंबे समय तक किया परियोजना अधर में लटक गई। झारखंड अलग होने के बाद कई सरकारें इस परियोजना को पूरा करने को लेकर दिलचस्पी दिखाई लेकिन राजनीतिक नफा नुकसान को देखते हुए किसी ने भी इस परियोजना में हाथ डालने की हिमाकत नहीं की। डॉ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री काल में झारखंड के मधु कोड़ा की सरकार बनी तो एआईबीपी के तहत परियोजना को मुख्यमंत्री के प्रयास से केंद्रीय परियोजना में शामिल कर लिया गया लेकिन 400 करोड़ से बढ़कर इसकी लागत राशि लगभग 1000 करोड़ से भी ज्यादा हो गई। मुआवजे की राशि जो ग्रामीणों में बांटे गए थे वह भी घोटाले की भेंट चढ़ गई। कुछ ग्रामीण को रोजगार के नाम पर नौकरी तो मिली। लेकिन आज भी लोग विकास के नाम पर अपना सब कुछ खो चुके हैं और ग्रामीण खुद को ठगा हुआ महसूस करने लगे हैं। वर्तमान में केंद्र एवं राज्य में भाजपा की सरकार आने के बाद फिर एक बार इस अधूरी परियोजना को पूरी करने के लिए निविदा कर दी गई है। जिसके चलते ग्रामीणों को एक ओर जहां गुस्सा है वहीं उन्हें सब कुछ खोने का मलाल भी है। ऐसे में क्षेत्र के विस्थापित जमीन का उचित मुआवजा या नहीं वर्तमान दर से जमीन की कीमत व नौकरी मिलने के शर्त पर ही बांध बनाने की बात कर रहे हैं। विस्थापित ग्रामीणों की माने तो विकास के नाम पर पिछले कालखंड में कई घोटाले हुए बांध का पैसा पदाधिकारी और बिजोलिया मिलकर डकार गए विस्थापित आज भी अपनी हक की लड़ाई लड़ रहे हैं सरकार उनकी तकलीफों से कोई वास्ता नहीं है ऐसे में ग्रामीण भी न्यायालय की शरण में जाने की तैयारी में जुट गया है।


Conclusion:इधर, अधीक्षण अभियंता विश्वनाथ बोइपाई ने बताया कि लगभग 1हजार करोड की लागत से यह परियोजना का कार्य दिलीप बिल्डकॉन के द्वारा किया जाएगा। स्थानीय ग्रामीणों के विरोध के सवाल पर उन्होंने कहा कि बांध के निर्माण हो जाने के बाद मछली पालन, या क्षेत्र पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित हो जाएगा जिससे स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेंगे। और इस क्षेत्र का संपूर्ण विकास होगा क्षेत्र के आसपास के क्षेत्रों में भी लगातार घटती जल स्तर से भी निजात मिल सकेगा।
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