रांचीः 23 जनवरी यानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्मदिन. यह पहला मौका है जब पूरा देश नेताजी की 125वीं जयंती को पराक्रम दिवस के रूप में मना रहा है. लेकिन रांची के आयकट परिवार के लिए यह तारीख बेहद खास हो जाती है. इसकी वजह है नेताजी से जुड़ी इस परिवार की कुछ यादें.
मार्च 1940 में रामगढ़ अधिवेशन में शामिल होने से पहले वह रांची के लालपुर स्थित फणींद्र नाथ आयकट के यहां रुके थे. जिस रिलैक्सिंग चेयर पर बैठकर नेताजी चिंतन मनन करते थे, वह कुर्सी आज भी जस की तस रखी हुई है. फणींद्र नाथ आयकट के पोते विष्णु आयकट ने बताया कि उनके परिवार के लिए यह कुर्सी एक मंदिर की तरह है. जिसे अगरबत्ती दिखाई जाती है. उन्होंने कहा कि उनकी दादी किस्से सुनाया करती थी कि 1940 में जब नेता जी उनके घर आए थे तब घर पर त्यौहार जैसा माहौल था. दादी ने ही मना किया था कि जिस कुर्सी पर नेताजी बैठे हैं उस कुर्सी पर आगे कोई नहीं बैठेगा. इसलिए आज तक आयकट परिवार ने उस कुर्सी को सहेज कर रखा है. खास बात है कि 1940 के रामगढ़ में हुए कांग्रेस अधिवेशन के बाद ही सुभाष चंद्र बोस ने गरम दल बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई का एक नया रास्ता चुन लिया था.
विष्णु आयकट ने बताया कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस उनके दादा फणींद्र नाथ पर बहुत भरोसा करते थे. तब फणींद्र आयकट ब्रिटिश सरकार में कांट्रेक्टर थे. यह जानते हुए कि अंग्रेज नेताजी को पसंद नहीं करते हैं, उन्होंने नेताजी को अपने यहां ठहराया था. इस पर अंग्रेजों ने उनसे कई सवाल किए थे. जिसके बाद उन्होंने अंग्रेजों की तरफ से मिलने वाली राय बहादुर की उपाधि भी लेने से इनकार कर दिया था.
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रांची के विकास में नेताजी का अहम योगदान
विष्णु आयकट ने बताया कि उनके दादाजी ने ही रांची क्लब, जेपीएससी भवन और रांची लोहरदगा रेल लाइन के निर्माण में अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन नेताजी को ठहराने के कारण अंग्रेजों के साथ उपजे विवाद की वजह से उन्होंने अंग्रेजों का काम करना भी छोड़ दिया था. फणींद्र नाथ के पोते अभिषेक ने बताया कि नेताजी से जुड़ी परिवार की यादें अपने मित्रों से साझा करते वक्त गर्व महसूस होता है.