रांची: समाज के लिए अपने जीवन से जीने की इबादत को लिख देने वाले लोग ही एक कालखंड के बाद ऐसे दरख्त बन जाते हैं जिनके जीवन की कहानी हौसला भी देती है, प्रेरणा भी और समाज को दिशा भी. देश के बिहार प्रांत में 11 जनवरी 1944 को एक ऐसी ही विभूति ने जन्म लिया था जिसे आज के झारखंड में दिशोम गुरु या गुरुजी कहा जाता है. जो उस समय शिबू सोरेन हुआ करते थे. झारखंड के आज वाले रामगढ़ जिले और 1944 के हजारीबाग जिले के नेमरा गांव में शिबू सोरेन का जन्म हुआ था जिनके पिता सोबरन माझी उस क्षेत्र के सबसे शिक्षित व्यक्ति थे और समाज में शिक्षा की अलख जगा रहे थे. लेकिन व्यवस्था ऐसी भी थी जो शिबू सोरेन के उस समय के हंसते खेलते परिवार को ना पसंद आई और एक वारदात ने पूरे परिवार को बिखेर दिया.
झारखंड में महाजनी प्रथा कुछ इस कदर चरम पर थी कि लोगों को अपनी पैदावार का सिर्फ एक तिहाई हिस्सा मिलता था. बाकी सब कुछ सूदखोर उठा ले जाते थे. बात यहीं तक नहीं थी, जो लोग घर की परेशानी और दूसरे कारणों से महाजनों के सूद को नहीं चुका पाते थे उनके लिए दिक्कत और भी ज्यादा होती थी. हालांकि इसके खिलाफ शिबू सोरेन के पिता शुभम माझी आवाज उठाते रहे और उनकी आवाज में इतना जोर था कि सूदखोरों की रूह कांप गई थी और यही वजह था कि 1957 में सूदखोरों के इशारे पर शिबू सोरेन के पिता की हत्या हो गई. परिवार इस कदर बिखरा कि लकड़ी बेचकर जीवन का गुजारा करना पड़ा. लेकिन हौसला, हिम्मत, जुनून शिबू सोरेन में कुछ इस कदर था कि पूरे परिवार को अपनी मेहनत से खड़ा किया.
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शिबू सोरेन ने महाजनी प्रथा के खिलाफ आवाज बुलंद किया और उस समय के सामाजिक ढांचे को भी चुनौती दे डाली. शिबू सोरेन की हनक इतनी हो गई थी कि ओडिशा, पश्चिम बंगाल और बिहार में भी महाजनी प्रथा और उस समय के बने खास समाज को बड़ी चुनौती मिलने लगी. झारखंड में नगाड़े की अगर आवाज आ जाए तो झारखंड के लोगों को यह पता चल जाता था कि गुरुजी का कोई संदेश आया है. महाजनी प्रथा के खिलाफ शिबू सोरेन ने इतना आंदोलन किया कि सूदखोरों को झारखंड में आदिवासी समाज का पीछा छोड़ना पड़ गया. लड़ाई लंबी थी जिंदगी में दुश्वारियां भी कई आईं. लेकिन उसका उन्होंने डटकर मुकाबला किया.
अपने झारखंड को बनाने के लिए मिट्टी की दीवारें जो आदिवासियों के घरों की होती थी उस पर नील और लाल मिट्टी से आदिवासियों के अपने उस साम्राज्य को स्थापित करने का गुरु जी ने आलेख लिखवा दिया. जो आज के झारखंड के लिए बुलंद तस्वीर बनकर खड़ी हैं. कहने के लिए तो गुरु जी ने एक छोटी सी लड़ाई शुरू की थी. जिसमें महाजनों के उत्पात का विरोध था. लेकिन समाज के विद्वेष की जो लड़ाई गुरुजी ने शुरू की उसमें आज झारखंड की राजनीति उन लोगों के लिए काम कर रही है, जो गरीब हैं, दबे कुचले हैं, जिनकी आवाज शायद ही कभी सत्ता तक पहुंच पाती, आज वह लोग सत्ता पर काबिज हैं. यह सब कुछ सिर्फ और सिर्फ शिबू सोरेन के अपने जीवन के संघर्ष से लिखी गई इबारत की कहानी है. जिसे आज पूरा झारखंड और झारखंड की हर जुबान गुरुजी कहकर बोल रही है.
शिबू सोरेन के महाजनी प्रथा के विरोध का असर इतना जबरदस्त था कि अगर किसी कोने में नगाड़े की आवाज आ जाए तो संदेश पूरे झारखंड में फैल जाता था. 1970 से शिबू सोरेन झारखंड की राजनीति में राजनेताओं के लिए मुद्दा बनना शुरू हो गए थे और शिबू सोरेन की राजनीति से जुड़े बगैर झारखंड की राजनीति में चुनाव का कोई आधार नहीं खड़ा होता था. 1972 में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन हुआ और उस समय बिनोद बिहारी महतो झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष बने और शिबू सोरेन जनरल सेक्रेटरी. लेकिन बाद में निर्मल महतो की मौत के बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा की कमान शिबू सोरेन के हाथ में आई और तब से लेकर आज तक झारखंड मुक्ति मोर्चा ने झारखंड में विकास के परचम लहराए हैं और आज झारखंड मुक्ति मोर्चा की सरकार झारखंड में चल रही है तो उसकी धूरी भी शिबू सोरेन ही हैं.
