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Bihar Politics in Jharkhand: बिहार के नेताओं को आखिर क्यों लुभा रहा झारखंड, बड़े नेताओं के दौरे के यहां समझिए मायने - झारखंड में जेडीयू

बिहार और झारखंड की राजनीति का सियासी पारा चढ़ा हुआ है. बिहार की पूरी राजनीति झारखंड पर नजर गड़ाए हुए है. शायद बिहार के राजनीतिक दलों को झारखंड में राजनीति का नया दाना पानी दिख रहा है. हालांकि इस बात को लेकर कोई खुलकर बता तो नहीं रहा लेकिन झारखंड के लिए बिहार वाली राजनीति कुछ ज्यादा सक्रिय हो गई है.

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Published : Feb 22, 2023, 11:08 PM IST

रांचीः झारखंड में पिछले 1 महीने में बिहार के दौरे वाली राजनीति की बात करें तो तेजस्वी यादव झारखंड दौरे पर गए और कहा हर महीने झारखंड आउंगा. जदयू के प्रदेश प्रभारी रहे श्रवण कुमार झारखंड से हटाए गए और अशोक चौधरी को झारखंड का प्रभार दिया गया. 1 महीने के भीतर अशोक चौधरी ने दूसरा दौरा झारखंड का बना दिया और 22 फरवरी की राजनीति एक नए अध्याय को इसलिए भी जोड़ रही है क्यों कि जदयू के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह झारखंड दौरे पर हैं. पार्टी को मजबूत करने में जुटे हैं. सवाल यहीं से उठ रहा है कि आखिर राष्ट्रीय जनता दल और जदयू को झारखंड की सियासत में ऐसा कौन सा तुरुप का पत्ता दिख गया है, जिसके लिए राजनीतिक दल दौड़ तेज कर दिए हैं.

राष्ट्रीय जनता दल को लेकर के इस बात पर ज्यादा सवाल भी नहीं खड़ा किया जा सकता है क्योंकि राष्ट्रीय जनता दल की सक्रियता झारखंड में लगातार रही है. अन्नपूर्णा देवी के भाजपा में जाने से पहले राष्ट्रीय जनता दल की राजनीति राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में रहती थी क्योंकि अन्नपूर्णा देवी राष्ट्रीय जनता दल में काफी सक्रिय थी. राष्ट्रीय जनता दल झारखंड में चल रही सरकार में शामिल है, तो ऐसे में तेजस्वी यादव का हर महीने जाना भी राजनीति में कोई बड़ा सवाल नहीं खड़ा कर रहा है लेकिन जदयू के स्टैंड ने सभी राजनीतिक दलों के लिए एक सवाल जरूर खड़ा कर दिया है कि आखिर किस वोट बैंक की दौड़ अब दलों ने मचा रखी है.

नीतीश कुमार की समता पार्टी और उसके बाद जनता दल यूनाइटेड के सफर की बात करें तो नीतीश कुमार जब एनडीए के साथ थे और शरद यादव जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे तो कभी झारखंड जदयू के फोकस में था ही नहीं. नीतीश कुमार अध्यक्ष बने तो झारखंड की राजनीति को बहुत जगह नहीं दिए. नीतीश के बाद आरसीपी सिंह को जनता दल यूनाइटेड की कमान मिली तो उनका पूरा कार्यकाल ही विवादों से निपटने में लग गया. हालांकि यह दौर था जब नीतीश कुमार फिर बीजेपी के साथ आ गए थे तो ऐसे में झारखंड की राजनीति में नीतीश का सक्रिय रहना संभव भी नहीं था.

आरसीपी सिंह के बाद जब ललन सिंह को जिम्मेदारी मिली तो झारखंड की राजनीति में जदयू की दखल थोड़ी सी बढ़ गई. खीरू महतो को झारखंड जनता दल यू का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया तो सियासत में दबाव और दबदबे की राजनीति को मजबूत करने की कोशिश शुरू हो गई. दूसरा बड़ा बदलाव जदयू ने यह भी कर दिया कि कांग्रेस के कभी प्रदेश अध्यक्ष रहे अशोक चौधरी जिन्होंने बिहार में डूब चुकी कांग्रेस को उबार कर सरकार तक पहुंचा दिया, उन्हें झारखंड की कमान दे दी गई. 1 महीने के भीतर अशोक चौधरी दो बार झारखंड का दौरा कर चुके हैं और 22 फरवरी को ललन सिंह को लेकर वह झारखंड में जदयू को मजबूत करने की सियासी रणनीति बना रहे हैं. सवाल यह उठ रहा है कि आखिर इस भारी-भरकम दौड़ की वजह क्या है.

