रांची: झारखंड की राजनीति सीएनटी एक्ट, एसपीटी एक्ट, डोमिसाइल, सरना कोड और आरक्षण के ईर्द-गिर्द घूमती रहती है. ये कुछ ऐसे मसले हैं जो राज्य बनने के दिन से ही उलझे हुए हैं. जिसने भी इसमें हाथ डालने की कोशिश की, उसे नुकसान उठाना पड़ा. अब हेमंत सरकार ने आदिवासियों की जमीन को सुरक्षा देने के लिए बने सीएनटी एक्ट, 1908 में बदलाव की बात की है.
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ट्राइबल एडवाजरी काउंसिल के अध्यक्ष के नाते सीएम हेमंत सोरेन के नेतृत्व में हुई बैठक में इस बात पर सहमति जतायी गयी है कि आदिवासी जमीन की खरीद बिक्री के दायरे को 26 जनवरी 1950 में बने जिलों और थानों के आधार पर मान्यता दी जानी चाहिए. अब सरकार का काम है विधि विशेषज्ञों से राय लेकर टीएसी के प्रस्ताव को अमली जामा पहनाना. सरकार किसी नतीजा पर पहुंचे, इससे पहले ही इसपर बहस छिड़ गयी है. इसपर ट्राइबल ग्रुप की राय जानने से पहले यह समझना जरूरी है कि आखिर ब्रिटिश राज ने सीएनटी यानी छोटानागपुर टिनेंसी एक्ट क्यों बनाया.
अंग्रेजों ने क्यों बनाया सीएनटी एक्ट: इस मसले पर आदिवासी मामलों के जानकार और सीएनटी की जरूरत पर रिसर्च कर रहे वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और शिक्षाविद संतोष किड़ो ने कहा कि पहले छोटानागपुर की कहानी समझनी होगी. कुछ मुंडाओं का कहना है कि शाहदेव लोग मुंडा नहीं है. जबकि शाहदेव का कहना है कि वे मदरा मुंडा के वंशज हैं. इसकी बुनियाद जहांगीर के शासनकाल में पड़ी. दुर्जन साल जहांगीर के पीरियड में टैक्स नहीं दे पा रहे थे. मुगलसम्राट जहांगीर की हीरानागपुर (छोटानागपुर) पर नजर थी. वह हीरा के लिए यहां आते थे. दुर्जन साल जब टैक्स नहीं दे पाए तो उन्हें ग्वालियर जेल में डाल दिया गया. वहां बारह साल रखा. इसी बीच एक और घटना घटी, जब जहांगीर को सही हीरा पहचानने की जरूरत पड़ी. उन्हें दरबारियों ने दुर्जन साल का नाम सुझाया. तब दुर्जन साल को दिल्ली बुलाया गया. क्योंकि एक लोहे के टुकड़े में हीरा फंस गया था. दुर्जन साल ने पलक झपकते ही क्षति पहुंचाए बगैर उस हीरे को लोहे से टुकड़े से निकाल दिया. उनको हीरा की जबरदस्त समझ थी. इसी आधार पर जहांगीर ने दुर्जन साल को मुक्त कर दिया. उन्होंने दूसरे बंदी राजपूतों को भी मुक्त करवाया.
जब दुर्जन साल वापस आए तो राजपूतों की ओर से नजराना मिला. तब वह राजपूत घराना में शामिल हो गये. उसी समय दुर्जन साल ने मुंडाओं से टैक्स मांगा. तब गिफ्ट देने की परंपरा थी. मुंडा भी यहां के राजा ही थे. उसी दौर में दुर्जन साल बाहर से राजपूतों को लेकर आए. यहां बदलाव हुआ था बनिया समाज की इस इलाके में एंट्री हुई. इसी के बाद लैंड लिखवाने की प्रथा शुरू हुई. इसी के खिलाफ 1831-32 में कोल विद्रोह शुरू हुआ. जो छोटानागपुर से मानभूम तक फैल गया. यह लड़ाई जमींदारों और बनिया के खिलाफ थी. चूकि तब ब्रिटिश के पास शासन था, इसलिए उनको आना पड़ा. ब्रिटिश ने समझा कि असली जमीन के मालिक तो यहां के मुंडा हैं. तब थॉमस विलकिंसन स्पेशल कमीश्नर बनकर आए. उन्होंने लैंड सेटलमेंट पर फोकस किया. उन्होंने नियम बनाया कि बनिया जो पैसे के बदले जमीन मॉर्गेज कर बाद में अपने नाम कर लेते थे, उसपर रोक लगा दी. यह व्यवस्था 1834 में साउथ वेस्ट फ्रंटियर एजेंसी ने लागू कराया.