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शिबू सोरेन ने सीधे तौर पर राजनीति की शुरुआत 1977 में की, जब उन्होंने लोकसभा चुनाव लड़ा था लेकिन वह लोकसभा चुनाव हार गए. 1980 में उन्होंने दूसरी बार चुनाव लड़ा और जीते उसके बाद 1989 में तीसरी बार 1991, 1996, 2004, 2009 और 2014 सांसद चुने गए. शिबू सोरेन 2002 में थोड़े समय के लिए राज्यसभा के सदस्य भी रहे और 2004 में मनमोहन सिंह की सरकार में कोयला मंत्री के तौर पर भी काम किया. राष्ट्रीय राजनीति में गुरु जी का मजबूत दखल था और झारखंड की बात दिल्ली तक बगैर गुरुजी के पहुंचती नहीं थी.
शिबू सोरेन ने झारखंड के तीसरे मुख्यमंत्री के तौर पर राज्य की कमान संभाली थी. 2 मार्च 2005 को उन्होंने पहली बार झारखंड में मुख्यमंत्री के तौर पर पदभार ग्रहण किया, लेकिन 10 दिनों बाद ही उन्हें रिजाइन करना पड़ा. 2008 में दूसरी बार मुख्यमंत्री बने, इस बार 4 महीने 22 दिनों तक उनका कार्यकाल रहा. जबकि उनका मुख्यमंत्री के तौर पर तीसरा कार्यकाल 30 दिसंबर 2009 से 31 मई 2010 तक का रहा.
शिबू सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा झारखंड की राजनीति में सिर्फ पार्टी नहीं है बल्कि राजनीति की एक पाठशाला भी है. सियासत के दौर में लालू यादव की जब तूती बोलती थी तो शिबू सोरेन कभी उनके सबसे अच्छे सिपाहसलारों में हुआ करते थे. देश की राजनीति में भी गुरुजी का अच्छा खासा दखल था. सभी नेता गुरुजी को सम्मान के नजरिए से देखते हैं, इसके पीछे की मूल वजह शायद यह भी थी कि अपने लिए सियासत, अपने लिए जमीन, अपने लिए घर, अपने लिए आवास, अपने लिए जिंदगी, गुरु जी ने खोजी नहीं थी क्योंकि अपनों के लिए सब कुछ करने को ही अपना जीवन बना लिया था और यही वजह है कि झारखंड ने गुरुजी को अपनाया. आज की राजनीति भी उसका एक बड़ा उदाहरण है. जो सियासत के हर पन्ने पर उनके समर्पण की इबारत के रूप में चमक रही है.
झारखंड राज्य के अस्तित्व में आने और झारखंड की सियासत में जो कुछ होता है और उसमें गुरुजी के दखल की इतनी किंवदंतियां हैं जिसका कोई और ओर-छोर नहीं है. देश की राजनीति में अगर आज अर्जुन मुंडा सरीखे नेताओं का नाम लिया जाता है तो इनके भी राजनीतक गुरु शिबू सोरेन ही रहे हैं. सियासत के पन्नों से अगर अलग जाकर देखा जाए तो गुरुजी ने झारखंड के लोगों के लिए और खासतौर से आदिवासी समाज के लिए सूदखोरों के खिलाफ जिस जंग का ऐलान किया था उसने मानवीय सभ्यता के उस पहलू को इतना मजबूत बनाया जो दशकों से आजादी की सबसे बड़ी कहानी है.
बापू के सिद्धांतों में, बापू की नीतियों में, विकास के आधार में, गांव की पगडंडी तक पहुंचने वाले विकास में अगर सच्चाई की कोई कहानी है तो सबसे बड़ी यही है कि समाज तब तक बड़ा होकर के कुछ लिख नहीं पाएगा जब तक उसके ऊपर दासता प्रथा की जकड़ रहेगी. महाजनी प्रथा की जकड़ से गुरुजी ने झारखंड को आजाद कराया था. देश भले ही 15 अगस्त 1947 को आजाद हो गया हो. लेकिन झारखंड के लोगों को खासतौर से महाजनी प्रथा के कुचक्र से गुरुजी ने आजादी दिलाई थी. झारखंड के विकास के लिए उन्होंने जो कहानी लिख दी है उसी की रोशनी में झारखंड के उत्तरोत्तर विकास की शृंखला आगे चलती रहेगी. ईटीवी भारत शिबू सोरेन जी को उनके जन्मदिन पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देता है.