वर्तमान समय में बिहार में नीतीश की पार्टी जिस राजनीतिक विवाद में पड़ी है उसे लेकर जनता के बीच झारखंड में भी जाना जदयू के लिए आसान नहीं है. राष्ट्रीय जनता दल के सहयोग से चल रही नीतीश की सरकार को लेकर अब राजद के नेता तेजस्वी यादव को सीएम की कुर्सी देने की बात कर रहे हैं. वहीं जदयू के लोग 2024 और 2025 के चुनाव को नीतीश के नेतृत्व में लड़ने की बात कर रहे हैं. राजनीति में गठबंधन वाले समझौते से जिस लड़ाई को इतने लंबे समय तक मजबूत गठबंधन के साथ लेकर चलने की बात जदयू के लोग कह रहे हैं, उसके लिए राष्ट्रीय जनता दल तो कतई तैयार नहीं है, क्योंकि तेजस्वी यादव ने भी कह दिया कि, मुझे कुर्सी के लिए जल्दबाजी नहीं है, लेकिन यह बात तो सही है और राजद के लोग कह ही रहे हैं और माना भी जा रहा है कि अगर सीएम की कुर्सी तेजस्वी को मिल जाती है तो इससे इनकार भी नहीं करेंगे.

झारखंड में पार्टी की मजबूती के लिए पहुंचे ललन सिंह से जब इस बात को पूछा गया कि जिस विभेद में बिहार की राजनीति फंसी हुई है, आखिर झारखंड में किस मुद्दे के साथ वह पार्टी को बड़ा करेंगे. इस सवाल के उत्तर में संभव है कि नीतीश कुमार के सबसे बड़े ट्रंप कार्ड को खेली गयी शराबबंदी अभी भी जदयू का सबसे बड़ा मुद्दा है. लेकिन आपसी विभेद फिलहाल बना हुआ है कि यही सबसे बड़ा मुद्दा है. अब इस मुद्दे से किस तरीके से पार्टी को बाहर कर पाएंगे यह कहना थोड़ा सा मुश्किल है.

राष्ट्रीय स्तर पर नीतीश की राजनीतिक छवि को मजबूत करने की एक कोशिश रामगढ़ के रण में भी दिख रही है कि वहां पर जदयू ने अपने कैंडिडेट को नहीं दिया और जदयू के तमाम नेता जमकर कांग्रेस के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं. इस बात को लेकर यह माना जा रहा है कि रामगढ़ के रण से जो भी सियासी बातें बाहर निकलेंगी वह झारखंड की राजनीति में कांग्रेस और जदयू की मजबूती का एक राजनीतिक समझौते का रास्ता तो कहा जा सकता है. झारखंड में नीतीश के साथ कांग्रेस की राह बहुत आसान इसलिए भी नहीं कही जा सकती क्योंकि बदलाव वाली राजनीति को जिस ढंग से नीतीश ने बिहार की राजनीति में दिया है उसको लेकर के कांग्रेस भी बहुत खुलकर कुछ कह नहीं सकती.

नीतीश कुमार के राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति को लेकर के 22 फरवरी को ही कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कह दिया कि कांग्रेस के नेतृत्व में ही बाकी राजनीतिक दल राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दा तैयार करें और बीजेपी का विरोध करने की रणनीति बनाएं. इस बात से मामला बिल्कुल साफ है कि नीतीश के स्टैंड पर कांग्रेस बहुत कुछ जगह देने के मूड में नहीं है. ऐसे में जिस गठबंधन के साथ जदयू चल रही है और राष्ट्रीय जनता दल जिस तरीके से अपने राजनैतिक तेवर को बनाए हुए है, बिहार की राजनीति की हवा फिलहाल थोड़ी गर्म जरूर है. इसका असर झारखंड की सियासत पर दिख रहा है, अब नीतीश कुमार के 2014 और 2015 चुनावी स्लोगन की बात करें यह हवा किसका है, शायद ब्लोअर का है. लेकिन फागुन से ठीक पहले इस हवा को जिस सियासी गुलाबी रंग में जदयू डालना चाहती है वह इसे कर पाती है या नहीं यह तो आगे की राजनीतिक राह तय करेगी, लेकिन एक बात तो साफ है कि बिहार में राजनीति का रंग अलग फागुनी बयार के साथ बह रही है यह तो बिल्कुल साफ है.