यह व्यवस्था विलकिंसन रूल के रुप में 1882 तक चली. सिंहभूम में मुंडा मानकी ने उस सिस्टम को रिकोगनाइज किया. यहीं से कमिश्नर की प्रथा शुरू हुई. दरअसल, विलकिंसन के पास गवर्नर जनरल की तरफ से विशेष पावर मिला था. उन्होंने आदिवासियों के हित में बहुत कुछ किया. लेकिन 1882 में यह व्यवस्था खत्म होते ही जमीन हड़पने का दौर शुरू हुआ. इसपर मुंडा सरदार जो क्रिश्चियन बन गये थे, विरोध किया. उसी समय बिरसा मुंडा सामने आए. 1882 से 1895 तक सरदारी लड़ाई चली. इसकी वजह जमीन ही थी. तब ब्रिटिश शासक समझ गये कि यह लड़ाई तो सौ वर्ष से चल रही है. उसी आधार पर जेबी होफमैन ने ड्राफ्ट तैयार किया जो कुछ बदलाव के साथ सीएनटी के रूप में 1908 में कानून बनकर सामने आया.
ट्राइबल ग्रुप की क्या है मांग: आदिवासी महासभा के संयोजक देवकुमार धान का मानना है कि इससे कोई खास फायदा नहीं होगा. कानून तो 1908 में ही बना था. सौ साल से ज्यादा हो गया. उस समय के सोच विचार और जीवनशैली में बदलाव आया है. अब लोग शहरों में आना चाह रहे हैं. पढ़ाई लिखाई और व्यापार पर जोर दिया जा रहा है. मैंने पिछले दिनों सीएम से मिलकर थानाक्षेत्र की बाध्यता हटाकर पूरा राज्य करने का सुझाव दिया था. हालांकि इसमें जमीन की सीमा जरुर तय होनी चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. लिहाजा, इससे कोई खास फायदा नहीं होगा. अगर 10 से 20 डिसमिल तक खरीद-बिक्री की बात तय होती है तो आदिवासियों को फायदा होगा. नहीं तो यह नुकसान का कारण बन जाएगा.
आदिवासी जनपरिषद के अध्यक्ष प्रेमशाही मुंडा का कहना है कि सरकार ने जो पहल किया है वह स्वागत योग्य है. कानून के अनुसार एक आदिवासी दूसरे थानाक्षेत्र में जमीन नहीं खरीद सकता है. लेकिन थाना स्तर पर जमीन की खरीद बिक्री का एक दायरा जरुर तय होना चाहिए. उन्होंने कहा कि सीएनटी एक्ट तो 1908 में बना था. अगर उस समय को सरकार आदिवासी जमीन की खरीद-बिक्री के लिए आधार बनाती है तो कई राज्य शामिल हो जाएंगे. इसलिए कायदे से सरकार को 1950 में बने थाना स्तर के बजाए राज्य स्तर पर इस व्यवस्था को लागू करना चाहिए. ऐसा होने से एक आदिवासी राज्य के किसी भी हिस्से में अपनी जरुरत से हिसाब से जमीन खरीद और बेच पाएगा. इससे आदिवासियों को आगे बढ़ने में मदद मिलेगी.
कैसे आदिवासी जमीन को संरक्षित करता है सीएनटी एक्ट: सीएनटी यानी छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम को अंग्रेजों ने आदिवासियों की भूमि की रक्षा के लिए बनाया था. इस अधिनियम के अधिकार क्षेत्र में उत्तरी छोटानागपुर, दक्षिणी छोटानागपुर और पलामू के क्षेत्र को शामिल किया गया था. सीएनटी को संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल किया गया है. सीएनटी एक्ट की धारा 46 और 49 आदिवासियों की जमीन की खरीद-बिक्री को नियंत्रित करता है. इसकी धारा 46(ए) के तहत आदिवासी भूमि किसी आदिवासी को ही हस्तांतरित हो सकती है. इसके लिए थानाक्षेत्र की बाध्यता भी रखी गयी है. किसी एक थानाक्षेत्र का कोई आदिवासी भी दूसरे थानाक्षेत्र के किसी आदिवासी की जमीन नहीं खरीद सकता. इसके बावजूद आदिवासियों की जमीन हाथ से निकल रही है. इससे जुड़े हजारों मामले कोर्ट में लंबित हैं.