रांचीः झारखंड की कोख ने कई अनगिनत सपूतों को जन्म दिया जिन्होंने आजादी और अपनी धरती की रक्षा के लिए प्राणों की आहूति दे दी. अंग्रेजी शासक इन क्रांतिकारियों के शौर्य से कांपती थी. ये क्रांतिकारी भले ही कम उम्र में ही देश के लिए न्योछावर हो गए लेकिन उन्होंने आजादी और आदिवासियों के हक के लिए जो मशाल जलाई वह युगों-युगों तक रोशन होती रहेगी. उन्हें में से एक हैं महानायक भगवान बिरसा मुंडा.
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15 नवंबर 1875 को खूंटी जिले के उलिहातू गांव में रहने वाले सुगना मुंडा और करमी मुंडा को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. माता पिता ने पुत्र का नाम बिरसा रखा, आदिवासी परिवेश में बिरसा का लालन पालन हुआ और शुरुआती शिक्षा ग्रामीण परिवेश में हुई. इसके बाद बिरसा मुंडा चाईबासा चले गए, जहां उन्होंने मिशनरी स्कूल से अपनी पढ़ाई पूरी की. अपने छात्र काल में ही अंग्रेज शासकों की तरफ से अपने समाज पर किए जा रहे जुल्म को लेकर चिंतत थे. आखिरकार उन्होंने अपने समाज की भलाई के लिए लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने की ठानी और उनके नेतृत्वकर्ता बन गए. उस दौरान 1894 में छोटानागपुर में भयंकर अकाल और महामारी ने पांव पसारा. उस समय नौजवान बिरसा मुंडा ने पूरे मनोयोग से लोगों की सेवा की.
बिरसा मुंडा की गणना महान क्रांतिकारी और देशभक्तों में की जाती है. भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे नायक रहे, जिन्होंने अपने क्रांतिकारी चिंतन से 19वीं शताब्दी की शुरुआत में ना सिर्फ झारखंड बल्कि देश में बसने वाले आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदलकर नये सामाजिक और राजनीतिक युग की नींव रखी. अंग्रेजी सरकार के काले कानूनों को चुनौती देकर बर्बर ब्रिटिश साम्राज्य को सांसत में डाल दिया.
बिरसा मुंडा ने आर्थिक स्तर पर सुधार के लिए आदिवासी समाज को जमींदारों के आर्थिक शोषण से मुक्त कराने की दिशा में कदम बढ़ाया. बिरसा मुंडा ने जब सामाजिक स्तर पर आदिवासियों में चेतना पैदा कर दी तो आर्थिक स्तर पर सारे आदिवासी शोषण के विरुद्ध स्वयं ही संगठित होने लगे. राजनीतिक स्तर पर आदिवासियों को संगठित करने से इस समाज में चेतना की चिंगारी सुलगा दी. जिससे आजादी के संग्राम में इसे आग बनने में देर नहीं लगी. आदिवासी अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग हुए और अंग्रेजों के विरूद्ध व्यापक आंदोलन छेड़ दी.
बेगारी प्रथा के विरुद्ध आंदोलनः 1894 में बिरसा मुंडा ने उनके नेतृत्व की कमान संभाली. आदिवासियों ने बेगारी प्रथा के विरुद्ध जबर्दस्त आंदोलन किया. अंग्रेजों के खिलाफ लगान माफी के लिए आंदोलन की शुरुआत कर दी. जिससे जमींदारों के घर से लेकर खेत तक भूमि का कार्य रूक गया. सामाजिक स्तर पर आदिवासियों के इस जागरण से जमींदार और तत्कालीन ब्रिटिश शासन बौखला गया. इसके साथ साथ समाज नयी चेतना जगने से आडंबर और झाड़ फूंक करने वालों भी आफत में पड़ गये. भगवान बिरसा मुंडा के सामाजिक अभियान के कारण अंग्रेजी सरकार घबरा गयी और उनके आंदोलन के दमन का प्रयास किया. अंग्रेजों बिरसा मुंडा को पकड़वाने के लिए उस समय 500 रुपये का इनाम रखा था. इसके अलावा लोगों को प्रलोभन भी दिया कि जो भी बिरसा मुंडा के बारे में बताएगा वो लगान मुक्त हो जाएगा और उसे जमीन का पट्टा भी दिया जाएगा.