रांचीः झारखंड में पिछले 1 महीने में बिहार के दौरे वाली राजनीति की बात करें तो तेजस्वी यादव झारखंड दौरे पर गए और कहा हर महीने झारखंड आउंगा. जदयू के प्रदेश प्रभारी रहे श्रवण कुमार झारखंड से हटाए गए और अशोक चौधरी को झारखंड का प्रभार दिया गया. 1 महीने के भीतर अशोक चौधरी ने दूसरा दौरा झारखंड का बना दिया और 22 फरवरी की राजनीति एक नए अध्याय को इसलिए भी जोड़ रही है क्यों कि जदयू के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह झारखंड दौरे पर हैं. पार्टी को मजबूत करने में जुटे हैं. सवाल यहीं से उठ रहा है कि आखिर राष्ट्रीय जनता दल और जदयू को झारखंड की सियासत में ऐसा कौन सा तुरुप का पत्ता दिख गया है, जिसके लिए राजनीतिक दल दौड़ तेज कर दिए हैं.

राष्ट्रीय जनता दल को लेकर के इस बात पर ज्यादा सवाल भी नहीं खड़ा किया जा सकता है क्योंकि राष्ट्रीय जनता दल की सक्रियता झारखंड में लगातार रही है. अन्नपूर्णा देवी के भाजपा में जाने से पहले राष्ट्रीय जनता दल की राजनीति राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में रहती थी क्योंकि अन्नपूर्णा देवी राष्ट्रीय जनता दल में काफी सक्रिय थी. राष्ट्रीय जनता दल झारखंड में चल रही सरकार में शामिल है, तो ऐसे में तेजस्वी यादव का हर महीने जाना भी राजनीति में कोई बड़ा सवाल नहीं खड़ा कर रहा है लेकिन जदयू के स्टैंड ने सभी राजनीतिक दलों के लिए एक सवाल जरूर खड़ा कर दिया है कि आखिर किस वोट बैंक की दौड़ अब दलों ने मचा रखी है.

नीतीश कुमार की समता पार्टी और उसके बाद जनता दल यूनाइटेड के सफर की बात करें तो नीतीश कुमार जब एनडीए के साथ थे और शरद यादव जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे तो कभी झारखंड जदयू के फोकस में था ही नहीं. नीतीश कुमार अध्यक्ष बने तो झारखंड की राजनीति को बहुत जगह नहीं दिए. नीतीश के बाद आरसीपी सिंह को जनता दल यूनाइटेड की कमान मिली तो उनका पूरा कार्यकाल ही विवादों से निपटने में लग गया. हालांकि यह दौर था जब नीतीश कुमार फिर बीजेपी के साथ आ गए थे तो ऐसे में झारखंड की राजनीति में नीतीश का सक्रिय रहना संभव भी नहीं था.

आरसीपी सिंह के बाद जब ललन सिंह को जिम्मेदारी मिली तो झारखंड की राजनीति में जदयू की दखल थोड़ी सी बढ़ गई. खीरू महतो को झारखंड जनता दल यू का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया तो सियासत में दबाव और दबदबे की राजनीति को मजबूत करने की कोशिश शुरू हो गई. दूसरा बड़ा बदलाव जदयू ने यह भी कर दिया कि कांग्रेस के कभी प्रदेश अध्यक्ष रहे अशोक चौधरी जिन्होंने बिहार में डूब चुकी कांग्रेस को उबार कर सरकार तक पहुंचा दिया, उन्हें झारखंड की कमान दे दी गई. 1 महीने के भीतर अशोक चौधरी दो बार झारखंड का दौरा कर चुके हैं और 22 फरवरी को ललन सिंह को लेकर वह झारखंड में जदयू को मजबूत करने की सियासी रणनीति बना रहे हैं. सवाल यह उठ रहा है कि आखिर इस भारी-भरकम दौड़ की वजह क्या है.

