रांची: झारखंड में आदिवासी दिवस की धूम है. राज्य सरकार इसे महोत्सव के रुप में मना रही है. मगर विडंबना यह है कि जो ट्राइबल झारखंड की राजनीति के केंद्र बिंदु में हमेशा से रहे हैं, आज उन्हीं की भाषा संकट में है. सरकार ने जनजातीय समाज के लुप्त हो रही भाषाओं को बचाने के लिए विश्वविद्यालय से लेकर राज्य स्तर पर संस्थान और विभाग खोल दिए. मगर इन संस्थानों और विभागों में संसाधन और शिक्षक नहीं दे पाई. इनमें शिक्षक से लेकर आवश्यक संसाधनों की भारी कमी है. स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि रांची विश्वविद्यालय का क्षेत्रीय और जनजातीय भाषा विभाग दम तोड़ रहा है.
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संयुक्त बिहार के समय 1980 में तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र के कार्यकाल में पद्मश्री रामदयाल मुंडा के प्रयास से रांची विश्वविद्यालय में पांच जनजातीय और 4 क्षेत्रीय भाषाओं की पढाई के लिए विभाग खोले गए. मोरहाबादी स्थित रांची विश्वविद्यालय के एक ही कैंपस में इसकी शुरुआत हुई. जिसमें पांच जनजातीय भाषा हो, संथाली, मुंडारी, कुरुख और खड़िया शामिल हैं. वहीं क्षेत्रीय भाषाओं में नागपुरी, कुरमाली, खोरठा और पंचपरगनिया शामिल है.
प्रोफेसर विहीन है जनजातीय विभाग: रांची विश्वविद्यालय के इस जनजातीय और क्षेत्रीय भाषा विभाग में बगैर प्रोफेसर की पढ़ाई होती है. शिक्षकों और संसाधनों की कमी के कारण इसका प्रभाव पठन-पाठन पर पड़ रहा है. यहां क्षेत्रीय और जनजातीय भाषाओं की पढाई या तो अनुबंध आधारित शिक्षक से या सहायक प्रोफेसर से होती है. स्थायी शिक्षकों की कमी से जूझ रहे इस विभाग के प्रत्येक भाषा विभाग में एक प्रोफेसर, दो एसोसिएट प्रोफेसर और दो सहायक प्रोफेसर के पद सृजित हैं. जिसमें प्रोफेसर की बात तो दूर स्थायी सहायक प्रोफेसर की भी भारी कमी है.
जनजातीय विभाग के कॉर्डिनेटर हरि उरांव का मानना है कि 42 वर्षों में प्रमोशन हुआ रहता तो आज ऐसी स्थिति नहीं रहती. प्रोफेसर के होने से रिसर्च कार्य खासकर पीएचडी या जेआरएफ के छात्रों को काफी सहुलियत मिलती. नागपुरी भाषा के विभागाध्यक्ष उमेश नंद तिवारी कहते हैं कि यह विभाग झारखंड आंदोलन का बौद्धिक केंद्र बिंदु रहा है, जिसकी उपज कई नेता और प्रणेता रहे हैं. मगर, जिस तरह से इसकी उपेक्षा होती रही है. वह बेहद ही दुखद है. ना तो अलग-अलग भाषा के लिए कोई लाइब्रेरी है और ना ही थर्ड या फोर्थ ग्रेड स्टाफ. ऐसे में एक कमरा में यह विभाग सिमट कर रह गया है.
विज्ञापन निकलता है मगर नहीं होती नियुक्ति: जनजातीय भाषा संरक्षण के लिए लंबे समय से बड़ी-बड़ी बातें होती रही हैं. मगर सच्चाई सामने है. अनुबंध पर शिक्षण कार्य कर रही डॉ देवयंती कहती हैं कि अन्य विषय के साथ जनजातीय भाषा के लिए भी नियुक्ति विज्ञापन निकलता रहा है. मगर अंतर यह है कि दूसरे विषय के लिए नियुक्ति हो जाती है. लेकिन, जनजातीय भाषा की नियुक्ति किसी ना किसी वजह से रोक दी जाती है. उन्होंने कहा कि संयुक्त बिहार के समय 1996 में पहली बार विश्वविद्यालय सेवा आयोग, पटना के माध्यम से इन भाषाओं के लिए विज्ञापन निकला था. अन्य भाषाओं के रिजल्ट निकले, मगर जनजातीय भाषाओं के लिए रिजल्ट आज तक नहीं निकला और वह आज भी ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है. इसी तरह से 2007-08 में झारखंड गठन के बाद जेपीएससी ने सभी विश्वविद्यालय के लिए विज्ञापन निकाला. सभी विषयों का रिजल्ट आया. मगर इन नौ जनजातीय भाषाओं का रिजल्ट लटक गया, जो आज तक नहीं निकला.
जेपीएससी बना उदासीन: जनजातीय भाषाओं के लिए रेगुलर और बैकलॉग स्थायी सहायक प्रोफेसर की नियुक्ति के लिए 2018 में झारखंड लोक सेवा आयोग ने विज्ञापन निकालकर चयन प्रक्रिया शुरू की. कोरोना की वजह से 2 वर्ष तक ठंडे बस्ते में पड़े रहने के बाद जेपीएससी ने 2022 में इंटरव्यू लेकर नियुक्ति प्रक्रिया शुरू की. काफी जद्दोजहद के बाद कुछ भाषाओं में सहायक प्रोफेसर की नियुक्ति भी हुई. मगर जब जनजातीय भाषा 'हो' की बारी आई तो आयोग ने इंटरव्यू के बाद चुप्पी साध ली.
कोर्ट के आदेश के बाद भी नहीं निकला रिजल्ट: जेपीएससी ने हो भाषा के लिए 20 अभ्यर्थियों को इंटरव्यू के लिए बुलाया था. जिसमें 18 शामिल हुए थे. रिजल्ट प्रकाशित होने का इंतजार करते करते आखिरकार अभ्यर्थियों का सब्र का बांध टूटा और उन लोगों ने झारखंड हाईकोर्ट में गुहार लगाई. याचिकाकर्ता डॉ. सरस्वती गगरई कहती हैं कि न्यायालय ने 31 जुलाई तक जेपीएससी को रिजल्ट प्रकाशित करने को कहा था. लेकिन वह भी समय सीमा समाप्त हो चुकी है और आज तक झारखंड लोक सेवा आयोग ने रिजल्ट प्रकाशित करने का काम नहीं किया है. ऐसे में जब शिक्षक ही नहीं रहेंगे तो पढ़ाई बाधित होनी तो स्वभाविक है.