इसी बीच 22 अगस्त 1895 को बिरसा मुंडा को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया. उन्हें 2 साल की कठोर कारावास की सजा दी और 50 रुपये का जुर्माना भी लगाया. जुर्माना ना देने के कारण वो करीब ढाई साल बाद हजारीबाग जेल से रिहा हुए और फिर से अपने जन आंदोलन में जुट गये. 1897 से 1900 के बीच मुंडा समाज और अंग्रेजी सिपाहियों के बीच लगातार युद्ध होते रहे. बिरसा मुंडा और उसके समर्थकों ने अंग्रेजी सेना की नाक में दम कर दिया. अगस्त 1897 में बिरसा मुंडा और उसके 400 सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाना पर धावा बोला.
बिरसा मुंडा की गिरफ्तारीः 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं के साथ अंग्रेजी सेना की लड़ाई हुई. जिसमें अंग्रेजी सेना हार गई लेकिन बाद में उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर बिरसा मुंडा एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे. इसी दौरान अंग्रेजी सैनिकों ने हमला कर दिया, इस संघर्ष में काफी संख्या में महिलाएं और बच्चे मारे गये. इस बाद में बिरसा मुंडा के कई शिष्यों की गिरफ्तारियां भी हुईं. 3 मार्च 1900 को अंग्रेजी सेना ने चक्रधरपुर से बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया. इसके बाद उन्हें रांची जेल लाया गया. रांची जेल आने के दौरान वो काफी बीमार पड़ गये, उन्हें खून की उल्टी होने लगी. इसी बीमारी में बिरसा मुंडा ने 9 जून 1900 को रांची जेल में अंतिम सांस ली.
आदिवासियों के महानायक बिरसा मुंडा, जिन्होंने 19वीं शताब्दी में अपने क्रांतिकारी और समाज सुधार गतिविधियों से आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदलकर रख दी. झारखंड में उन्हें धरती आबा की संज्ञा दी गयी है. युवा अवस्था में उनकी चेतना पर अंधविश्वास, सामाजिक रीति-रिवाज और अंग्रेजी शासन ने गहरा असर डाला. बिरसा मुंडा ने महसूस किया कि आचरण के धरातल पर आदिवासी समाज अंधविश्वासों की चपेट में जकड़ता जा रहा है. उन्होंने यह भी अनुभव किया कि सामाजिक कुरीतियों के कोहरे ने आदिवासी समाज को ज्ञान के प्रकाश से वंचित कर दिया है. धर्म के बिंदु पर आदिवासी कभी मिशनरियों के प्रलोभन में आ जाते हैं तो कभी ढकोसलों को ही ईश्वर मान लेते हैं. आदिवासी समाज को अंधविश्वास के चंगुल से छूटकारा दिलाने के लिए उन्हें स्वच्छता और संस्कार का पाठ पढ़ाया और शिक्षा का महत्व समझाया.
बिरसाइत की शुरुआतः भगवान बिरसा मुंडा के बताए मार्ग पर चलने को बिरसाइत कहा गया. आज भी उनके शिष्य इस धर्म का पालन करते हैं. बिरसा मुंडा आदिवासियों के भगवान की तरह पूजे जाते हैं. उनकी पूरी जीवन आदिवासी समुदाय के उत्थान के लिए समर्पित था. अंग्रेजों के विरूद्ध आंदोलन के लिए भी उन्होंने आदिवासियों को प्रेरित किया. बिरसा मुंडा प्रगतिशील चिंतक और एक सुधारवादी नेता रहे. उन्होंने अपने समाज में व्याप्त अंधविश्वास, नशा और जीव हत्या के विरूद्ध मोर्चा खोलकर जन जागरण अभियान शुरु किया. उन्होंने अपने आंदोलन के कुछ सुधारवादी सूत्र विकसित किए. उन्होंने लोगों को समझाया कि जीव हत्या ठीक नहीं है बलि देना गलत है, सभी जीवों से हम प्रेम करें, उनके प्रति दयाभाव रखें. उन्होंने आदिवासी समाज को शराब का सेवन करने से भी मना किया. बिरसा मुंडा ने आदिवासी समाज की एकता और संगठन पर जोर दिया.