रांचीः जल, जंगल और जमीन को अपना सबकुछ मानने वाला आदिवासी समाज नित नए आयाम गढ़ रहा है. आदिकाल में जिस आदिवासी समाज ने हमें अनाज के रुप में धान, धातू के रुप में लोहा से परिचय कराया. इसी समाज के लोगों ने देश के स्वाधीनता आंदोलन में शहादत देकर एक सामान्य जन से भगवान बिरसा मुंडा के रुप में भी देश दुनिया में अमिट छाप छोड़ी. इसी तरह सामंती व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़कर शिबू सोरेन दिशोम गुरु बन गए. उसी आदिवासी समाज की द्रौपदी मुर्मू देश की प्रथम नागरिक बनने जा रही हैं. अपनी क्षमता से देश दुनिया में लोहा मनवाने में सफल हो रहा यह आदिवासी समाज, किसी आदिवासी के पहली बार राष्ट्रपति पद पर आसीन होने से गौरवान्वित हो रहा है.
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आदिवासी समाज का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है. आज ये समाज बेहद खुश है. खुश क्यों ना हो आजादी के अमृत महोत्सव पर इस समाज ने वो मुकाम पाने वाला है जिसे वह कभी सोचा भी नहीं था. पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनने जा रहीं द्रौपदी मुर्मू ने आदिवासी समाज के इतिहास में एक नया आयाम जोड़ने का काम किया है. आदिवासी समाज के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो इस समाज की सृष्टिकथा के अनुसार परमात्मा जिसे वो सिंगबोंगा मानते हैं. उन्होंने केंचुए के क्रय और कछुए की सहायता से धरती का निर्माण किया फिर उन्होंने पौधे और जानवर बनाए. उनके और स्वयं के बीच एक मध्यस्थ की आवश्यकता को देखते हुए उन्होंने मिट्टी से पुरुष और स्त्री की मूर्तियां बनाई और उनमें जीवनदायी सांसे भरीं. देखते ही देखते दोनों मूर्तियां जीवित हो गईं. यह प्रतीक है आदिवासी समाज की लैंगिक समानता का. इस वजह से जल, जंगल और जमीन के रक्षक बनकर इसे अपनी संस्कृति से जोड़कर रखा है.
आदिवासियों का गौरवपूर्ण इतिहासः जंगल में किसी तरह गुजर बसर कर रहने वाले आदिवासी भले ही देश दुनिया से अलग रहा हो मगर मानव विकास में उसकी अहम भूमिका रही है. इतिहासकारों का मानना है कि मनुष्य को धान का फसल, धातू में लोहा से परिचय कराने में यही समाज सफल रहा है. आध्यात्मिक दृष्टि से भी आर्य के आगमन और हिन्दू संस्कृति में देवी देवताओं की पूजा में अच्छत और आम के पल्लव का भी इसी समाज ने प्रयोग कर इसकी शुरुआत की थी. इसके अलावा स्वाधीनता आंदोलन में आदिवासी समाज के बलिदान को हमेशा याद रखा जाएगा.
ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट (Tribal Research Institute) के निदेशक रणेंद्र कुमार कहते हैं कि झारखंड सहित पूरे देशभर में जहां जहां आदिवासी रहते हैं देश की आजादी में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है. 1857 के सिपाही आंदोलन को भले ही पहला स्वाधीनता आंदोलन कहें मगर इससे पूर्व अंग्रेजों के विरोध में सिंहभूम, धालभूमगढ़, जंगलमहाल इलाका में 1767 में क्रांति शुरू हो गयी थी. इसके बाद 1772 में पहाड़िया फिर तिलकामांझी का विद्रोह शामिल है. 1855-56 में हूल विद्रोह जिसमें दो-दो बार ब्रिटिश की हार हुई. इसका प्रभाव 1857 में दिखा और यह संदेश गया कि अंग्रेजों को हराया जा सकता है.
झारखंड की धरती से उपजे उलगुलान ने एक सामान्य व्यक्ति से भगवान बिरसा मुंडा बनाने का काम इसी समाज ने किया. 1900 में अंग्रेजों के विरुद्ध उलगुलान करने वाले बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर रांची जेल लाया गया था, जहां उन्होंने अंतिम सांसें ली थीं. बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों अपने देश वापस जाओ का नारा देते हुए उलगुलान किया था. उन्होंने एक नए धर्म का प्रचार किया. एक नए जीवन पद्धति अपने अनुयायियों को दी, उन्हें धरती आबा अर्थात पृथ्वी का पिता माना गया. भगवान बिरसा का अमोघ अस्त्र, सत्याग्रह और अहिंसा था. इसी तरह झारखंड सहित देश के विभिन्न हिस्सों में 85 प्रमुख आदिवासी नेतृत्वकर्ता हुए जिन्होंने देश और समाज के लिए प्राण आहुति दी है.
सेंटर फॉर ट्राइबल एंड रीजनल लैंग्वेज (Center for Tribal and Regional Languages) के प्रोफेसर डॉ उमेश नंद तिवारी कहते हैं कि वैसे व्यक्ति जो समाज के लिए काम करते हैं, ऐसे व्यक्ति भगवान की श्रेणी में आते हैं. यही वजह है कि जनजातीय समाज में बिरसा मुंडा के अलावा सिद्धो कान्हू, तिलका मांझी, चांद भैरव, नीलांबर पीतांबर, जतरा उरांव जैसे महापुरुषों को देवतूल्य माना जाता है. रांची विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सविता केशरी कहती हैं कि इन महापुरुषों से प्रेरित होकर समाज तो आगे बढ़ा है मगर वर्तमान समय में जो अंधी दौड़ शुरू हुई है उससे यह समाज अछुता नहीं है. पहले इन्हें सिर्फ जंगल में रहने वाले समझते थे लेकिन आज वो हर क्षेत्र में आगे होकर विकसित हो रही हैं.
शिबू सोरेन से बन गये दिशोम गुरुः शिबू सोरेन यानी गुरुजी यानी दिशोम गुरु वर्तमान समय में सर्वमान्य नेता के रुप में जाने जाते हैं. अधिकांश समय जंगलों में रहकर संघर्ष में कटा, आदिवासियों को महाजनों के चंगुल से मुक्ति दिलाई. पिता की हत्या के बाद शिबू सोरेन ने आंदोलन शुरू किया. महाजनों और नशाखोरी के विरुद्ध उन्होंने आंदोलन का नेतृत्व किया. आदिवासी समाज को एकजुट कर पारसनाथ की पहाड़ियों की तलहटी में बसे गांवों में अपना ठिकाना बनाया और संघर्ष करते रहे. बाद में यह आंदोलन अलग राज्य को लेकर किया गया. राजनीतिक और सामाजिक उद्देश्य को पूरा करने में सफल रहे गुरुजी के प्रति आदिवासी समाज आज भी बहुत ही आदर रखता है.