वर्तमान समय में बिहार में नीतीश की पार्टी जिस राजनीतिक विवाद में पड़ी है उसे लेकर जनता के बीच झारखंड में भी जाना जदयू के लिए आसान नहीं है. राष्ट्रीय जनता दल के सहयोग से चल रही नीतीश की सरकार को लेकर अब राजद के नेता तेजस्वी यादव को सीएम की कुर्सी देने की बात कर रहे हैं. वहीं जदयू के लोग 2024 और 2025 के चुनाव को नीतीश के नेतृत्व में लड़ने की बात कर रहे हैं. राजनीति में गठबंधन वाले समझौते से जिस लड़ाई को इतने लंबे समय तक मजबूत गठबंधन के साथ लेकर चलने की बात जदयू के लोग कह रहे हैं, उसके लिए राष्ट्रीय जनता दल तो कतई तैयार नहीं है, क्योंकि तेजस्वी यादव ने भी कह दिया कि, मुझे कुर्सी के लिए जल्दबाजी नहीं है, लेकिन यह बात तो सही है और राजद के लोग कह ही रहे हैं और माना भी जा रहा है कि अगर सीएम की कुर्सी तेजस्वी को मिल जाती है तो इससे इनकार भी नहीं करेंगे.

झारखंड में पार्टी की मजबूती के लिए पहुंचे ललन सिंह से जब इस बात को पूछा गया कि जिस विभेद में बिहार की राजनीति फंसी हुई है, आखिर झारखंड में किस मुद्दे के साथ वह पार्टी को बड़ा करेंगे. इस सवाल के उत्तर में संभव है कि नीतीश कुमार के सबसे बड़े ट्रंप कार्ड को खेली गयी शराबबंदी अभी भी जदयू का सबसे बड़ा मुद्दा है. लेकिन आपसी विभेद फिलहाल बना हुआ है कि यही सबसे बड़ा मुद्दा है. अब इस मुद्दे से किस तरीके से पार्टी को बाहर कर पाएंगे यह कहना थोड़ा सा मुश्किल है.

राष्ट्रीय स्तर पर नीतीश की राजनीतिक छवि को मजबूत करने की एक कोशिश रामगढ़ के रण में भी दिख रही है कि वहां पर जदयू ने अपने कैंडिडेट को नहीं दिया और जदयू के तमाम नेता जमकर कांग्रेस के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं. इस बात को लेकर यह माना जा रहा है कि रामगढ़ के रण से जो भी सियासी बातें बाहर निकलेंगी वह झारखंड की राजनीति में कांग्रेस और जदयू की मजबूती का एक राजनीतिक समझौते का रास्ता तो कहा जा सकता है. झारखंड में नीतीश के साथ कांग्रेस की राह बहुत आसान इसलिए भी नहीं कही जा सकती क्योंकि बदलाव वाली राजनीति को जिस ढंग से नीतीश ने बिहार की राजनीति में दिया है उसको लेकर के कांग्रेस भी बहुत खुलकर कुछ कह नहीं सकती.

नीतीश कुमार के राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति को लेकर के 22 फरवरी को ही कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कह दिया कि कांग्रेस के नेतृत्व में ही बाकी राजनीतिक दल राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दा तैयार करें और बीजेपी का विरोध करने की रणनीति बनाएं. इस बात से मामला बिल्कुल साफ है कि नीतीश के स्टैंड पर कांग्रेस बहुत कुछ जगह देने के मूड में नहीं है. ऐसे में जिस गठबंधन के साथ जदयू चल रही है और राष्ट्रीय जनता दल जिस तरीके से अपने राजनैतिक तेवर को बनाए हुए है, बिहार की राजनीति की हवा फिलहाल थोड़ी गर्म जरूर है. इसका असर झारखंड की सियासत पर दिख रहा है, अब नीतीश कुमार के 2014 और 2015 चुनावी स्लोगन की बात करें यह हवा किसका है, शायद ब्लोअर का है. लेकिन फागुन से ठीक पहले इस हवा को जिस सियासी गुलाबी रंग में जदयू डालना चाहती है वह इसे कर पाती है या नहीं यह तो आगे की राजनीतिक राह तय करेगी, लेकिन एक बात तो साफ है कि बिहार में राजनीति का रंग अलग फागुनी बयार के साथ बह रही है यह तो बिल्कुल साफ है.

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