रांची: सामाजिक संगठन में सबसे ज्यादा आदिवासी और मुसलमान संगठनों का विरोध देखने को मिल रहा है. मुसलमान अपने शरीयत के कानूनों में छेड़छाड़ की बात कहते नजर आ रहे हैं. वहीं आदिवासी समाज अपनी जमीन और परंपराओं पर हमले की बात बताते नजर आ रहे हैं.
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जनजातीय समुदाय की ओर से यूसीसी का विरोध हो रहा है. इसको लेकर ईटीवी भारत की टीम ने आदिवासी समाज के बुद्धिजीवियों से बात की. यूसीसी कानून को लेकर आदिवासी समाज के वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता व पूर्व पत्रकार रतन तिर्की बताते हैं कि संविधान बनने से पहले से ही अंग्रेजों के द्वारा आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों को विशेष अधिकार दिए गए हैं. अंग्रेजों के समय में बनाये गए कानून के अनुसार पांचवी और छठी अनुसूची के तहत आने वाले राज्य में रहने वाले आदिवासियों के संरक्षण के लिए विशेष अधिकार दिए गए हैं. जिसका वर्णन आजादी के बाद बाबा अंबेडकर के द्वारा बनाए गए संविधान में भी किया गया है.
ऐसे में अगर यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू किया जाता है तो निश्चित रूप से परंपराओं से बनी साख को बचाने से जुड़े सीएनटी एसपीटी कानून भी प्रभावित होंगे. आदिवासी समाज के लिए आवाज उठाने वाले लॉ यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रामचंद्र उरांव बताते हैं कि आदिवासी समाज अपनी जमीन को बचाने के लिए बेटियों को अपनी जमीन का हिस्सा नहीं देते हैं. रूढ़िवादी कानून के अनुसार जमीन का स्थानांतरण सिर्फ बेटे में ही होता है ताकि जमीन किसी अन्य वंश में ना जा सके.
प्रोफेसर रामचंद्र उरांव बताते हैं कि अगर यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होता है तो फिर समान कानून के तहत महिलाएं भी पिता के धन की वारिस बनेंगी. ऐसे में झारखंड में रहने वाले 32 प्रकार के जनजाति और आदिम जनजाति की महिलाओं को भी पिता के धन का हिस्सा लेने का अधिकार हो जाएगा. अगर आदिवासी महिलाएं गैर आदिवासी पुरुष से शादी करती हैं तो जमीन किसी न किसी रूप से महिला के बाद उसके पति को हस्तांतरित हो जाएगा जो कहीं ना कहीं सीएनटी और एसपीटी एक्ट को सीधा प्रभावित कर सकता है.
महिलाओं को बराबर का अधिकार मिले इस मामले में वर्ष 1996 में भी मधुकेश्वर केस बनाम बिहार सरकार केस में देखने को मिला था. लेकिन उसमें भी कोर्ट की तरफ से यह कहा गया था कि संविधान में भी जब आदिवासियों की जमीन की सुरक्षा के लिए ग्राम सभा के निर्णयों को माना जाएगा. सिर्फ छोटानागपुर और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट ही नहीं बल्कि पांचवीं और छठी अनुसूची के तहत आने वाले राज्यों में रहने वाले आदिवासियों की जमीन बचाने के अन्य कानून भी प्रभावित हो सकते हैं.
प्रोफेसर उरांव बताते हैं कि वर्ष 2013 में आए भूमि अधिग्रहण कानून में भी यह वर्णन है कि शेड्यूल एरिया की जमीन के विवाद को ग्रामसभा के माध्यम से निपटाया जाएगा. अगर यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू किया जाता है तो रिजर्व एरिया में जमीन को खरीदने के लिए लोग सामान्य कानून का सहारा ले सकते हैं. वर्तमान में सीएनटी एसपीटी एक्ट के तहत अगर कोई आदिवासी अपनी जमीन की क्रय विक्रय करना चाहता है तो इसके लिए खरीदार और बेचने वाला दोनो को आदिवासी होना चाहिए. वहीं जमीन को बेचने एवं खरीदने वाला दोनों ही एक ही थाना का निवासी भी होना चाहिए. अगर यूनिफॉर्म सिविल कोड को शेड्यूल एरिया में लागू किया जाता है तो जमीन खरीदने और बेचने के कई ऐसे नियम को ताक पर रखा जा सकता है.
आदिवासी समाज के बुद्धिजीवी वर्गों का कहना है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होता है तो झारखंड में वैसे प्रारूप के जमीन जिस पर संविधान के अनुसार सिर्फ आदिवासियों का हक है जैसे पाहनवी जमीन, भुइयरी जमीन, पनभरा जमीन, कोटावारी जमीन, मर्दाना जमीन, भूतखेता जमीन को भी यूनिफॉर्म सिविल कोड के अनुसार बेचने के नियमावली बनाए जा सकते हैं. जबकि वर्तमान कानून के अनुसार यह जमीन सिर्फ आदिवासियों की रैयती जमीन है. इस पर सरकार का भी कोई हक नहीं है क्योंकि ऐसे जमीनों का सरकार के पास टैक्स जमा नहीं होता है. वहीं आदिवासी नेता अजय तिर्की और प्रेम शाही मुंडा बताते हैं कि समान नागरिकता संहिता के लागू होने से आदिवासी समाजों के कई अधिकार और पर्सनल लॉ बोर्ड पूरी तरह से समाप्त हो जाएंगे. इसके अलावा कहीं ना कहीं आदिवासियों की परंपरा के साथ-साथ उनकी संपत्तियों को बचाने वाले कानून भी प्रभावित होंगे.